'व्यंग्य के माध्यम से
समाज के शत्रुओं से जूझता हूँ' - गिरीश पंकज
गिरीश पंकज गत चार दशकों से साहित्य और
पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। व्यंग्यकार के रूप में उनकी विशेष पहचान
है। वर्षों से वे स्वतंत्र लेखन और अनुवाद की महत्त्वपूर्ण पत्रिका सद्भावना दर्पण
का प्रकाशन भी कर रहे हैं। उम्र के साठवें पड़ाव तक आते- आते उनकी कुल साठ पुस्तकें प्रकाशित हो गईं हैं गिरीश पंकज से पिछले दिनों युवा पत्रकार अनामीशरण बबल ने बेहद
लम्बा साक्षात्कार लिया। उसके कुछ संपादित अंश यहाँ प्रस्तुत है-
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प्रश्न- आपके लेखकीय जीवन
में बचपन की क्या भूमिका है और उस समय की यादों- रिश्तों की, प्यार दुलार, फटकार और मित्र, बालक मंडली के नटखटपन
की किस तरह की यादों की छाप आप पर और आपके लेखन में देखने को मिलता है?
उत्तर- मुझे लेखक बनने में
मेरा बचपन बड़ा सहायक हुआ। बगैर इसके रचना
की दुनिया में मेरी उपस्थिति शायद होती ही नहीं। स्कूल में ‘वन्यजा’ नामक शालेय पत्रिका
का प्रकाशन होना था। मास्टर जी ने (प्राचार्य महोदय) सुनाया और कहा सभी बच्चों को
कुछ- लिख कर देना है सारे बच्चे इधर-उधर की रचनाएँ एकत्र करके जमा करने लगे। लेकिन
मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था की करूँ क्या। स्मारिका में सबका नाम छपेगा, मेरा नहीं तो पिताजी
की डाँट पड़ेगी। लेकिन कोई विचार तो मन में उमड़े। मित्र तो चोरी की रचनाएँ दे
रहे। यह सम्भव न हो रहा था। मन में निराशा थी। पर अचानक एक दिन सरस्वती माँ ने आकर
दुलराया और एक नन्हा-सा गीत बन गया- ‘नींद से जागो प्यारे
बच्चों, सबेरा सुहना मौसम
लाया। खेल-कूद के दिन बीते अब, पढऩे का है मौसम आया।’
प्रश्न- आपकी नजर में गिरीश
पंकज को आप किस तरह देखते हैं और लेखन को लेकर आपकी ईमानदार आलोचनात्मक टिप्पणी पर
क्या कहते हैं?
उत्तर- अपने को साक्षी भाव
से जब देखता हूँ तो लगता है कि मुझे अपनी उम्र से ज्यादा प्रतिसाद मिला और अब मैं
अपनी बोनस लाइफ जी रहा हूँ। यानी जो उपलब्धियाँ मिलीं, उन्हें देख कर लगता
है कि अब अगर मृत्यु भी आ जाये तो कोई मलाल नहीं होगा। साठ साल तक आते-आते लगभग
साठ पुस्तकें तैयार हो गईं। तिरपन तो प्रकाशित ही हो गई हैं और धीरे-धीरे अन्य भी
प्रकाशित हो जाएँगी। मेरी रचनाओं को लोगों को प्यार मिला। उन लोगों का अधिक मिला
जो साहित्य में नहीं थे। साहित्य के कुछ लोग बेचारे इसी जलन में मर गये कि ये इतना
अधिक लिखता क्यों है? लिखता है तो छपता क्यों है? छपता है तो सम्मान क्यों प्राप्त करता है? सम्मान प्राप्त करता है, तो घमंडी क्यों नहीं
होता, उनकी तरह। मैं अपने
लेखन से संतुष्ट हूँ, पर अभी मेरी लड़ाई जारी है। सृजन की। अभी मुझे अपना और बेहतर देना है। उसकी ही
तलाश में बेचैन हूँ। मैं अपने लिये की गई हर ईमानदार आलोचना का स्वागत करता हूँ।
क्योंकि हमारे यहाँ तो कहा ही गया है कि निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय। बिना
इसके परिष्कार संभव नहीं। इसलिए मेरी जितनी भी आलोचनाएँ हुई, मुझे उनसे शक्ति
मिली। और अगर मैं खुद की ईमानदार आलोचना करूँ तो कहना चाहूँगा कि मैं समय पर कोई
काम कर नहीं पाता। पिताजी इस बात को ले कर दुखी रहते थे। यह आदत सुधर जाती तो शायद
अभी मैं सत्तर पुस्तकें लिख चुका होता। लापरवाही, आलस ने मुझे पीछे धकेल दिया है। मुझे अपने
में सुधार लाना चाहिए।
प्रश्न- गिरीश पंकज के लेखन
के सबसे कमजोर पक्ष और दृष्टिकोण के बारे में कुछ कहें?
