- सुशील यादव व्यंग्य
बैल को, शायद ही किसी ने आक्रमक होते देखा हो? शायद इसी कारण इस निरीह प्राणी को हर कोई
लडऩे के लिए, दावत देने की, हिमाकत और हिम्मत कर
लेता है,....चैलेंज दे डालता
है... आ ..मार।
साँड को लडऩे के लिए ललकारने वालों का
इतिहास, न समाज में और न ही
राजनीति में कहीं मिलता है। इस विषय में शोध करने वाले व्यर्थ माथा-पच्ची न करें, वरना आपके गाइड
सालो-साल आपको, सब्जी-भाजी लाने के
लिए थैला टिकाते रहेगा, अंत में मिलेगा कुछ नहीं ।
खैर, साँड टाइप शख्शियत, जो बिना कहे लडऩे-लड़ाने के लिए हरदम तैयार रहता है, लोग उससे बच के
निकलने में ही बुद्धिमानी समझते हैं।
साँड से कितना भी बचना चाहो, तो भी वो आपके सायकल, मोटर सायकल, स्कूटर, गाड़ी के सामने आम
चौराहे पर खड़ा हो जाता है। दम है तो निकल के देख?
गाहे-बगाहे, बिना कारण आफत को न्योता देना, ‘आ बैल मुझे मार’ के तार्किक मायने कहे
जाते हैं। मैं कुछ लोगों को करीब से जानता हूँ, उनके दिमाग में ‘बैल से नूरा कुश्ती’ का कीड़ा कुलबुलाते
रहता है।
बैल को पता नहीं किन कारणों से हमने
राष्ट्रीय स्तर पर सजग ‘प्राणी’ होने की मान्यता नहीं
दी? हालाकि उससे हल
जुतावाये, गाड़ी में भर-भर के
सामान खिचवाया, मगर जब श्रेय देने की
बात हुई तो हम अच्छे मौसम और उत्तम बीज की
चर्चा करके रुक गए। ये कभी नहीं कहा कि ‘दो जोड़ी बैलों’ ने इज्जत रखने में अपना अहम् रोल निभाया।
बैलों ने भी कभी इंसानों से, अपनी उपेक्षा की
शिकायत नहीं की। उन्हें कभी किसी बात पे
वाहवाही लूटने, अपनी प्रशंसा सुनने
का सरोकार नहीं रहा। वे निरपेक्ष बने रहे। उनके चेहरों में शिकन भी देखने को नहीं
मिला कि कैसे मालिक से पाला पड़ा है? यहाँ तक कि, उनके हिस्से का चारा
खाने वालों के खिलाफ भी वे निरपेक्ष बने रहे। वे अमीर-गरीब, ऊँचे-नाटे, सभी मालिकों के वफादार
रहे। नियत समय पर खेत जोत देने और गोबर कर देने के उनकी दिनचर्या के अनिवार्य
क्षणों में कोई तब्दीली नहीं हुई। कितनी भी परिस्थतियाँ बदली, उन्हें कितनी भी
प्रतारणाएँ मिली, उनको दल बदलते कभी
देक्खा ही नहीं गया ।
मैंने बैलों में, शृंगार की अनुभूति का
आनन्द लेते, सिर्फ प्रेमचन्द जी
की कहानी ‘हीरा-मोती’ में महसूस किया। वैसे
सजे-सजाये बैल फिर कभी सुने-दिखे नहीं ।
बैल जोड़ी के निशान को लेकर एक पार्टी का
बरसों राज चला। सचमुच में वे दिन बैलों की तरह निश्चिन्त, निसफिक्र, निर्विवाद थे। महँगाई
के मुह खुले न थे। कालाबाजारी, घुसखोरी भ्रस्टाचार पर नथे हुए बैलों की तरह लगाम लगे थे।
बैल को बैल की तरह देखने की प्रवित्ति में
एक अलग भाव तब उत्पन्न होता है, जब हम शिवालय जाते हैं। अगाध श्रद्धा उमड़ती है। वहाँ के ‘नंदी’ को बैल जैसा कोई कह
नहीं पाता, लगभग सभी भक्तों को
खाते-पीते मस्त ‘साँड’ के माफिक दिखता जो है
।
आज की पीढ़ी को कोल्हू के बैल की कथा
सुनाने व महसूस कराने में शायद हम कामयाब न हों मगर हमने अपनी आँखों से कोल्हू के
बैल को ‘तिल की घानी’ में घूमते हुए देखा
है। पाँच कंडील, सदर- बाजार जाने के रास्ते
एक खुफिया किस्म का मकान आता था, तेल से बजबजाता एक अब-तब टूटने लायक फाटक, एक मिली-कुचैली सी साड़ी में लिपटी हुई
बुजुर्ग सी औरत, एक तेल पेरने की घानी, और नथुनों में समा
जाने वाली तिल के तेल की गंध। बहुत दूर से पता चल जाता था कि कहीं तेल निकल रहा
है। उस जमाने का समझो वो ऑटोमेटिक मशीन था, एक बार तिल डाल दो, बैल चक्कर पे चक्कर मार के तेल निकालता रहेगा। सुबह-दोपहर-शाम, सर्दी-गर्मी बरसात, आप सुबह दातून करते
वक्त, या रात सेकंड शो
पिक्चर से लौटते समय, कभी भी देख लो, बैल का अनवरत चक्कर चलते रहता था।
बैल के नाम पर कर्ज लेने वाले किसान आजकल
नदारद से हो गए। इन दिनों कभी आपने सुना
है कि, किसान अपनी पत्नी से
गंभीर मंत्रणा कर रहा हो कि मंगलू की अम्मा, सोच रहा हूँ, इस साल एक जोड़ी बैल
खरीद लेते? खेत पिछले कई सालों
से ठीक से जुते ही नहीं, फसले बिगड़ रही हैं।
इन संवादों के पीछे मंगलू की अम्मा को, भ्रम यूँ होने लग
जाता है कि उनके पति को भूत- प्रेतों का साया तो नहीं लग गया है। वे चुड़ैल के
चक्कर में तो नहीं फंस गए कहीं? आज बैल खरीदने की बाध्यता या मजबूरी कहाँ रह गई?
