अगले जनम मोहे मास्टर न कीजो
-डॉ. गीता
गुप्त
वे दिन अब लद गए, जब गुरुओं की प्रशंसा
में कशीदे काढ़े जाते थे। ‘सद्गुरु की महिमा अनत, अनत किया उपगार’ और ‘गुरु गोविन्द दोऊ
खड़े, काके लागूँ पाँय’ जैसी उक्तियों से
प्रेरित होकर कइयों ने मास्टर बनने का स्वप्न सँजोया होगा। शायद उसी दौर में किसी
महिमामण्डित शिक्षक ने निबन्ध लिखा होगा- ‘अगले जनम भी मास्टर बनूँ।’ मुझे पूर्ण विश्वास
है कि जिस समय यह निबन्ध लिखा गया होगा, उस समय लोकतन्त्र नहीं रहा होगा। वर्तमान प्रजातान्त्रिक युग में कोई भी
समझदार व्यक्ति मास्टर बनने का ख्वाब नहीं देख सकता। कौन बेवकूफ़ ऐसी बात सोचना
चाहेगा भला? जबकि सभी जानते हैं
कि इस देश में मास्टरों की औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं है। आँखें फोड़-फोड़कर पढ़ाई करने के बाद तो डिग्री
मिलती है, फिर जाने कितनी
एडिय़ाँ रगडऩे के बाद मास्टरी मिल पाती है, वह भी टेम्परेरी। लोग तब भी मास्टर बनने का हौसला रख पाते हैं, यही क्या कम है ? इस देश में तो
मास्टरों की अनगिनत श्रेणियाँ बन गई हैं। संविदा शिक्षक, अध्यापक, गुरुजी, शिक्षाकर्मी वर्ग-एक, शिक्षाकर्मी वर्ग-दो
इत्यादि-इत्यादि। इस छोटी-सी अस्थायी नौकरी के लिए भी मोटी फ़ीस चुकाकर प्रतियोगी
परीक्षा देनी पड़ती है। जो परीक्षार्थी इसमें सफल हो जाते हैं, उनकी छाती ख़ुशी से
फूल उठती है। उन्हें ऐसा लगता है मानो एवरेस्ट पर पताका फहरा आये हों।
जाने कितने स्कूल-कॉलेज खुल गए हैं, कुकुरममुत्तों की
तरह। किसी नेता या मन्त्री के दिवंगत होते ही उनके नाम से भी संस्थान खोल दिये
जाते हैं। फिर भी बेरोज़गारी कम नहीं हो रही।
सरकार परेशान है। जनसंख्या दिनोंदिन कीट-पतंगों की भांति बढ़ती ही जा रही है। सबके
लिए शिक्षा का प्रबन्ध भी करना ही होगा। सो, मास्टरों की भर्ती आवश्यक है। लेकिन सरकारें जानती हैं-अति सर्वत्र वर्जयेत्
लोग ज़्यादा पढ़-लिख लेंगे तो लोकतन्त्र के लिए ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा इसलिए गली-गली में
स्कूल भले ही खोल दिये गए हों किन्तु शिक्षकों की संख्या सीमित रखी गई है। इस देश
में हज़ारों स्कूल ऐसे हैं जो
एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। यह शिक्षक विद्यार्थियों को अकेले ही ज्ञान देगा
और तमाम सरकारी पचड़े भी निपटाएगा।
लोकतान्त्रिक सरकार को यह बिल्कुल पसन्द नहीं कि
गुरु की महिमा नेता से बड़ी हो। इसे ध्यान में रखते हुए उसने बहुत ठोक-बजाकर नियम-क़ानून बना दिये हैं। दो
कौड़ी का मास्टर क्या खाकर नेताओं से टक्कर लेगा? वह तो अपनी नौकरी पक्की करवाने के लिए ही
आजीवन चप्पलें घिसता रहेगा। कभी प्राचार्य उसकी गोपनीय चरित्रावली बिगाड़ देंगे, कभी विद्यार्थी उसपर
उत्पीडऩ का आरोप लगाकर जीवन दूभर कर देगा। सरकार के सामने सीधे खड़े होने की
हिम्मत उसमें कभी नहीं होगी। सच मानिए, मास्टरों के कंधों पर इतनी ज़िम्मेदारियों का बोझ लाद दिया गया है कि वे
स्वतन्त्र होकर कुछ सोच ही न सकें। उन्हें पूरे देश की जनगणना करवानी है, एक-एक बच्चे की सेहत
का ध्यान रखना है। उन्हें पोलियो की दवा पिलवानी है, स्कूल में भरपेट पौष्टिक आहार उपलब्ध
करवाना है। ग्राम-पंचायत और नगरीय निकाय से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक के चुनावों
का जिम्मा उन्हीं के सिर पर है। ईमानदारीपूर्वक मतदाता सूची बनवाने से लेकर मतदान
और मतगणना तक का कार्य उन्हें अपने माथे पर बिना कोई शिकन लाए निपटाना है। यदि इन
कामों में तनिक भी ग़लती हुई तो नौकरी से