उत्तर- गिरीश के लेखन की
सबसे बड़ी कमी है कि वह बेबाक है। उसमें साफगोई है। गढ़ी गई कलात्मक भाषा का यहाँ
अभाव है। जो है, वो सब बहुत कुछ सपाट
भी है। हालांकि साहित्य में सपाटबयानी पसंद नहीं की जाती। फिर भी मुझे लगता है कि
सम्प्रेषण के लिये सपाटबयानी जरूरी है। सीधी-सरल भाषा भी होनी चानी चाहिये।
हालांकि मैं व्यंग्य लेखन में सपाटबयानी से बचता हूँ, अपनी बात किसी रोचक
कथा या वक्रोक्ति के माध्यम से ही कहता हूँ। रचना में रंजकता होनी चाहिए तभी वह
बोधगम्य भी होती है। गिरीश का एक और कमजोर पक्ष यह है कि वह बेहद सरल भाषा का
इस्तेमाल करता है। जबकि इस समय की कविता या कहानी या उपन्यास दुरूह भाषा में लिखे
जाते हैं। कथित दुरूहता इस समय की जरूरत है। और मैं समय के विपरीत चल रहा हूँ। और
गिरीश के लेखन पर दृष्टिकोण देने की बात है तो कहना चाहूँगा इनको अपनी धार और गति
और तेज करनी चाहिए। और नैतिक मूल्यों के प्रति जो लगाव बना कर रखे हुए हैं, उनसे भी पीछा छुड़ाना
चाहिए। आज जब ये समय ‘गे’ पर लिखने का है, गिरीश ‘गाय’ पर लिखता है।
प्रश्न- आपके लेखन में क्या ऐसा हैं जो आपको
दूसरों से अलग करता है और एक स्थान दिलाता है?
उत्तर- मेरे लेखन में वही
तत्व हैं जो हर सम्प्रेषणीय रचना के बुनियादी तत्व हैं। यानी रंजकता, सहजता-सरलता और
परिवर्तन की अकुलाहटता। सरल भाषा, उनन्त दृष्टिकोण। अपनी निजी शैली। अपने विकसित किये गए मुहावरे। अपनी मौलिक
शैली-शिल्प। कोई कह नहीं सकता कि पूरी रचना किसी की नकल है। कभी-कभार हो सकता है
कि परम्परा की हल्की-सी छाया कहीं-कहीं नज़र आये पर अंतत: मेरी रचना किसी छठाप से
मुक्त है। परसाई-जोशी का भक्त हूँ पर मेरी रचनाओं में उनकी शैली नहीं मिलेगी। विषय
मिल जायेंगे क्योंकि हमारे पूर्ववर्ती लेखकों ने विषय इसी समाज से चुने हैं। वही
राजनीति, वही विसंगतियाँ हैं।
नेता हैं, चमचे हैं, पाखंड है। परिवर्तन
नहीं आया है इसलिये उन विषयों पर मुझे भी लिखना है। पर मैंने जो कुछ भी लिखा है, उसे अपनी शैली में
लिखा है। इसलिए मैं विनम्रतापूर्वक दूसरों से खुद को अलग करता हूँ। जो कुछ भी
स्थान बन सका है, शायद इसीलिए भी
है।
प्रश्न- समकालीन लेखन में
खुद को आप कहाँ पर पाते हैं?
