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Jul 1, 2023

31 जुलाई - जन्म दिवसः प्रेमचंद ने जैसा देखा वैसा ही लिखा

- रविन्द्र गिन्नौरे
हिंदी साहित्य में एक ऐसा भी लेखक हुआ जिसने समाज की विसंगतियों पर चोट की, जिनकी रचनाओं से जन जागरण का एक दौर चला। अपनी क्रांतिकारी कहानियों से जनमानस में देश प्रेम का जज्बा पैदा किया। अंग्रेजों ने इनकी अनेक रचनाओं पर प्रतिबंध लगाया, जिससे जन क्रांति फैल सकती थी। अपनी कलम से युद्ध लड़ा, उन सभी के खिलाफ, जो सामान्य जीवन को नकारते थे। प्रेमचंद की इन्हीं खूबियों के कारण उन्हें 'कलम का सिपाही' कहा गया। गरीबों के सच्चे हमदर्द रहे प्रेमचंद ने जो कुछ लिखा, वैसा ही जीवन जीकर एक आदर्श भी समाज के सामने रखा।

  प्रेमचंद के संपूर्ण जीवन को हम देखें कि उनकी कथनी और करनी में कितना सामंजस्य रहा है! वाराणसी के पास एक छोटे से गाँव लमही के कृषक परिवार अजायब लाल के यहाँ 21 जुलाई 1880 को प्रेमचंद जन्में। अपने सभी भाई- बहनों में छोटे होने के कारण इनके चाचा प्यार से 'नवाब राय,' कह कर पुकारते थे। बचपन में इनकी माता का स्वर्गवास हो गया और सौतेली माँ की परवरिश में इन्हें अनेक कष्ट सहने पड़े।

 विवाह भी छोटी उम्र में हुआ, जो नहीं रही, फिर इन्होंने अपने विचारों के अनुरूप बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया।

धनपत राय इनका असली नाम है; मगर साहित्य- जगत् में इन्हें इस नाम से नहीं जाना गया। उर्दू में यह अपने उपनाम 'नवाब राय' के नाम से क्रांतिकारी कहानियाँ लिखते रहे। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह नाम 1910 में मुंशी दयाराम निगम के परामर्श से रखा गया, इसी नाम से प्रेमचंद पूरे विश्व में प्रसिद्ध भी हुए। प्रेमचंद ने अपने जीवन में बहुत उतार- चढ़ाव देखे मगर कलम नहीं छोड़ी। लेखन के लिए सरकारी नौकरी छोड़ी और सिने- जगत् से मोह त्याग दिया। सन् 1900 में अध्यापक बने और पदोन्नत हुए। महात्मा गांधी के पहले सत्याग्रह के शुरुआती दौर में नौकरी छोड़ने वालों में प्रेमचंद भी एक थे।

 प्रेमचंद की रचनाओं में ग्रामीण परिवेश झलकता है; परंतु अंधविश्वास, रूढ़िगत मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। शोषण, अत्याचार के खिलाफ प्रेमचंद ने जेहाद छेड़ रखा था। जमीदारों, पूँजीवादियों की कुरीतियों पर प्रहार किया, तो वहीं उन्होंने सर्वहारा वर्ग के जीवन परिवेश को ज्यों का त्यों अपनी कहानी में उतार दिया। 

   हिंदी से पहले प्रेमचंद उर्दू साहित्य में नवाब राय के नाम से प्रसिद्ध हुए । 1901 में इन्होंने उर्दू में रचनाएँ लिखनी शुरू कीं। उर्दू कथा संग्रह 'सोज़े वतन' को बगावत फैलने के डर से अंग्रेज सरकार ने जप्त कर ली। इन दिनों तिलस्मी और राजा रानी की रूमानी कहानियों और उपन्यासों का दौर था। सब से अलग हटकर आम जनजीवन पर अपनी कलम चलाने वाले प्रेमचंद एक थे। महात्मा गांधी के संपर्क में आने से पहले इन्होंने राष्ट्रीयता को लक्ष्य रखकर कहानियाँ लिखीं और फिर अंधविश्वास, छुआछूत, कुप्रथा को लेकर अपनी कलम चलाई। प्रेमचंद की ऐसी कहानियाँ उस समय काफी लोकप्रिय हुई जो आज भी समसामयिक हैं।

