-बी.एल. आच्छा
इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान पर लटके हुए
नीबू-मिर्ची को लटके देखा तो मैं चकरा गया। मुझे लगा जैसे न्यूटन का सतरंगी पंखा
उलटी दिशा में घूम गया हो। यों मेरे उन दोस्तों की कमी नहीं है, जो इन्टरव्यू में
जाने से पहले कार के आगे नीबू-मिर्ची रखकर उन्हें पहिए से कुचलते हुए लक्ष्य तक
पहुँचते हों। कार को आगे-पीछे करके उसे हलाल किए बगैर सुकून नहीं मिलता। यों लगता
है कि जमाना ही नीबू-मिर्ची का है। शायद कोई पैर दे जाए तो विपदाओं की झोली सामने
वाले के गले में डल जाए। सुधरी हुई नजरों के जमाने में आज भी नजर लग जाने का डर इस
कदर समाया हुआ है कि चश्में की दुकानें भी बुरी नजर से बचने के लिए नीबू-मिर्ची के
बगैर राहत का अनुभव नहीं करतीं। यों परमात्मा तक पहुँचा देने वाली सड़कों के यमदूत
वाहन भी लिख ही जाते हैं- ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला।’ पता नहीं चमत्कारों की छुट्टी कर देने वाले वैज्ञानिक चमत्कारों के जमाने में
भी मन का विश्वास क्यों नीबू-मिर्ची में जाकर लटक जाता है, विक्रम के वेताल की
तरह। नीबू-मिर्ची से विटामिन ‘सी’ पाकर सड़कें तो नहीं
सुधर पाईं, अलबत्ता आदमी का
कमजोर विश्वास नीबू-मिर्ची में जाकर लटक गया।
अजूबा तो तब लगा, जब इलेक्ट्रॉनिक्स की
दुकान के उद्घाटन पर वैक्यूमक्लीनर के दसियों पीस बगले झाँकते रहे और ‘सगुन’ के रूप में झाड़ू
प्रतिष्ठित हुई। तमाम महँगे प्रसादों के बीच चना-चिरौंजी की तरह। पास में रखी नमक
की थैली ने भी झाडू से ही जुगलबन्दी कर ली और जरा-सी भीड़ बढ़ी तो नजर के डर से
नीबू-मिर्ची भी दुकानदार के मन के ऑर्केस्ट्रा को संगत देते हुए लटक गए। पता नहीं, विज्ञान के चमत्कारों
को यह निरीह और इकलौती झाड़ू कितनी टक्कर दे रही है कि प्रगति की इबारत रचने वाले
विज्ञान को भी झाडू की अध्यक्षता में उद्घाटित होना पड़ रहा है। लगता है कि तमाम
मशीनी जाँचों के बाद भी बीमारी पकड़ में नहीं आ रही है और आदमी अपने आदिम भय को
नीबू-मिर्ची में टटोल रहा है।
यों देखा जाए तो जमाने की चाल ही
इलेक्ट्रॉनिक हो चली है। हर काम के लिए मशीन और आदमी बेकार। कभी वॉशिंग मशीन का तो
कभी आटा चक्की का मोहक संस्करण। कभी रोटी बेलने की मशीन तो कभी झाड़ू लगाने की।
यों जूतों तक से मशीनी पहियों के प्रयोग जारी हैं। जापान में टूथब्रश भी बिजली से
दाँतों पर दौड़ता है। जमाना शायद यह भी आए कि सड़कें खुद चलें। और आदमी भी इन्हीं
इलेक्ट्रॉनिक चीजों से घर भरने लगा है। आदमी का आदमीपन है इनसे। विद्वान आदमी भी
कार और कम्प्यूटर में सवार होकर ही विद्वान दिख पाता है। घर में इन सुख-सुविधाओं
का अम्बार हो तो आदमी का बंगला अपनी बस्ती में टीले की तरह ऊँचा उठ जाता है।
पिछली बार मैं भी घर में वॉशिंग मशीन ले