उत्तर- समकालीन लेखन में
अपने को सृजन के एक सिपाही की भूमिका में पाता हूँ। मैं अपना काम कर रहा हूँ। मुझे
खुद अपना स्थान नहीं पता। कोई स्थान बना भी है या नहीं, पता नहीं। ये सब मुझे
समझ में नहीं आता। हाँ, जब कुछ लोग थोड़ा-थोड़ा-सा स्थान देते दिखते हैं तो लगता है शायद सृजन बेकार
नहीं गया। अगर इस वक्त बिना किसी प्रयास के नौ लोग मेरे साहित्य पर शोध कर रहे हैं
तो लगता है शायद कुछ तो ऐसा लिख सका हूँ, जो शोध के योग्य है। वैसे अनेक शोध जोड़-तोड़ करके करवाए जाते हैं। ऐसे-ऐसे
लोगों पर भी शोध हो रहे हैं, जिन्हें देख कर कोई भी अचरज में पड़ सकता है। क्योंकि वे लोग प्रभावशाली हैं।
कुछ के पास पद है, कुछ के पास कुछ और है। लेकिन अपने बारे में दावे के साथ कह सकता हूँ कि मेरे
पास न पद है, न पैसा है। मेरे पास
केवल मेरा सृजन है। आज देश के अनेक गाँव-कस्बों से लेकर दिल्ली तक अगर लोग मुझे
बुला कर अपना प्यार देते हैं तो इसे अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। और विनम्रतापूर्वक
सोचता हूँ कि कुछ तो जगह शायद बना सका हूँ।
प्रश्न- आपकी कहानियों और
उपन्यासों में किस तरह के संदेश हैं? और तथ्य के स्तर पर नयापन क्या है? उसकी प्रांसगिकता देर तक की है या सामयिक है? और यह भी कि आपकी साहित्य में क्या छवि है, क्या
हास्य-व्यंग्यकार की छवि सबसे मजबूत-सी है? अगर ऐसा है तो क्यों?
उत्तर- एक साथ अनेक सवाल
निहित हैं इसमें । एक-एक कर के उत्तर देना होगा। सबसे पहला सवाल कि मेरी काहनियों
या उपन्यासों में किस तरह के संदेश हैं। तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि मेरी हर रचना
संदेह के साथ रची जाती है। सामाजिक परिवर्तन की उत्कट अभिलाषा ही मेरा रचनात्मक
लक्ष्य है। कहानियों की तरह मेरे हर उपन्यास का अपना लक्ष्य रहा है। कहानियों पर
बात लम्बी हो जाएगी पर उपन्यास सीमित हैं इसलिए उन पर विमर्श हो सकता है। मेरा
उपन्यास मिठलबरा की आत्मकथा (सन् 1999) क्षेत्रीय पत्रकारिता पर मेरा पहला
व्यंग्य उपन्यास था। जिसके बारे में प्रेस जगत के अनके पुराने लोग जानते हैं। इस
उपन्यास का उद्देश्य यही था कि हिन्दी जगत को पता चल सके कि आजादी के लिये संघर्ष
करने वाले पत्रकार किस तरह एक संपादक के गुलाम होते हैं। खास कर उस संपादक के जो
मालिकों का दलाल होता है। पत्रकारिता जब
इंटरनेट के दौर में आई और उस पर बाजारवाद हावी हुआ तो सन् 2014 में मेरा उपन्यास
आया ‘मीडियाय नम:’ इसमें भी व्यंग्य के
