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Jul 1, 2023

अनकहीः आइए रिश्तों को बचाएँ...

- डॉ.  रत्ना वर्मा 

रिश्तों का महत्त्व हमारे जीवन में हमेशा ही बना रहता है। यद्यपि यह बात तो पूरी दुनिया मानती है पर  भारतीय संदर्भ में यह बात इसलिए भी लागू होती है;  क्योंकि भारतीय संस्कृति में परिवार बनते ही रिश्तों की बुनियाद पर हैं। परंतु इन दिनों बदलते हुए सामाजिक परिवेश में रिश्तों की अहमियत पर कुछ ज्यादा ही बातचीत होने लगी है, कारण रिश्तों की मधुरता कहीं गुम होती नजर आ रही है।  पत्र- पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया में छोटे – बड़े सभी अपने- अपने तरीके से रिश्तों पर या तो अपने अनुभव साझा करते हैं या बनते बिगड़ते रिश्तों पर अपने सुझाव देते हैं और बहस भी करते हैं। दरअसल इस तरह की बातें 21 वीं सदी में ज्यादा होने लगी हैं। और दो साल पहले कोरोना जैसी महामारी के बाद तो और भी ज्यादा। याद कीजिए, कैसा होता था हमारा भारतीय परिवार और इस परिवार में रहने वालों के बीच के रिश्ते। परिवार संयुक्त होते थे, बच्चों को दादा- दादी, नाना- नानी,- ताई- ताऊ, चाचा- चाची का साथ और प्यार मिलता था। माता- पिता भी यह जानते थे कि हम अगर व्यस्त हैं तो भी बच्चे अकेले नहीं है। बचपन से लेकर बड़े होने तक परिवार का संस्कार और सुरक्षा रूपी कवच उनको घेर कर रखता था। 

पर यह सब उन दिनों की बात है जब मोबाइल फोन ने हमारे जीवन में दस्तक नहीं दी थी। जब टेलीफोन आया, तो उसका उपयोग पूरा परिवार करता था। अपनों के संदेश आते थे और अपनों को उसी एक फोन से संदेश भेजे भी जाते थे। आज की तरह नहीं कि सबके हाथ में मोबाइल होते हैं कौन किससे क्या बात करता है किसी को नहीं पता होता। वाट्सअप में सबकी अलग अलग चैटिंग, अलग- अलग ग्रुप और अलग- अलग दुनिया। कहने का तात्पर्य यही है कि समय बदलते जा रहा है तो रिश्तों की परिभाषा भी बदलते जा रही है। 

अब परिवारों की जीवन शैली भिन्न हो गई है। अब पूरा परिवार शायद ही एक साथ बैठकर भोजन करता हो।  परिवार एकाकी होते जा रहे हैं इसलिए आजकल की पीढ़ी जानती ही नहीं कि दादा- दादी, नाना- नानी के साथ वक्त कैसे बिताया जाता है। माता- पिता दोनों नौकरी करने निकल जाते हैं बच्चे स्कूल- कॉलेज से आकर घर में अकेले रहते हैं। अब तो बहुत छोटी उम्र में ही बच्चों को मोबाइल फोन पकड़ा दिया जाता है, क्योंकि ऐसा करके वे सोचते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं। लेकिन सिर्फ बच्चे स्कूल से घर आ गए हैं, उन्होंने खाना खा लिया है या नहीं जैसी दिनचर्या की बातें जानकर ही वे बच्चे की सुरक्षा के प्रति निश्चिंत नहीं हो सकते। इन दिनों एक दूसरा खतरा आज की पीढ़ी पर मँडरा रहा है। मोबाइल की लत ने जहाँ आज के बच्चों को मानसिक रूप से बीमार कर दिया है वहीं वे आभासी दुनिया में इतने मगन हो जाते हैं कि जीते- जागते रिश्ते उन्हें नजर ही नहीं आते। 