हाथ धोना पड़ेगा। उस नौकरी से, जिसके स्थायी होने के इन्तज़ार में पूरी उम्र भी निकल सकती है।
तमाम गुरूजियों की हवा निकाल दी है सरकार ने।
बहुत फूले-फूले फिरते थे। स्थायी नियुक्तियाँ ही बन्द कर दीं। शिक्षा में गुणवत्ता
के नाम पर सेमेस्टर पद्धति लाद दी गई सो अलग। विद्यार्थियों की परीक्षा का तनाव
ख़त्म कर दिया गया। कोई आत्महत्या न करे इसीलिए पढ़ाई आसान कर दी गई। अब एक साल
में दो सेमेस्टर होंगे, दो मुख्य परीक्षाएँ और चार सतत् मूल्यांकन परीक्षाएँ होंगी। सतत् मूल्यांकन
में शिक्षक किसी को अनुत्तीर्ण नहीं कर सकता, न किसी विद्यार्थी को अनुपस्थित दर्शा सकता है। सरकार का स्पष्ट आदेश है- ''विद्यार्थी जब तक
उत्तीर्ण न हो, तब तक उसकी परीक्षा
ली जाए। ऐसे में भला क्या मास्टर को पागल कुत्ते ने काटा है जो पहली ही बार
विद्यार्थी को उत्तीर्ण न कर अनन्त काल तक उसकी परीक्षाएँ लेता रहेगा? यदि नियमों की बदौलत
विद्यार्थियों की ‘बल्ले-बल्ले’ हो गई तो शिक्षक ने अपने ‘बल्ले-बल्ले’ का रास्ता ख़ुद ही निकाल लिया। इसे कहते
हैं- ‘तू डाल-डाल तो मैं
पात-पात।’
कलियुग में शिक्षक मन्त्रियों के स्टाफ़ में तैनात किये जाते हैं। सचिव और सहायक
के तौर पर मन्त्रियों की पहली पसन्द शिक्षक ही होते हैं क्योंकि वे स्वभाव से कायर, डरपोक, विनम्र और दीन-हीन
होते हैं। समाज में उनकी कोई पूछ-परख नहीं है। यह मान्यता हो गई है कि जो सर्वाधिक
तुच्छ हैं, वही अब शिक्षक बन जाते
हैं क्योंकि उनमें कुछ और बनने की योग्यता नहीं होती। ब्याह के बाज़ार में भी उनके दाम
बहुत कम हैं। लिपिक और भृत्य के दाम उनसे अधिक हैं क्योंकि उनके पद स्थायी होते
हैं और यह सर्वविदित है कि वर्तमान में ज़बरदस्त राजनीतिक पहुँच वाला प्रत्याशी ही
ऐसे पदों को सुशोभित कर सकता है। अब मास्टर तोताराम को ही ले लीजिए। वे एक आदर्श
शिक्षक रहे हैं। समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी है। अपने तीन-तीन बेटों में से एक को
भी उन्होंने मास्टर नहीं बनाया। बड़े बेटे को खेती-बाड़ी में लगाया। दूसरे को
किराने की दुकान खुलवा दी और तीसरे को कम उम्र में ही एक नेता का चमचा बनवा दिया।
तोतारामजी ने हाल ही में एक पुस्तक लिखी है
जिसके कारण इस छोटे-से शहर में उनकी ख़ूब चर्चा हो रही है। उनकी पुस्तक को
पुरस्कार मिलने की भी ख़बर है। उन्हें सड़क पर, बाज़ार में और घर पहुँचकर बधाई देने वालों की
ख़ासी तादाद है। वे कभी प्रसन्न तो कभी संकुचित मुद्रा में दिखाई देते हैं। कल तो
आश्चर्यजनक बात हुई। एक विद्यार्थी ने तोताराम से कहा- ‘मास्टरजी, मैं भी आप जैसा बनना
चाहता हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिए।’ उन्होंने तत्काल
पलटकर कहा- ‘नहीं वत्स, मास्टर नहीं। नेता
बनने की सोचो। मास्टर बनकर जीवन भर कष्ट भोगना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं।
पढ़-लिखकर लांछित होना असह्य होता है। नेता बनो, इसके लिए पढऩे-लिखने की कोई ज़रूरत नहीं। दादागिरी सीखो, दुष्टों-दुराचारियों
की सोहबत में रहो। कोई बड़ा अपराध करके जेल की हवा खा आओ। अख़बार में फ़ोटो-वोटो
छप जाएगी तो थोड़ा नाम हो जाएगा। फिर कोई-न-कोई राजनीतिक पार्टी तुमसे स्वयं हाथ
मिला लेगी। भविष्य में टिकट देकर चुनाव में भी उतार सकती है। सम्भव है कि तब तुम
मन्त्री भी बन जाओ। तुम्हारी सात पीढिय़ाँ तर जाएँगी। इष्ट-मित्रों, सगे-सम्बन्धियों और
तुम्हारे परिजनों का भविष्य भी सँवर जाएगा।’
‘लेकिन मास्टरजी, लोग क्या कहेंगे?’