माध्यम से कुछ चरित्रों की पड़ताल की जो पत्रकारिता में तो हैं मगर उनका चरित्र
दागदार है। वे संपादक है या मालिक हैं, पतित हो चुके हैं। बाजार ने उन्हें बाजारू बना दिया है। माफिया (2003) उपन्यास में साहित्य
जगत में पनप रहे साहित्यिक माफिया पर प्रहार है। एक तरफ संघर्षशील लेखक हैं, तो दूसरी तरफ
अफसर-लेखक हैं, जिनको हमारा हिन्दी
का आलोचक महान रचनाकार के रूप में स्थापित करने में लगा रहता है। उसकी जय-जयकार
करता है। पॉलीवुड की अप्सरा (2007) में क्षेत्रीय सिनेमा में घुस रही
बुराइयों को व्यंग्यात्मक चित्रण हुआ है। एक गाय की आत्मकथा में भारतीय देसी गायों
की दुर्दशा का चित्रण है। कैसे इस उपभोक्तावाद ने स्वार्थी गौ भक्तों को गाय को
बेचने के मामले में पूरी तरह बेशर्म बना दिया है। उपन्यास में मुस्लिम पात्र गाय
बचा रहा है और हिन्दू पात्र गाय बेच रहा है और उसकी आड़ में कमाई कर रहा है। इस उपन्यास
का उद्देश्य यही है कि समाज पाखंड से ऊपर उठे और गौ माता की ईमानदारी से सेवा करे।
टाउनहॉल में नक्सली उपन्यास व्यंग्य उपन्यास नहीं है। उसमें वर्णित कुछ दृश्यों
में जरूर व्यंग्य है, पर पूरा उपन्यास नक्सल समस्या का समाधान चाहता है। सर्वोदय की भावना से प्रेरित
इस उपन्यास के अंत में, नक्सली राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने के लिये आत्म समर्पण कर देते
हैं। उपन्यास स्टिंग ऑपरेशन (2015) राजनीतिक व्यंग्य है। जिसमें एक आवारा, पढ़ाई चोर लड़का बड़ा
हो कर नेता बनता है। मंत्री भी बन जाता है। लेकिन अंतत: स्टिंग ऑपरेशन के बाद उसका
राजनीति जीवन खत्म हो जाता है। इस उपन्यास में मैंने बताने की कोशिश की है कि राजनीति में अपराधी घुसते जा रहे हैं। एक
अपराधी दूसरे को रिप्लेस करके आ जाता है। यही सिलसिला चल रहा है। मतलब यह कि मेरे
हर उपन्यास का उद्देश्य समाज में घटित हो रहे सच का पर्दाफाश करता है। हर उपन्यास
एक साहसिक चुनौती है। माफिया लिखने के बाद साहित्य जगत के अनेक चेहरे नाराज हुए
क्योंकि उन पर प्रहार हुआ था। किताब का प्रचार करते हुए प्रकाशक ने जो कुछ लिखा, उसे अपनी प्रशंसा ही
मानता हूँ कि ‘माफिया लिख कर लेखक
ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।’ मुझे अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मारना अच्छा लगता है। अन्याय के विरुद्ध जब मैं लिखता हूँ तो अपने लाभ
के बारे में नहीं सोचता, न अपनी हानि की परवाह करता हूँ। जो सच है, वो लिखता हूँ।
प्रश्न- व्यंग्य को लेकर
क्या आप भी अपने मित्रों के बीच कभी हास्य के शिकार बने?
