पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)
कर्म की महत्ता पर अनेकों दृष्टांत व उदाहरण प्राप्त हैं। आये दिन इसकी नई व्याख्या उपलब्ध है। पर सही मायने में कर्म वही है जो कृष्ण ने गीता में कहा है - हे अर्जुन ! तेरा अधिकार मात्र कर्म पर है, फल पर नहीं। इसलिये इस समय तू केवल कर्म कर। कर्म की मूल भावना की गहराई में जाए बगैर हम जो कर रहे हैं उसे कर्म कहने लग जाते हैं और वह तो शुरू बाद में होता है पर उसके नफे, नुकसान का तौल मोल हम पहले ही करने लग जाते हैं। खुलकर या थोड़े स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह कुली मनोवृत्ति कहलाती है। जिसमें आदमी कार्य आरंभ करने से पहले मोल भाव करता है। उसकी अपेक्षा कार्य के अनुपात में कई गुना अधिक होती है तथा कार्य की समाप्ति होने के पूर्व ही हाथ फैल जाते हैं। यह कर्म के साथ वांछित नहीं है। फल प्राप्त हो यह अच्छी बात है पर केवल फल को नज़र में रखकर कार्य हो यह अवांछित है।
कर्म मूलत: दो किस्म के होते हैं सकाम तथा निष्काम। पहले में फल की प्राप्ति सशर्त है, जबकि दूसरे में कोई शर्त नहीं। फल दोनों में ही प्राप्त होता है पर एक में जहाँ स्वार्थ सिद्धि की लालसा है वहीं दूसरे में एक उदार व उदात्त भावना रहती है। हर सांसारिक या सामाजिक प्राणी के जीवन यापन या महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए फल अभीष्ट है; पर कर्म के फल की मानसिकता के साथ कार्य को अंजाम देना कदापि उचित नहीं है। किसी भौतिक उद्देश्य के साथ कार्य में वह आनंद नहीं जो निर्मल मन से किए काम में है।
एक बार तानसेन से महात्मा हरिदास के गायन की प्रशंसा सुनकर बादशाह अकबर ने उनका गायन सुनने का निश्चय किया। हरिदास, त्यागी संत थे, सो दिल्ली दरबार में आकर उनके द्वारा गाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। यह भी मुश्किल ही था कि वे बादशाह के सामने गाएँगे, इसलिए अकबर और तानसेन ने वृंदावन जाकर संगीताचार्य हरिदास के गायन को सुनने की सोची।
जब वृंदावन पहुँचे, तो अकबर को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि हरिदास एक छोटी- सी कुटिया में रहते हैं। अकबर कुटिया के बाहर छुप गए और तानसेन ने कुटिया में प्रवेश किया। हरिदास जी तानसेन के गुरु थे। तानसेन ने वहाँ गायन आरंभ किया और वे गायन में जानबूझकर गलतियाँ करने लगे। शिष्य की भूल सुधारने के लिए हरिदास कई ढंग से गाकर सुनाने लगे। बादशाह की इच्छा पूर्ण हुई।
दिल्ली पहुँचने पर बादशाह अकबर ने तानसेन से वैसा ही गायन सुनाने का अनुरोध किया।
तानसेन ने कहा - गुरु जी के स्वर में जो सौंदर्य था, उसे मैं प्रकट नहीं कर सकता।
तानसेन खुद श्रेष्ठ गायक थे, उनके मुँह से यह सुनकर अकबर को आश्चर्य हुआ। अकबर ने कारण पूछा।
तानसेन ने कहा - मैं गुरुदेव की तरह इसलिए नहीं गा सकता; क्योंकि मैं दिल्ली के बादशाह के लिए स्वार्थवश गाता हूँ और मेरे गुरु इस जग के मालिक के लिए।
काम में श्रेष्ठ ऊँचाई प्राप्त करने के लिये जरूरी है कि उसका अनुपालन किसी भी लक्ष्य विशेष के लिए न होकर एक वचनबद्धता (Commitment) के लिए हो। इसका कारण यह है कि हमारा उद्देश्य ही कर्म क्षेत्र में हमारी उपलब्धि की सीमा तय करता है। यदि हम धन दौलत, और यश को लक्ष्य बनाकर काम करते हैं, तब हम सृजन की सर्वोच्च संभावना को पाने की जगह उससे मिलने वाली अन्य वस्तुओं में ही भटक जाते हैं। कर्म को धर्म मानकर किया कर्म ही अपनी पूर्णता को संतोष के साथ प्राप्त करता। ■■