विद्यार्थी ने साश्चर्य पूछा। ‘किन लोगों की बात कर रहे हो तुम ? राजनेता और मन्त्री आम जन की परवाह नहीं करते। वे सिर्फ़ देश की चिन्ता
करते हैं। उन्हें तो ज़मीन पर पाँव रखने की
भी फुर्सत नहीं होती। वे सूरज और चाँद तक नहीं देख पाते। आरामदेह कुर्सी पर
बैठे-बैठे उनका पूरा जीवन हवाई यात्राओं, वातानुकूलित भवनों, सेवकों और सुरक्षाकर्मियों की फ़ौज के बीच अलौकिक सुख भोगते हुए बीत जाता है।
उस आनन्दमय जीवन की गति इतनी तीव्र होती है कि पाँच वर्षों तक पता ही नहीं चलता कि
समय कैसे बीत गया? जब पाँच साल बाद पुन: चुनाव होते हैं तभी उन्हें कुछ दिनों के लिए धूल भरी
सड़कों पर पैदल चलकर वोट माँगना पड़ता है, ग़रीबों के सिर पर
आश्वासन भरा हाथ फेरना पड़ता है, मन्दिरों में भगवान और पुजारी से आशीर्वाद लेना पड़ता है, स्कूल के शिक्षकों के
प्रति भी विनम्रता प्रदर्शित कर उन्हें अपना मार्गदर्शक स्वीकारना होता है। यह सब
तो तुम पहले चुनाव में ही सीख जाओगे, फिर हर पाँचवें बरस इसे दोहराना होगा, बस। तुम भी किसी मास्टर को अपना सचिव बना लेना। वह सब कुछ नोट करके रखेगा और समय
पर याद दिलाता रहेगा।’
यह सब सुनकर विद्यार्थी हैरान-परेशान था। तोताराम से वह बहुत प्रभावित था।
वह उनके पास दिशानिर्देश के लिए बड़ी उम्मीद लेकर आया था। उसके पास उच्च शिक्षा के
लिए पैसे नहीं थे। अपने उज्ज्वल भविष्य की चिन्ता उसे खाये जा रही थी। पर मास्टरजी
ने कहा- ‘तुम्हारा क़सूर यह है कि तुम अनुसूचित जाति, जनजाति या अल्पसंख्यक
के घर पैदा नहीं हुए अन्यथा सरकार तुम्हें उच्च शिक्षा और नौकरी-दोनों में सहर्ष
आरक्षण देती। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो जाता। लेकिन ऊँची जाति में ग़रीब माँ-बाप के घर जन्म लेकर तुम डॉक्टर-इन्जीनियर
नहीं बन सकते। ऐसे में उज्ज्वल भविष्य का एक ही मार्ग है, जो मैंने तुम्हें बता
दिया।’ वे दूरभाष पर वार्तालाप में व्यस्त हो गए।
इस वर्ष चुनाव के दौरान हृदयाघात के कारण वे ड्यूटी नहीं कर पाए इसलिए आजकल
निलम्बित चल रहे थे। उनका बेटा छुटकू कह चुका है कि अब उन्हें स्कूल में पाँव रखने
की ज़रूरत नहीं। वे सेवा
में ससम्मान वापस लिये जाएँगे, पर अब मास्टरी नहीं करेंगे। उन्हें किसी मन्त्री के स्टाफ़ में नियुक्त किया जाएगा। जिस नेता ने
छुटकू को यह आश्वासन दिया था, उसी ने साँठ-गाँठ कर तोताराम की पुस्तक को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिलवाया
है।
तोतारामजी पान चबाते हुए बोले- ‘बेटा, याद रखो कि इस देश में नेता ही भगवान है।
सब लोग उसी की पूजा कर अपना जीवन धन्य बनाते हैं। उससे बड़ा कोई नहीं हो सकता। समझ
गए न? तुम इस देश के भविष्य
हो। आज मुबारक मौक़े पर आये हो। मेरी ओर
से यह भेंट लो और जाओ। सदैव प्रसन्न रहो।’
घर पहुँचकर विद्यार्थी ने उपहार का बण्डल खोला। उसमें तोताराम की पुस्तक थी, जिसका शीर्षक था- ‘अगले जनम मोहे मास्टर
न कीजो।’
लेखक परिचय- डॉ. गीता गुप्त, शासकीय हमीदिया
महाविद्यालय भोपाल में हिन्दी की प्रोफ़ेसर। हिन्दी की विभिन्न विधाओं यथा- कहानी, कविता, व्यंग्य एवं
समसामायिक मुद्दों पर नियमित लेखन। देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ
प्रकाशित। हाल ही में समसामयिक लेखों पर दो पुस्तकें- 1.कुछ विचार कुछ प्रश्न
2. धरा हमारी कहती है।
लेखन के साथ पर्यटन, पर्यावरण-संरक्षण, योग एवं हिन्दी के
विकास हेतु कार्य। समाज सेवा में रूचि।
आकाशवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण। सम्पर्क: ई- 182/2, प्रोफ़ेसर्स कॉलोनी, भोपाल- 462002, मोबाइल- 9424439324, Email- drgeetabpl@gmail.com
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