उत्तर- हाँ, अक्सर। मित्र तो
परिहास करते ही हैं। यह अनुभव उस वक्त अधिक हुआ जब मैंने एक गाय की आत्मकथा लिखी।
तब कुछ मित्रों ने कहा कि ये तो गाय वाला व्यंग्यकार है। ये तो अब ट्रैक से हट गया
है। मैंने भी ज़वाब दिया कि सच है, मैं ट्रैक से हट गया
हूँ। गे (समलैंगिकता) पर लिखना चाहिए तो गाय पर लिख रहा हूँ। गाय पर उपन्यास लिखने
के बाद मेरा उपहास ही उड़ाया गया कि आज के दौर में ये क्या पिछड़ा विषय उठा रहा
है। पर इन लोगों को पता नहीं है कि गाय पिछड़ा विषय नहीं, अधुनातन ही है। गाय
आज भी हमारे जीवन के केंद्र में है। उसके बिना हमारी मुक्ति नहीं है। गाय के दूध
से बनी चीजें हमारे जीवन का हिस्सा हैं। हमारे स्वास्थ्य से जुड़ी है गाय। पर लोग
समझते नहीं। हमारे अनेक व्यंग्यकार मित्र खुद को आधुनिक समझने या बनाने के चक्कर
में न केवल गाय से कटे, वरन अपनी महान संस्कृति से भी कटते चले गये।
हमारे समय के साहित्य का दुर्भाग्य यही है कि अब गे (समलैंगिक) पर लिखने
वाला हिट रहेगा, गाय पर लिखने वाला
उपेक्षित।
प्रश्न- एक व्यंग्यकार बनना
कितना कठिन-सा फैसला लगा या लगता है और तब अपने समकालीनों के प्रति क्या सोचा और
प्रेरणा ली?
उत्तर- यह कठिन फैसला था।
क्योंकि जिस विधा में बहुत अधिक सामाजिक, साहित्यिक संभावना न हो, तो उसे आत्मसात करना चुनौती ही थी। लेकिन चुनौती को स्वीकार करना मेरा सहज
स्वभाव रहा इसलिए मैंने बहुत सोचा नहीं। कबीर ने कहा है- जो घर जारे आपना चले
हमारे साथ। अनेक व्यंग्यकार पिटे, प्रताडि़त हुए। परसाई पिटे, शरद जोशी प्रताडि़त हुए। लक्ष्मीकांत वैष्णव, मनीष राय और विद्रोही कवि गोरख पांडेय ने
खुदकशी कर ली। व्यंग्य पथ पर चलने के जोखिम हमेशा से रहे हैं। हरि जोशी भी निलंबित
किये गए। ये सब घटनाएँ मुझे प्रेरित ही करती रहीं। खतरा होने के बावजूद मुझे
व्यंग्य पसंद है क्योंकि मुझे सर्वाधिक सुख व्यंग्य लिख कर ही मिलता है। मुक्तिबोध
की चर्चित पंक्तियाँ हैं- अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। तोडऩे होंगे गढ़ और
मठ सारे। तो ये गढ़-मठ व्यंग्य करके ही तोड़े जा सकेंगे। घोर कलावादी या पलायनवादी
रचनाएँ नहीं तोड़ सकतीं इनको। व्यंग्य
लिखते हुए मुझे लगता है मैं अपने सरोकारों से जुड़ा हूँ। यह मेरा फर्ज है। जैसे
सीमा पर सैनिक दुश्मनों के विरुद्ध लड़ाई के लिये तैनात रहता है, उसी तरह मैं भी अपने
व्यंग्य के माध्यम से समाज के शत्रुओं से जूझता हूँ।
प्रश्न- व्यंग्य को लेकर
साहित्य में क्या धारणा है ? क्या इसको सम्मानजनक जगह दी गयी है या अखबारी-लेखन मान कर बासी और चलताऊ- सा
मान लिया गया है?