आया। वॉशिंग मशीन का वैसा ही स्वागत हुआ जैसे ‘गोदान’ के होरी के घर में गाय का। मशीन पर
स्वस्तिक बना। नजर के लिए काली बिन्दी लगी। पड़ोसियों की ईष्र्या से बचने के लिए
प्रसाद के पेड़ों ने राहत दी। मशीन में गलबहियाँ डाले घूमते कपड़ों ने शरीर को
हल्का किया। सभी खुश नजर आए। पर एक दिन श्रीमतीजी के हाथ और अँगुलियों में दर्द
हुआ। घर के जतन खरे नहीं उतरे तो डॉक्टर का सहारा लिया। डॉक्टर ने दवा तो कम दी, मगर मशविरा ज्यादा
दिया। बोले- 'आपके घर में कपड़े तो
वॉशिंग मशीन से धुलते हैं, तो धोते रहिए। पर हाथों से कपड़े निचोडऩे का कसरती अभिनय पूरे जोर से करिए
वरना इन अंगुलियों की पकड़ जाती रहेगी। हाय रे, बड़ी मुराद और मशक्कत से मशीन आई।
स्वस्तिक और काजल लगे। मशीन की नजर लग गई। हाथ में गीले कपड़े लिये बिना वे कपड़े
निचोडऩे की फिजियोथेरेपी करती रही।
इधर घर में कोई नया उपकरण आता है तो
बाँछें खिल जाती हैं। इस बार तय किया कि गेहूँ घर में ही पिसेंगे। लोग
लाखों-करोड़ों के घोटालों की सुर्खियों को पचा जाते हैं, मगर शरबती को
मैक्सिकन में बदल देने की आशंकाभरी हेराफेरी से समझौता नहीं कर पाते। सो चक्की आ
ही गई। कुछ महीनों बाद श्रीमती का पेट दर्द होने लगा। कमर दुखने लगी। डॉक्टर ने
लम्बी पर्ची और कई जाँचों के साथ देशी नुस्खा बताया- ‘आपने कभी पत्थर की
घरेलू चक्की चलाई है?’ यों चक्की की बात सुनकर कबीर याद आ गए - ताते या चाकी भली पीस खाय संसार। मगर
वे बोलीं – ‘माँ मुझे गोदी में
सुलाकर ही चक्की चलाती थीं।’ डॉक्टर साहब ने कहा – ‘आप चक्की भले ही न चलाएँ, पर चक्की चलाने का कसरती अभ्यास करते हुए पेट और कमर को हिलाते रहें।’ बिसूरती नजरों से आटा
चक्की को दुखते हुए वे पत्थर चक्की का अभ्यास करने लगीं। कभी-कभी घर के लोग इन
बिन-संवादी मूक नाटकों को देखकर हँसने लगते हैं। पर इन दिनों वे बावजूद दो-दो
मिक्सरों के यशोदा की तरह छाछ बिलौने का नाटकीय अभ्यास कर रही हैं। कृष्ण की जगह
मशीन पर काजल का दिठौना लगा है और यशोदा इलेक्ट्रॉनिक युग में छाछ बिलौने का
अभ्यास कर रही है।
यों इन दिनों मशक्कत में लगी दादी के मन
में पोती के हाथ पीले करने की चिन्ता सता रही है। उनके अपने सपने हैं। हर तरह से
पोती की ससुराल मल्टी हो। सुख-सुविधाओं का कुबेर उसी के घर में थमा रहे। कहती भी
हैं – ‘मैं तो अपनी पोती को
सब चीजें दूँगी। घर भी ऐसा देखूँगी कि रत्तीभर
तकलीफ न उठानी पड़े।’ लड़की की माँ ने टोकते हुए कहा, ‘माँजी, फिर भी काम तो करना
ही पड़ेगा ना, जब वह पराए घर जाएगी।’ दादी तपाक से बोली- ‘मैं तो अपनी पोती को
ऐसे घर में दूँगी कि उसे उठकर पानी भी न पीना पड़े।’ मन में आया कि माँ से कहूँ कि यह लड़की इन
सुख-सुविधाओं के अम्बार में जवानी तो काट लेगी, मगर बुढ़ापे में कमर दर्द के लिए कपड़े
निचोडऩे, चक्की चलाने और छाछ