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53 comments:
निष्काम कर्म को आपने बहुत सुन्दर उदाहरण द्वारा बड़ी सरलता से समझाया हैl आजकल बिरले लोग ही निष्काम कर्म करने वाले मिलेंगेl जोशीजी का साधुवासl
कर्म में यदि हम आनंद को प्राप्त करते हैं तो यह गौड़ हो जाता है की यह स्वार्थ वश है या निस्वार्थ। और कर्म में आनंद प्राप्त करने की आदत इंसान की पहचान बना देती है। बहुत ही अच्छे उदाहरण से आपने इसे बताया कि किस तरह से कर्म अनमोल बन जाते हैं।
बहुत ही अच्छा उदाहरण सर🙏। आजकल मैनेजमेंट की शिक्षा में बताया जाता है कि कार्य ऐसे करो कि लक्ष्य प्राप्त हो जाये। इस प्रक्रिया में उचित व अनुचित का ध्यान रखना अब महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। परंतु, यदि कार्य निष्काम भाव एवं नीतिपूर्वक किया जाये तो उसका फल सिर्फ़ व्यक्तिगत न होकर जनकल्याणकारी होता है।
निशीथ खरे
बहुत शानदार रचना, निष्काम कर्म को बहुत सुंदर तरीके से पेश किया आपने सर
Very nice article...
Vandana Vohra
बहुत प्रेणादायक रचना है जोशी जी
कैलाश माखीजानी
निष्काम कर्म करना लगभग असम्भव सा है इस संसार मे। हा फल की चिंता बगैर सरल मन से सम्भव है।अर्जुन को भी धर्मानुसार (छञी)आचरण का आदेश भी इसकी पुष्टि है। आप की सहज व्याख्या एवंम हरिदास तानसेन प्रसंग सराहनीय है। सादर ..
Nice Article Sir
Alok Shukla
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
हे प्राणी! तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं, इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और नहीं ऐसा सोच कि फल के आशा के बिना कर्म क्यों करूं।
कर्म का सिद्धांत एक बहुत ही व्यापक दार्शनिक और अध्यात्मिक सिद्धांत है। जब हम अनासक्त भाव से कर्म करते हैं तो उस कर्म का बीज नहीं पड़ता है और निष्काम भाव से किया हुआ वह कर्म ईश्वर को अर्पित होता है और मनुष्य जब ईश्वर को अर्पित करने के भाव से कोई कर्म करता है तो वह कर्म, कर्म नहीं बल्कि भक्ति बन जाता है।
सांसारिक जीवन में भरण पोषण के लिए सकाम कर्म करना हमारी जरूरत होती है परंतु यदि उन कर्मों को भी ईश्वर को समर्पित करते हुए चलें तो वे निष्काम कर्म हो जाते हैं और उनसे जहां हमारी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है वहीं उस परमपिता का पितृत्व भी हमें प्राप्त हो जाता है।
सांसारिक और आध्यात्मिक दृष्टि का संदेश देते हुए कर्म के सिद्धांत पर
एक उत्तम लेख के लिए आदरणीय जोशी साहब का हृदय से आभार।
निष्काम कर्म योग में मनुष्य अपनी समस्त इच्छाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है, परमात्मा को अपनी आकांक्षाओं को समर्पित करने से कर्म फल की चिंता नहीं रहती है। जो व्यक्ति सभी सुख दुख, हानि लाभ, यश अपयश, सफलता असफलता, भूत भविष्य, जीवन मृत्यु की चिंता न करते हुए केवल कर्तव्य में लीन रहता है, वह सच्चा निष्काम कर्मयोगी है। प्रत्येक प्राणी को कर्म तो करना ही पड़ता है, क्योंकि कोई भी प्राणी जीवित रहते हुए कर्म को नहीं छोड़ सकता है, पर यदि कर्म, फल की आकांक्षा को छोड़ कर किया जाय तो वह निष्काम कर्मयोग होगा।निष्काम कर्म सदैव परमात्मा को ही समर्पित होता है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार
बिना किसी निजी स्वार्थ के, दूसरों के भलाई के लिए अपना कार्य सर्व श्रेष्ठ तरीके से करना ही निष्काम कर्म योग है।
आदरणीय जोशीजी ने स्वामी हरिदास के निष्काम कर्म योग का सुंदर चित्रण किया है।
आदरणीय, हर बार की तरह आपने ही सबसे पहली प्रतिक्रिया प्रदान की। सो आपके प्रति हार्दिक आभार। सादर
प्रिय बंधु, हार्दिक आभार। सादर
निशीथ भाई, बिल्कुल सही कहा आपने। फल की कामना से कर्म अपवित्र हो जाता है। प्रारब्ध को सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। हार्दिक आभार सहित सादर
हार्दिक आभार मित्र
प्रिय भाई कैलाश, हार्दिक धन्यवाद
हार्दिक आभार भाई आलोक
प्रिय मंगल स्वरूप, निष्काम कर्म की बहुत सार्थक और सटीक व्याख्या की है आपने। यही जीवन को एक पावन उद्देश्य प्रदान करता है। आपकी पीढ़ी समर्पित है इसके लिये। सो हार्दिक बधाई। सस्नेह
प्रिय मित्र, कितने मनोयोग से पढ़कर आपने प्रतिक्रिया दी। सचमुच लिखना सार्थक हो गया। वैसे नाम ही लिख देते तो अधिक प्रसन्नता होती। हार्दिक आभार सहित
राजेश भाई, यह इतिहास का अद्भुत प्रसंग है, सो साझा किया। यही तो हिंदू धर्म की आधारशिला भी है। हार्दिक आभार सहित
सर,
सकाम तथा निष्काम कर्म की अति उत्तम व्याख्या।
प्रिय महेश, हार्दिक आभार। सस्नेह
आप का अनुज कृष्णकांत।
गीता वचन..... कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन....कहानी से सारांश अति उत्तम.
आदरणीय सर
सादर प्रणाम,
हमेशा की तरह आपके आलेख को पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है ।जीवन जीने का नया और प्रेरणादायक आयाम प्राप्त हो जाता है।निष्काम कर्म योग की व्याख्या में संत हरिदास जी का उदाहरण अति उत्तम और प्रासंगिक है। सकाम और निष्काम कर्म की महीन व्याख्या पढ़कर मन अभिभूत हुआ।
हार्दिक बधाई और साधुवाद।
आदरणीय सर,
कर्म के ऊपर बहुत ही सुंदर और सटीक व्याख्या ।
इस संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी को चाह कर या ना चाहते हुए भी कर्म तो करना ही होता है जिसमे सकाम और निष्काम कर्म दोनो शामिल है,
अब रुचि, आचार विचार, और कुछ पूर्व जन्मों संस्कार के आधार पर कुछ कर्म किसी के लिए साकाम तथा किसी के लिए निष्काम होते है जिससे ईश्वर के बनाए जगत का सुचारू रूप से संचालन होता रहता है ।
अपने अपने नीड़ की, अपनी अपनी पीर।
हर बंदे के कर्म ही, हैं उसकी तकदीर।।
धन्यवाद ।
Excellent article
Thanks very much dear Manish
प्रिय शरद, सही कहा। कर्म अनिवार्य है, पर उसकी दिशा तो हमें ही तय करना है। हार्दिक धन्यवाद। सस्नेह
बहुत ही सुंदर काव्य अभिव्यक्ति प्रिय शरद।
प्रिय माण्डवी, तारीफ़ करना आपका नैसर्गिक गुण है। इतने मनोयोग से पढ़कर प्रतिक्रिया देती हैं। सो सादर धन्यवाद। सस्नेह
प्रिय कृष्ण, हार्दिक आभार।
हार्दिक आभार मित्र
Dear Vandana, Thanks very much
Nice article with beautiful example
Mukesh Shrivastava
A classic article full of parables of wisdom. Work without any self interest is rare.