कहाँ तो एक रूपये-दो रुपये में मजे से
चावल-गेहूँ मिल रहे हैं? क्या करेंगे बैल जोड़ी लेकर? जगह भी कहाँ है इनको रखने की? नौकर कहाँ है जो देख- रेख करे? पत्थर, सीमेंट या टाइल्स
बिछे घरों को अब गोबर से लीपता कौन है?
अब जब टीवी, फ्रिज, मोबाइल, मकान के नाम पर आधा गाँव लोन उठा रहा हो, बैलों के नाम पर लोन
की कोई सोचे तो लोग पागल ही कहेंगे ना ?
फिल्मों से भी ये सब्जेक्ट कब का उठ गया
है। अब कोई सुक्खी लाला, ‘राधा रानी के बैलों को’ छुड़ाने के पीछे, हाथ धोकर पड़े नहीं मिलता। गरीब प्रोड्यूसर जो सौ-दो सौ करोड़, बिना बैल डाले, मेहनत से कमा रहे है, अगर बैल-नुमा एक सीन
डाल दें तो फिल्म अगले दिन ही फ्लाप हो जाए।
मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि, शहरों में अब बैल
होते नहीं, कोई भला किससे कहे कि
आ बैल मुझे मार?
मैं पूछने वालों की बुद्धि पर तरस खा जाने
वाली निगाह से देखता हूँ। इस निगाह से देखने का मतलब ये भी होता है, कि मुझे आज के जमाने
के, दिमागी तौर से तंग
लोगों पर हैरानी, कोफ्त, या गुस्से का
मिला-जुला भाव आ रहा होता है। स्सालो, हर शाख पे उल्लू बैठा है की तर्ज पर, यहाँ हर गली में दो पैरों वाले, पढ़े- लिखे, अपढ़, गँवार, ढीठ, जिद्दी, अकडू, येड़ा, कोल्हू के बैल बैठे
हैं, घूम रहे हैं, तुझे दिखाई नहीं देता?
राजनीति वाले, ‘बैलो’ को यूँ बुलाते हैं, धारा 144 लगी हो, तो तोड़ो, आचार संहिता है, तो उलंघन करो।
किसी ने अपने दल की जरा तारीफ की, तो उसका पिछला इतिहास
ढूढ़ कर बखिया उधेड़ो।
भाई भतीजा, माँ-बहन की तह तक जा कर मीडिया के सामने
परोस के रख दो, जनता मायने निकालते
रहेगी ।
जनता तुम्हारे वादे पर एतबार करके, तुम्हें राज करने
भेजती है, तुम जनता को तंग करने
लग जाते हो?
अपनी नीयत न सम्हाल सकने वाले, अरबों कमाने वाले
बाबा, ‘आ बैल की गुहार’ बुढ़ापे में लगा
बैठते हैं?
लालच पे लगाम न रखने वाले, छोटे-छोटे जोखिम
उठाने वाले, सैकड़ों लोग हैं जो
अकारण ही ‘बैल के गले की घंटी बनने’ का नित प्रयास करते
हैं।
हमारी जनता ‘प्रगति’ के ‘मिल्खा सिंग’ के पीछे भागने की जिद
किये रहती है।
भागो मगर इसका भी एक कायदा है। अर्थ-हीन मत भागो, आगे लक्ष्य का कहीं न
कहीं ‘मैडल’ अवश्य हो। उस रफ्तार
को अगर पाना है तो मेहनत -मशक्कत-तैय्यारी- सोच तो रहनी चाहिए न ?
अपना मतदान अवश्य करें, गंभीरता-गहराई से
करें, भूले से भी किसी बैल
को दावत न भेजे, कि आ मार.....
लेखक परिचय: सुशील यादव- जन्म 30 जून, 1952, दुर्ग, लेखक के बतौर कहानी, कविता और व्यंग्य के
क्षेत्र में सतत लेखन। विभिन्न पत्र
पत्रिकाओं के अलावा अधिकतर रचनाएँ वेब मैगजीन यथा- gadayakosh.org, रचनाकार. org ,अभिव्यक्ति, उदंती. com, साहित्य शिल्पी, एव. साहित्य कुञ्ज
में नियमित रूप से प्रकाशित। पुस्तक बाजार डॉट काम के सौजन्य, एवं श्री सुमन घई जी
के सहयोग से एक व्यंग्य संग्रह, ‘शिष्टाचार के बहाने’ - कनाडा से प्रकाशित। सम्प्रति-
रिटायर्ड डिप्टी कमीश्नर, कस्टम्स, सेन्ट्रल एक्साइज एवं
सर्विस टेक्स, सम्पर्क-न्यू आदर्श
नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) Email- sushil.yadav151@gmail.com
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