बिलौने का फिजियोथेरेपिकल नाटक करती रहेगी। पोती का संस्करण दादी में बदल जाएगा।
मगर माँ कहीं नाराज न हो जाए, इसलिए चुप्पी साध गया।
इन दिनों टी.बी. का रोग तो मुट्ठी में आ
गया है, पर आदमी टी.वी. की
मुट्ठी में चला गया है। टी.वी. के सामने बिस्तर पर पड़े-पड़े ही बातों के
चौके-छक्के जड़ता रहता है, मगर सलामी बल्लेबाज के रन आउट या टुच्चक-टुच्चक होते ही पाँव पटकने लगता है।
बिस्तर पर पड़े-पड़े खाते और देखते उसका वजन माशाअल्ला हो गया है। कभी
क्लोरोस्ट्रोल नप रहा है, तो कभी ब्लड शुगर। हार-थककर वे मॉर्निंगवॉक करने लगे हैं। जॉगिंग की वेशभूषा
में फब रहे हैं। न हो तो मशीन पर लेटे-बैठे ही मोटापा घटाने की कवायद कर रहे हैं।
दिनचर्या के लिए पसीना बहाने की साधना से उन्हें लगता है कि कहीं इस कर्मयोग से
रिएक्शन न हो जाए। यों किसानों को भी धूप में हल चलाते देख वे तारीफ से अघाते नहीं
हैं। पर बाइक पर चलते-चलते गर्दन और कान के बीच मोबाइल की घुसपैठ करवाते ही रहते
हैं। चाहे स्पॉन्डेलाइटिस जोर मार जाए, मगर वे इलेक्ट्रॉनिक
दिनचर्या के मेघनादी-पाश से बाहर नहीं निकल पाएँगे। उनका बस चले तो घुमावदार
सीढिय़ों से बाइक पर बैठकर किचन तक पहुँचें और उतर आएँ। जमाने को पैरों की जरूरत
कहाँ है? पर जब टखने बजने लगते
हैं तो पैर इलेक्ट्रॉनिक युग में पैदल चलने की आदिम माँग करने लगते हैं। पता नहीं, इस इलेक्ट्रॉनिक युग
में पत्थर युग क्यों जिन्दा हाथ हिलाने लगता है। तमाम मशीनी परीक्षणों के बीच आदिम
विश्वास क्यों फहराने लगता है? यह आदमी के कर्म की हार है या मशीनों की जीत - मुझे नहीं मालूम। पर
इलेक्ट्रॉनिक युग के आदमी के पसीने की पुकार कहीं न कहीं आदिम माँग की तरह असरदार
हो जाती है। कभी हारती है तो नीबू-मिर्ची में, कभी जीतती है तो आदमी के पसीने में।
लेखक परिचय: बी. एल. आच्छा- जन्म: 05-02-1950, स्थान -देवगढ़
मदारिया राजस्थान , शिक्षा-एम.ए.हिन्दी, 1971 (उदयपुर
विश्वविद्यालय), से.नि.प्राध्यापक
हिन्दी, उच्च शिक्षा विभाग, मध्यप्रदेश शासन, प्रकाशन: 1-आचार्य हजारीप्रसाद
द्विवेदी के उपन्यास, 2-सर्जनात्मक भाषा और आलोचना, 3 'जल टूटता हुआ' की पहचान, 4 -आस्था के बैंगन, (व्यंग्य), 5- पिताजी का डैडी
संस्करण (व्यंग्य), संपादन- सृजन संवाद- लघुकथा विशेषांक। पुरस्कार: 1- देवराज उपाध्याय
आलोचना पुरस्कार, राजस्थान साहित्य
अकादमी, उदयपुर, 2- पं. नंददुलारे
वाजपेयी आलोचना पुरस्कार, म.प्र.साहित्य अकादमी, भोपाल, 3- समीक्षा सम्मान, म.प्र.लेखक संघ, भोपाल, 4-भाषा भूषण सम्मान
साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा। सम्पर्क- 36 क्लीमेंस रोड, सरवना स्टोर्स के
पीछे, पुरुषवाकम्, चेन्नई (तमिलनाडु) -600007, Email-
balulalachha@yahoo.com
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