की अपेक्षा हिंदी साहित्य में प्रेमचंद को काफी ख्याति मिली। हिंदी में खड़ी ठेठ भाषा में कौशल चित्रण इन्हें सही सभी साहित्यकारों से अलग करता हुआ विशेष दर्जा देता है। यथार्थ जीवन को चित्रित करने में जो सफलता पाई उससे प्रेमचंद को विश्व स्तरीय स्थान मिला। ग्रामीण जीवन को अपनी कहानियों में अविकल रखा, जिससे भाषा अनुकरणीय होने के साथ जीवंत हो गई। कल्पना और रोमांस से हटकर प्रेमचंद मानवीय संवेदनाओं के मुखर हो गए। हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दौर में प्रेमचंद ने एक नई दिशा दी जिनकी रचनाओं में ग्रामीण जीवन में जीते पात्र आस- निरास के बीच सुखी- संतोषी दिखते हैं। परंपरा से अलग हटकर लिखने के कारण प्रेमचंद को ब्राह्मण द्रोही, जमींदार विरोधी कहा गया, पर यह विरोध उनके सामने ज्यादा दिन नहीं ठहर सका। आडंबर को नकार कर सत्य लिखने का विरोध तो इन्हें सहना ही पड़ा, इसी सहनशीलता ने प्रेमचंद को हिंदी साहित्य में अमर कर दिया जिनकी ऊँचाई को दूसरा लेखक नहीं छू सका।

 प्रेमचंद ने जैसा लिखा, उसे अपने जीवन में उसे ढाला और अपने अभियान के पक्के रहे। जीवन भर की जमा पूंजी को प्रेमचंद ने पत्रकारिता के माध्यम से जनमत एकत्र करने में लगा दी। अपनी नौकरी ठुकरा कर 'हमदर्द' उर्दू के संपादक बने। साप्ताहिक 'प्रताप' में रहने के बाद सन् 1920 में काशी प्रेस से जुड़ गए। 1922 में लखनऊ की साहित्यिक पत्रिका 'माधुरी' में आए, यहाँ उन्हें ऐसी स्वतंत्रता हासिल नहीं हो सकी, जो वे चाहते थे। इन्हीं दिनों गोरखपुर में हुए असहयोग आंदोलन के आह्वान पर प्रेमचंद जेल गए। 'स्वदेश' में प्रेमचंद अंग्रेजों के खिलाफ तीखी टिप्पणी लिखा करते थे, यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है; क्योंकि टिप्पणी में प्रेमचंद का नाम नहीं जाता था। काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के साथ 'मर्यादा' में इन्होंने अपनी संपादन कला का परिचय दिया। काशी से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'जागरण' में संपादक बनकर 1932 में आए जिसका ऐतिहासिक महत्व पत्रकारिता के रूप में आज भी मील का पत्थर है।

  हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रीय सूत्र के साथ नव अध्याय की आकांक्षाओं का सूत्रपात हुआ, प्रेमचंद के 'हंस' प्रकाशन पर। 'हंस' में संपादन की गौरवशाली परंपरा को कायम रखते हुए, देशवासियों की आत्मा की आवाज को जीवंत रखने का यत्न किया गया। 'हंस' के माध्यम से अनेक कथाकारों को प्रेरणा मिली जिन्होंने समाज का सच्चा चित्रण कर आम लोगों के साथ जुड़ने का हौसला रखा। प्रेमचंद के विचारों के अनुरूप तब कई साहित्यकार आगे आए। हंस के माध्यम से प्रेमचंद ने बताया कि 'यथार्थवाद का अर्थ सनकीपन नहीं है'!

 हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में प्रेमचंद ने नए आयाम स्थापित किए। हंस और जागरण ने इन्हें प्रसिद्धि तो दी; परंतु धन नहीं दिया। इन्हीं दिनों मुंबई की एक फिल्म कंपनी ने अपने यहाँ काम करने का प्रस्ताव रखा। फिल्मों के लिए काम कर कुछ कर्ज उतार सकूँ ऐसा विचार कर एक साल तक प्रेमचंद ने काम किया; परंतु फिल्म प्रोड्यूसर के अनुरूप प्रेमचंद अपने आप को नहीं ढाल सके और वहाँ उन्हें सब कुछ निरर्थक- सा लगने लगा और फ़िल्म लाइन ही छोड़ दी। सिनेमा बारे में प्रेमचंद ने एक पत्र लिखा, “सिनेमा साहित्यिक आदमी के लिए नहीं है। मैं इस लाइन में यह सोचकर आया था कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकने की कुछ संभावनाएँ इसमें दिखाई देती थीं; लेकिन अब मैं देख रहा हूँ कि यह मेरा भ्रम था और मैं फिर साहित्य की ओर लौट रहा हूँ। सच तो यह है कि मैंने लिखना कभी बंद नहीं किया और मैं उसे अपना जीवन का लक्ष्य समझता हूँ।"

  प्रेमचंद की रचनाओं में नयापन था। अपनी रचनाओं के बारे में प्रेमचंद ने खुद कहा –“इसमें नयापन कुछ नहीं है जिन की आवाजें, उनके अंतर्मन को साहित्य में लानी चाहिए उन्हीं को लाने के लिए मैंने भरपूर कोशिश की है।” सचमुच प्रेमचंद ऐसे लेखक रहे, जिनके व्यक्तित्व व कृतित्व का एक ही मार्ग था, वही मार्ग आज हम सबके लिए खुला है।   ■■

email- ravindraginnore58@gmail.com

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