उत्तर- व्यंग्य को लेकर
साहित्य में कोई बहुत अधिक गंभीरता पहले भी कभी नहीं देखी गई। उस वक्त भी जब यह
कहा जा रहा है कि परसाई व्यंग्य के पितामह हैं। दुखद बात तो यह है कि परसाई
व्यंग्य लिखते थे, मगर व्यंग्य को व्यंग्य मानने से इंकार करते थे। विधा तो वे कहते ही नहीं थे।
इसे शैली बताते थे। व्यंग्य को निबंध कहते थे। परसाई का झंडा उठाकर चलने वाले
प्रगतिशील लोग परसाई के व्यंग्य को कहानियाँ बतला रहे थे। और ऐसा जो लोग कह रहे थे, उन लोगों के पास ही
आलोचना की ठेकेदारी थी। इसलिए वे जब साहित्य विमर्श करते थे, तो परसाई की महानता
को रेखांकित करते जरूर थे, पर उन्हें व्यंग्यकार नहीं कहते थे। उनको सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों
के विरुद्ध लडऩे वाला रचनाकार कहते थे। बीच-बीच में व्यंग्य शब्द का उपयोग भी करते
थे, किंतु ऐसा कभी नहीं
लिखते थे कि व्यंग्य साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। जबकि उस समय तक व्यंग्य
साहित्य की केंद्रीय विधा में तब्दील होता जा रहा था। परसाई के साथ ही अमृतलाल
नागर, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींद्रनाथ त्यागी, केपी सक्सेना
आदि कुछ अन्य व्यंग्यकार भी व्यंग्य लिखने
लगे थे। धर्मयुग और सारिका जैसी अनेक पत्रिकाएँ नियमित रूप से व्यंग्य प्रकाशित कर
रही थीं। साहित्य में व्यंग्य की धारदार उपस्थिति के साथ अनेक व्यंग्यकार सक्रिय
थे। किंतु साहित्यिक आलोचना में व्यंग्य पर कोई बात नहीं होती थी। इसका नतीजा यह
हुआ कि व्यंग्य साहित्य के हाशिये पर आ गया और व्यंग्य लिखने वाले को दोयम दर्जे
की नागरिकता मिलने लगी। उसे किनारे किया जाने लगा। शरद जोशी को तो प्रगतिशीलों ने
लेखक मानने से ही इंकार कर दिया। मैं गवाह हूँ इस बात का कि मेरे सामने ही भरी सभा
में प्रगतिशीलता के एक थोक ठेकेदार ने कहा कि 'शरद जोशी भी कोई लेखक है, वो व्यंग्य क्या
लिखेंगे। व्यंग्य तो परसाई लिखते हैं।' तो, ऐसी मानसिकता ले कर
चलने वालों की बहुलता के कारण साहित्य में व्यंग्य जैसी महान विधा उपेक्षित होती
गई। तीन दशक पहले एक निर्णायक मोड़ आया और व्यंग्य को साहित्य में स्थान मिलने
लगा। मुझे लगता है कि व्यंग्य की गरिमा को दुबारा स्थापित करने की जरूरत है। इसके
लिए अखबारों से बहुत अधिक उम्मीद तो नहीं
की जा सकती। हाँ, वैचारिक साहित्यिक
पत्रिकाएँ यह काम कर सकती हैं। जैसा व्यंग्य के लिए व्यंग्ययात्रा (सं. प्रेम
जनमेजय) कर रही है।
प्रश्न- आप एक सक्षम ग़ज़लकार भी हैं। सामयिक
मुद्दों पर तो आप कम्प्यूटर से भी तेज और मारक शायर के रूप में पहचाने जाने लगे
हैं। क्या कहेंगे आप?