S N Roy
Thanks very very much sir. Kind regards
Bhai Mukesh, Thanks very much.
Reading the article on Guru Purnima🙏🏼Working without expecting reward in return- needs courage n immense faith in Providence. The reward might be late but one gets for sure- in some form.
An article full of wisdom. Self less karma is actually SEWA, the central message in Guru Granth Sahib .
Sadhuwad:)
This is really the best way to truly accomplish a work.
Thank you for reminding sir
Happy Guru Poornima (Guru ji)
Excellent sir. Very informative . Thanks
With reference to गीता, कर्म सम्बंधी जरूरी निर्देश सरल भाषा में उदाहरण द्वारा साधुवाद जोशी जी
कुली मनोवृत्ति पाश्चात्य भौतिक वाद की पहचान है, जबकि निष्काम कर्म की धारणा भारतीय संस्कृति की देन है।
Thanks very very much Dr Agrawal.
Dear Dr. Vijendra, Thanks very much.
Res. AnandaJi, so kind of you. Thanks very much. Kind regards
Dear Sorabh, Thanks very much
Dear Daisy, so nice of you. Thanks very much. Regards
आदरणीय, यह मनोवृत्ति तो वर्तमान में सब जगह परिलक्षित है. हार्दिक आभार सहित सादर
My pleasure!
आदरणीय जोशी सर, आलेख पढ़ कर बहुत सी बातें और कथन याद आ गए। एक महत्वपूर्ण कथन की चर्चा कर देता हूँ। स्व. हनुमान दास पोद्दारजी ने बताया कि पूजन अथवा ध्यान के समय माँ भगवती से कुछ भी नहीं मांगना चाहिए। क्योंकि वह जगत जननी है और माँ ही बच्चों का सर्वश्रेष्ठ हित सोच सकती है। सम्भव है वह हमें कुछ अमूल्य देना चाहती हो और हम कुछ साधारण माँग बैठें।
वर्तमान की समस्या यह है कि हम स्वयं को सुशिक्षित और अपने हित-अहित को ठीक प्रकार से समझने का दावा करते हैं। इस प्रकार पोद्दारजी की बात का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है अथवा यह एक पुरातन विचार है जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ग्राह्य नहीं है। दूसरे शब्दों में अवैज्ञानिक है।
अब इसके वैज्ञानिक पक्ष को भी देख लेते हैं। जब हम किसी निश्चित अथवा पूर्वनिर्धारित लक्ष्य को लेकर कर्मरत होते हैं तो हमारा पूरा ध्यान उस लक्ष्य की ओर होता है न कि कर्म की कुशलता पर। आप तो प्रबंधन के ज्ञाता हैं और आप कर्म की कुशलता का अर्थ भली भांति जानते हैं। कृष्ण इसी को योग कहते हैं "योगः कर्मसु कौशलं"।
सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक, दोनों ही प्रकार से यह सर्वमान्य है कि कर्म का फल अवश्य ही होगा। तथा वह कर्मफल कर्म की कुशलता और भाव के अनुरूप होगा "जैसी करनी वैसी भरनी"।
अतः भौतिक वैज्ञानिकता के आधार पर भी "मा फलेषु कदाचन" ही ठीक ठहरता है। इसे हम आधुनिक शब्दावली में इस प्रकार से कह सकते हैं Let the results be a natural outcome of our efforts.
अत्यंत सुन्दर सारगर्भित और सार्थक लेख के लिए साधुवाद
आदरणीय गुप्ताजी,
आप तो अपने आप में अद्भुत संस्था हैं सोच, साहित्य और सृजन की। सही कहा आपने कुशलता पूर्वक किया कर्म ही योग है। आपकी प्रतिक्रिया के प्रति सदैव उत्सुकता और प्रतीक्षा दोनों बनी रहतीं हैं। कामना रहित कर्म का सुख वही पा सके जिनके मन में यह भाव सदा प्रखर रहा। हार्दिक आभार सहित सादर
सुंदर लेख सच है ईमानदारी और निष्काम भाव से किए हुए कर्म में सफलता प्राप्त होती है भले ही विलंब हो
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