-डॉ.
रत्ना वर्मा
इन दिनों देश भक्ति रस में डूबा है। मॉँ दुर्गा की
उपासना के साथ पूरा भारत दशहरा और दीपावली के स्वागत की तैयारी में जुट जाता है।
चहुँ ओर 'जय
माता दीÓ के
नारे से वातावरण गुंजायमान रहता है। अष्टमी के दिन कन्या पूजने की जोर-शोर से
तैयारी की जाती है। लेकिन कन्या को दुर्गा-माता के रूप में पूजे जाने वाले इस देश
में जब देश की सर्वोच्च अदालत यह कहती है कि इस देश में माता-पिता अपनी लड़कियों
को स्कूल इसलिए नहीं भेजते; क्योंकि स्कूलों में लड़कियों के लिए
शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं होती तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। दुर्गा की
प्रतिबिंब मानी जाने वाली हमारे देश की ये कन्याएँ नवरात्र में भले ही पूजी जाती
हों पर वे अपने देश में शिक्षा जैसे सबसे जरूरी मूलभूत अधिकारों से वंचित हो जाती
हैं और वह भी इसलिए कि उनके स्कूलों में शौचालयों की व्यवस्था नहीं है!!!
इस माह की तीन
तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में पानी, बिजली, इमारत और
अध्यापकों की कमी जैसी मूलभूत सुविधाओं पर फिर एक बार गहरी चिंता व्यक्त करते हुए
राज्यों को जमकर फटकार लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और राज्य सरकार को
हर स्कूल में रिक्त पड़े शिक्षकों के पदों को भरने के आदेश के साथ यह भी आदेश दिया
है कि सरकारी और अनुदानित शिक्षण संस्थाओं में पीने का पानी और शौचालय उपलब्ध
कराया जाए। न्यायालय का निर्देश है कि छह महीने के भीतर देश के सभी स्कूलों में
बुनियादी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश एक गैर
सरकारी संगठन इन्वायरन्मेण्टल एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन फाउंडेशन की याचिका पर
सुनवाई के बाद दिया। याचिका में देश के प्राथमिक विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं
का मुद्दा उठाया गया है।
बहुत अफसोस जनक है यह सब कि आजादी के 65 वर्षों
बाद भी हम अपने स्कूलों में पानी और शौचालय जैसी बेहद मामूली सुविधाएँ भी उपलबध
नहीं करा पाएँ हैं और इसके लिए जो कि हमारा मूलभूत कानूनी अधिकार है, जनहित
याचिकाओं और कोर्ट का सहारा लेना पड़ रहा है।
सरकार ने 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून पारित तो कर
दिया; लेकिन
उसका पालन करने में जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को
बार-बार सरकार के लिए निर्देश जारी करना
पड़ता है। अन्यथा क्या कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 18 अक्टूबर
को सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि सरकार सभी सरकारी
स्कूलों में खासकर लड़कियों के लिए शौचालय का निर्माण करें, परंतु
सरकार तब भी नहीं जागी और उसने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। साल बीत गया पर
हालात जस के तस हैं। अदालत ने तब यह भी कहा था कि शोधों से पता चला है कि जिन
स्कूलों में शौचालयों की सुविधा नहीं होती वहाँ माता-पिता अपने बच्चों को और
खासतौर पर बच्चियों को पढऩे के लिए नहीं भेजते। अदालत को तब यह भी कहना पड़ा था कि
बुनियादी सुविधाएँ प्रदान नहीं करना संविधान के अनुच्छेद 21-ए के तहत
बच्चों को प्रदत्त नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का उल्लघन है।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए हमें अफसोस के साथ यह कहना
पड़ता है कि अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखते।
उदंती के इस स्तंभ में हमने कई बार इस मुद्दे को उठाया
है। और इस मामले को तब तक उठाते रहेंगे; जब तक कि हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा में
आमूल-चूल परिवर्तन नहीं किया जाएगा, जो कि शिक्षा की बुनियाद है। समय-समय पर कई
निजी संस्थानों द्वारा कराए गए शोध और सर्वेक्षण इस बात के गवाह हैं कि हमारे देश
में 80
प्रतिशत से भी अधिक स्कूलों में मूलभूत सुविधाएँ, जैसे- स्कूल भवन, पानी, बिजली, शौचालय, बैठने के
लिए कुर्सी टेबल या टाटपट्टी जैसी आवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं और तो और
पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी नहीं हैं। एक ही शिक्षक पहली से पाँचवी तक की
कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मजबूर हैं। स्कूल भवनों की जो हालत है वह किसी से छिपी
नहीं है। बैठने के लिए पर्याप्त जगह न होने के कारण बच्चे खुले आसमान के नीचे
पढऩेे को मजबूर हैं।
बच्चों को स्कूल
में भोजन देने के नाम पर सरकार जो योजना चला रही है, उसमें भी भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा चुका
है। कीड़े-मकौड़े से युक्त सड़ा-गला भोजन परोसकर सरकारें आखिर क्या हासिल करना
चाहती हैं। पर सच्चाई तो यही है कि जनता को हमारे राजनीतिक दल पढ़ा-लिखा बनने ही
नहीं देना चाहते। यदि जनता पढ़-लिख कर जागरूक बन गई तो फिर उनके वोट बैंक का क्या
होगा, जिनके
बल-बूते पर वे जीत कर कुर्सियाँ हासिल करते हैं!
प्रश्न अब यह उठता है कि कैसे हम शिक्षा के अपने मूल
अधिकारों को हासिल करें? जनता को इसके लिए लडऩा तो होगा ही, राजनीतिकों
को भी अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर देश को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगा।
कानून बना देने मात्र से सरकार की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। किसी भी कानून
को लागू करने के लिए सरकार को कई जतन करने पड़ते हैं, योजनाओं
को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए काम करना पड़ता है। यह तो सर्वविदित है कि विकसित
देशों की समृद्धि का मूलमंत्र वहां की शिक्षा-व्यवस्था की मजबूत इमारत है। जबकि
हमारे देश में यही इमारत सबसे कमजोर है। अत: जब तक हम प्राथमिक शिक्षा की नींव को
मजबूत नहीं करेंगे और इसके लिए स्कूलों में मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं को मुहैया
नहीं कराएँगे तब तक तब समृद्ध देश का सपना पूरा नहीं कर सकते।
यह हो नहीं सकता ऐसी बात भी नहीं है, बस जरूरत
है दृढ़ इच्छा शक्ति और मजबूत इरादों की। बहुत अधिक न सही कम से कम पीने का पानी, शौचालय और
शिक्षकों की कमी को दूर करने की दिशा में पहल करके हमारी सरकारें सुप्रीम कोर्ट के
निर्देश का मान तो रख ही सकती हैं। सरकारें चाहे वह केन्द्र की हो या राज्य की, जिस दिन
भी ठान लेंगी कि देश के हर बच्चे को चाहे वह लड़का हो या लड़की शिक्षा के समुचित
अवसर मिलेंगे तब कहीं जाकर नौनिहाल देश का मान बढ़ाएँगे और तब देश को समृद्धि के
शिखर पर परवान चढऩे से कोई नहीं रोक सकेगा। विश्वास करना चाहिए कि है ऐसी जागरूकता
जल्दी ही आएगी।
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