उत्तर- इस अतिरंजित तारीफ
के लिये धन्यवाद ही दूँगा और यह स्वीकार करना चाहता हूँ कि ग़ज़लों के माध्यम से मैं
लोगों के बीच तेजी के साथ पहुँच सका हूँ। ग़ज़ल
लोकप्रिय विधा है। पुरातन विधा है। हिन्दी में अब वह धूम मचा रही है। मैं
खुद को दुष्यंत और अदम गोंडवी की परम्परा का संवाहक मान कर लिखता हूँ। और सच कहूँ
तो ये ऐसी विधा है जो लिखी नहीं जाती, यह उतरती है। कही जाती है। यह अनायास बनती है। इसे बैठ कर लिखा नहीं जाता। ऐसा
कोई बड़ा महान लिक्खाड़ ही होगा जो कहता है कि आज मैं दो-चार $ग•ालें लिखूँगा। फेसबुक
के आने के बाद मैंने उसमें अपने सम-सामयिक विचार दिए और बाद में ग़ज़लें भी देने लगा। कुछ
जो पहले से कही जा चुकी थीं, उनका पोस्ट किया और बाद में ऐसा होने लगा कि शेर अपने आप ही बनने लगे। देश के
हालात पर, घटनाओं पर। लेकिन
मेरी कोशिश यही रही कि ग़ज़लें निहायत खबरी न हों। सुबह लिखी और शाम
को मर गई। मानवीय प्रवृत्तियों पर लिखी जाने वाली ग़ज़लें ही महत्त्वपूर्ण होती हैं। और मैंने यही कोशिश
की। मुझे खुशी है यह बताते हुए कि मेरी ग़ज़लों को लोगों ने बेहद लाइक (फेसबुक की
भाषा में) किया और बेहिसाब टिप्पणियों से स्वीकृति दी। कुछ ग़ज़लों को तो साठ -सत्तर
लोगों ने शेयर तक किया। मेरी सहज-सरल शैली से लोग प्रभावित हुए। और अनेक लोगों ने
मार्गदर्शन भी चाहा, तो जो समझ थी, उसके अनुरूप उन्हें बताने की कोशिश भी की। मेरा अपना मानना है- गीत हो या के ग़ज़ल हो दोस्तों/ बात
सीधी हो सरल हो दोस्तों।
प्रश्न- आपकी नज़र
में आदर्श साहित्य कैसा होना चाहिए?
उत्तर- मुझे लगता है जो
साहित्य आदमी को इंसान बनाने की क्षमता रखे, वैसा साहित्य होना चाहिए। जैसे हमारे धर्मग्रंथ होते हैं, जो हमें नेक राह
दिखाते हैं, नेक पाठ पढ़ाते हैं।
हमारे भीतर के विकारों को दूर करते हैं। हमें महानता की ओर ले जाते हैं। मेरा एक
मुक्तक है-
जिसमें जन-गण-मन का वंदन, वह सच्चा साहित्य।
जिसमें करुणा का स्पंदन वह सच्चा साहित्य।
आजादी का अर्थ नहीं हम हो जाएँ
निर्वस्त्र।
जिसमें नैतिकता का बंधन वह सच्चा साहित्य।।
साहित्य समाज को अराजक न बनाए। वह हिंसा
के लिए प्रेरित न करें। वह अश्लीलता न फैलाए। जो भटके लोगों को नेक राह दिखाए। वह
अपनी परम्पराओं में आधुनिकता का संस्पर्श तो करे पर यह ध्यान रखे कि वह उसे विकृत
तो नहीं कर रहा। साहित्य चाहे वह कोई भी लिखे, वह साहित्य रहे। साहित्य में
अलगाववादी-स्वर मुखरित न हो। अब साहित्य को हमने दलित-साहित्य, स्त्री-साहित्य, हिंदू-साहित्य और
मुस्लिम -साहित्य में बाँट दिया है। साहित्य केवल साहित्य होता है। तो, समाज को बेहतर बनाने के लिए साहित्य को बेहतर की भूमिका में भी उतरना पड़ता
है। पर यह ध्यान रहे कि गंदगी को साफ करना है, उसे बाहर निकालना है। उसमें समाना नही
हैं। हमें गंदगी नहीं बनना। साहित्य जिम्मेदार कर्म है, जो बड़ी गैर
जिम्मेदारी के साथ रचा जाने लगा है। साहित्य तुलसी, कबीर, नानक, रैदास
यानी ऐसे ही महान संतों के चिंतन की तरह भव्य होना चाहिए। हमारी हर रचना
स्वांत: सुखाय तो हो पर वह परदुखकातरता मय हो। अगर अंतस की सोई करुणा जगाने में
साहित्य विफल है तो कच्चा साहित्य है।
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