पिछले दो-पाँच वर्षों में आप सबने देखा ही है कि समृद्धि की सबसे आकर्षक चमक दिखाने वाले अमेरिका जैसे देश भी भयानक मंदी के शिकार हुए हैं और वहाँ भी इस अर्थव्यवस्था ने ग़जब की तबाही मचाई है। उधारी की अर्थव्यवस्था में डूबे सभी देशों को तारने के लिए किफायत को लाइफ जैकेट नहीं फेंकी गई है। उन्हें तो विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बड़े महाजनों ने और उधार देकर बचाना चाहा है। हिंदी में और गुजराती में भी दो शब्द हैं- एक नौकरी दूसरा शब्द है चाकरी। नौकरी कीजिए, आप जीविका के लिए; पर जो काम करें उसमें अपना मन ऐसा उडेल दें कि वह काम आपका खुद का काम बन जाए- दूसरे के लिए किया जाने वाला काम नहीं बने। नौकरी में चाकरी का भाव जितना सध सकेगा आपसे, उतना आनंद आने लगेगा और तब आप उसे केवल पैसे के तराजू पर तोलने के बदले संतोष के तराजू पर तोलने लगेंगे।
देश में दो और पुरानी विद्यापीठों की उम्र देखेंगे, तो यह विद्यापीठ एकदम ताज़ा, आज की लगेंगी। हमारे सुनहरे बताए गए इतिहास में एक विद्यापीठ थी नालंदा और दूसरी थी तक्षशिला। दूसरी विद्यापीठ का अर्थ है तक्ष यानी तराशना, शिला यानी पत्थर, या चट्टान। अनगढ़ पत्थर में से यानी साधारण से दिखने वाले पत्थर में से, शिक्षक, अध्यापक अपने सधे हाथों से, औजारों से एक सुंदर मूर्ति तराश कर निकालें। मामूली से छात्र को एक उपयोगी, संवेदनशील नागरिक के रूप में तराशकर उसके परिवार और समाज को वापस करें। इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज तो खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती है। उनकी ईंट से ईंट बज चुकी है। तो इससे हमें यह समझ में आना चाहिए कि संस्थाएँ, खासकर शिक्षण संस्थाएँ केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनती। वे गुरु और छात्रों के सबसे संयोग से बनती है। यह बारीक संयोग जब तक वहाँ बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहेंगे। आप सब जानते ही हैं कि इनमें से कैसे-कैसे बड़े नाम उस काल में निकले। कैसे-कैसे बड़े-बड़े प्राध्यापक वहाँ पढ़ाते थे, चाणक्य जैसी विभूतियाँ वहाँ थीं, जिनका लिखा लोग वे सारे अक्षर आज भी पढ़ते थे और उनके लिखे वे सारे अक्षर आज भी क्षर नहीं हुए हैं, आज भी मिटे नहीं हैं। नालंदा और तक्षशिला को राज्याश्रय भी खूब था; पर वह राज ही नहीं बचा तो आश्रय क्या बचता।
आज हमारे अखबार, टेलीविजन के सात दिन-चौबीस घंटे चलने वाले एक-दो नहीं, सौ चैनल अमंगलकारी समाचारों से भरे पड़े हैं। तो क्या हम सचमुच ऐसे अनिष्टकारी युग से गुजर रहे हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता है। गाँधीजी ने हिंद स्वराज में जैसा कहा था, यह ठीक वैसा ही है- यह तो किनारे की मैल है। बीच बड़ी धारा तो साफ है। समाज के उस बड़े हिस्से के बारे में गांधीजी ने सौ बरस पहले बड़े विश्वास से कहा था कि उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं और न आप राज कर सकेंगे। हाँ आज वह लगातार उपेक्षित रखे जाने पर शायद थोड़ा टूट गया है, पर अभी अपनी धुरी पर कायम है।
विनोबा कहते हैं कि पानी तो निकलता है, बहता है समुद्र में मिलने के लिए। पर रास्ते में एक छोटा-सा गड्ढा आ जाए, मिल जाए, तो वह पहले उसे भरता है। उसे भरकर आगे बढ़ सके, तो ठीक, नहीं तो वह उतने से ही संतोष पा लेता है। वह किसी से ऐसी शिकायत नहीं करता, कभी ऐसा नहीं सोचता कि अरे मुझे तो समुद्र तक जाने का एक महान् उद्देश्य एक महान् लक्ष्य, एक महान् सपना पूरा करना था। और वो महान् लक्ष्य तो पूरा हो ही नहीं पाया। तो हम बहना शुरू करें। जीवन की इस यात्रा में छोटे-छोटे गड्ढे आएँगे, खूब प्यार के साथ उन्हें भरते चलें।
(अनुपम मिश्र (1948-2016): गांधीवादी, लेखक, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षणकर्ता थे जिन्होंने जल संरक्षण, जल संचालन और बारिश के पानी के संरक्षण की परम्परागत तकनीकों का प्रचार किया और और जन जागरण की दिशा में काम करते हुए लोगों को प्रोत्साहित किया।) ■■
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