  क्रिक्रेटर रोहित शर्मा और और शार्दूल ठाकुर के बचपन के कोच दिनेश लाड का मानना है कि मोबाइल जीत की राह में बाधा है। उन्होंने इस बात के एक बार नहीं कई बार पुख्ता प्रमाण भी दिए हैं। पिछले दिनों अंडर 14 लीड टूर्नामेंट में मुम्बई की जीत इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। कोच लाड ने टूर्नामेंट की 25 दिन की अवधि में कुछ सख्त नियम बनाए, जिसमें एक था कि कोई भी इस बीच मोबाइल फोन का उपयोग नहीं करेगा। परिवार से भी बात करने के लिए केवल दो बार अनुमति दी गई वह भी मात्र दो मिनट के लिए। इस तरह के नियमों से हुआ यह कि बच्चों का मन भटका नहीं और सभी खिलाड़ी आपस में अच्छे दोस्त बन गए, परिणाम एक अच्छी टीम बनी और जीती भी। यदि क्रिकेट में यह नियम काम कर गया, तो पढ़ाई तथा अन्य क्षेत्रों में भी यह काम करेगा और बच्चे बेहतर परिणाम देंगे। इन दिनों बच्चों के परीक्षा परिणाम आ रहे हैं। मेरिट में आन वाले बच्चों से जब पूछा जाता है कि आपने कितनी मेहनत करके और किस प्रकार तैयारी करके यह स्थान पाया है,  तो उनके जवाब में उनकी कड़ी मेहनत के अलावा एक बात अवश्य होती है कि वे सोशल मीडिया में एक्टिव नहीं हैं और परीक्षा के दौरान मोबाइल से दूरी बनाए रखते हैं। 

आप सबने सुना होगा कि आजकल बहुत लोग मानसिक शांति और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए किसी ध्यान केन्द्र, योगा सेन्टर अथवा नेचरोपेथी सेंटर में महीने पन्द्रह दिन के लिए दुनिया के झंझटों से दूर शांति के साथ रहने जाते हैं और तरोताजा होकर लौटते हैं। आपको पता है वहाँ सबसे पहले क्या किया जाता है- उनसे उनका मोबाइल अलग रखवा दिया जाता है। यानी सारी पीड़ाओं से मुक्ति। यदि आप पैसे देकर अपनी शांति के लिए 10- 15 दिन तक मोबाइल से दूरी बना सकते हैं, तो घर में रहते हुए बगैर पैसे के ऐसा क्यों नहीं कर सकते। आप प्रतिदिन कुछ घंटे मोबाइल को अपने से दूर रखकर तो देखिए। इस एक बदलाव से आप बच्चों के अपने माता पिता के करीब तो आएँगे ही, उनसे बात करेंगे सुकून और खुशी भी महसूस करेंगे। 

पिछले कुछ वर्षों में रिश्तों को लेकर विभिन्न अध्ययन भी हुए हैं एक अध्ययन में 52% लोग मानते है कि परिवार हर स्थिति में उनका सबसे मजबूत सपोर्ट सिस्टम है। यद्यपि लोगों ने इस बात को लेकर चिंता भी जताई कि इन दिनों परिवारों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। जिसका प्रमुख कारण 44% लोगों ने मोबाइल को अधिक समय देना बताया। एकल परिवार, बाहर नौकरी पर जाना आदि अन्य कई और भी कारण इसमें शामिल हैं।   वैज्ञानिक तरक्की और आविष्कार होते तो बेहतरी के लिए हैं परंतु दवाई की तरह इसके साइड इफेक्ट भी होते हैं। यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है। इसने संचार की दुनिया में बेहतर सुविधाएँ तो मनुष्य को प्रदान की ही हैं;  पर कहते हैं न कि व्यक्ति बुरी आदतें जल्दी सीखता है। आज पूरी दुनिया व्यापार की दुनिया हो गई है। अधिक से अधिक कमाने की होड़ में मोबाइल कम्पनियाँ ऐसे- ऐसे लुभावने फीचर्स देते हैं कि बच्चे तो बच्चे, बड़े भी उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं और परिवार टूटने का कारण भी बनते हैं। पहले बच्चा जब पढ़ाई नहीं करता था या बदमाशियाँ ज्यादा करने लग जाता था, तो बुजुर्ग कहते थे बच्चा गलत संगति में पड़ गया है। उसे सही राह पर लाने के लिए उसे कहीं दूसरी जगह पढ़ने भेजना होगा;  लेकिन आज के बच्चों के लिए कहा जाता है बच्चा दिन- रात मोबाइल में लगा रहता है; इसलिए पढ़ाई में मन नहीं लगाता। 

यह भी उतना ही सच है कि सब कुछ जानते हुए भी इससे दूरी बनाना लोगों के लिए मुश्किल हो गया है;  परंतु इससे होने वाले दुष्परिणाम को देखते हुए और सबसे जरूरी अपने रिश्तों को बचाए रखने तथा आने वाली पीढ़ी में रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए हमें अपने परिवार में कुछ सख्त नियम ही बनाने होंगे; क्योंकि रिश्ते परिवार से ही बनते हैं, तो आइए सब मिलकर रिश्तों को बचाएँ...

7 comments:

Anonymous said...

बहुत अच्छी बात रिश्तों को लेकर कही आपने मैम। मोबाइल की वजह से आज हर जगह तौबा मचा हुआ है। बहुत सटीक उदाहरण दिया है आपने। मोबाइल, इंटरनेट और डिजिटल दुनिया से पीछा छुड़ाना मुश्किल ही नहीं बल्कि् नामुमकिन सा हो गया है। सही रास्ते हमें ही ढूंढना है।

विजय जोशी said...

आदरणीया,
बहुत सुंदर बात कही है आपने। पहली समस्या है एकल परिवार। संयुक्त परिवार पहला स्कूल हुआ करता था बच्चों का। ये अब नदारद हैं
- दूसरे मोबाइल के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सही उदाहरण उर्फ जीत का मंत्र।
- मेरे विद्वान मित्र हाइडलबर्ग जर्मनी के पूर्व भारत प्रमुख ने तो इस मामले में ATSO यानी ability to switch off थ्योरी ईजाद की है, जिसका अनुपालन उन्होंने स्वयं भी सदा किया।
- रिश्तों की अहमियत के अभाव में भौतिक उन्नति तो संभव है, लेकिन जीवन में आनंद कदापि नहीं।
- हर बार की तरह इस बार भी सामयिक विषय पर कलम उठाने हेतु हार्दिक आभार एवं बधाई। सादर 🙏🏽

शिवजी श्रीवास्तव said...

महत्त्वपूर्ण आलेख।हम लोगो ने संयुक्त परिवारों में रहने का सुख जाना है,नई पीढ़ी उससे वंचितप्रायः है।बाजार की व्यवस्था ने एकल परिवारों की व्यवस्था को बढ़ावा दिया है,उससे लड़ना एक बड़ी चुनौती अवश्य है पर असम्भव नहीं।निःसन्देह परिवार एक सुरक्षा कवच प्रदान करता है जो बालक को हर परिस्थिति में लड़ने का साहस प्रदान करता है।सुंदर आलेख हेतु बधाई।

Anonymous said...

आज की ज्वलंत समस्या का बहुत सुंदर विश्लेषण। सच मे। यह चिंता का विषय है। एक तो एकल परिवार उस पर परिवार का हर सदस्य बड़े से लेकर छोटे तक मोबाइल हाथ में लिए एक -दूसरे से मुँह मोड़ कर बैठा मिलता है कौन किसको रोकेगा। सम्बंधों की कड़ी में दरारें कहीं खाई न बन जाए। सोचना आवश्यक है। ऐसे में सचेत करता आपका यह आलेख अत्यंत उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। सुदर्शन रत्नाकर

Anonymous said...

दीदी प्रणाम
वर्तमान समय की ज्वलंत समस्या पर आपने बहुत अच्छा लिखा है।

मोबाइल छोटे बच्चों के लिये वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या है।एकल परिवार होने पैरेंट्स अपने काम और आराम के समय केलिये न-मुन्ने को मोबाइल थमा देते हैं।जो उनके मानसिक शारीरिक विकास में बड़ी बाधा है

रमेशराज तेवरीकार said...

बच्चों पर पड़ते मोबाइल के दुष्प्रभाव के घाव इस आलेख में गम्भीर चिंतन के लिए विवश करते हैं ताकि बच्चों के भविष्य को बचाया जा सके

प्रियंका गुप्ता said...

बहुत सार्थक बात कही है आपने...जिस वस्तु का उपयोग सबसे जुड़ने के लिए होना चाहिए था, उसके दुरुपयोग ने सबसे पहले अपनों से ही दूरी बना दी...। मानसिक शांति भंग हुई सो अलग...
एक बहुत सामायिक और उपयोगी विषय को उठाने के लिए बहुत बधाई