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Jul 1, 2023

किताबेंः आमजन की ग़ज़लें ‘दो मिसरों में’

   - डॉ. उपमा शर्मा

पुस्तक : दो मिसरों में (ग़ज़ल-संग्रह): मनीष बादल, मूल्य: रु195, पृष्ठ:116, वर्ष: 2023, प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हाउस, सेकंड फ्लोर , उषा प्रीत कॉम्प्लेक्स, 42। मालवीय नगर,भोपाल - 46200
 
शताब्दियों पूर्व अरबी में जन्म लेने वाली, अपनी कोमलता, शृगारिकता, संक्षिप्तता और गहराई के कारण मन मोहने वाली ग़ज़ल अपनी विकास यात्रा तय करते हुए आज हिन्दी के मार्ग पर पूरी शिद्दत से खड़ी हुई है। ग़ज़लगो मनीष बादल अपनी गज़लों में मानव जीवन की रोजमर्रा घटना, दु:ख, पीड़ा, तनाव, अतिवाद, शोषण, अभाव, भूख के विपदाजन्य जीवन क्षणों को प्रस्तुत करने की भूमिका निर्वहन करने की क्षमता रखती हैं। इस संग्रह की ग़ज़लें भी आत्म संवेदनाओं से भरपूर हैं।
यह दौर घोर अनिश्चितताओं, विषमताओं और त्रासदियों का समय है, जिसमें सहज मानवीय संबधों की उष्णता तेजी से घटती जा रही है। नैतिकता हाशिए पर खड़ी आँसू बहा रही है। पूँजी और बाजार के कसते हुए शिकंजे ने आम आदमी की छटपटाहट, गिरते मूल्य, संबधों में उपजी उदासीनता आदि ऐसे सैकड़ों सवाल हैं, जिनका कोई उत्तर नहीं है। मनीष की ग़ज़लों में वर्तमान परिदृश्य के ऐसे सरोकारों को पिरो ग़ज़ल का फ़लक विस्तृत कर दिया है।
धनवानों को देख ग़रीबी बे-बस हो रब से पूछे
मेरा हिस्सा लिखने वाले क्यों ये लापरवाही है।
मनीष की ग़ज़लें सत्ता के षड्यंत्रों तथा मध्यम वर्गीय परिवार की परेशानी को उजागर करती हैं, साथ ही हमारी सामाजिक समस्याओं और सवालों को उनकी जटिलता और जनपक्षीय दृष्टिकोण सहित बख़ूबी व्यक्त करती हैं-
हमने उनको चुनके कुर्सी दी, तो देखा 'सीन' ये
बादशाही ठाठ उनके, हैं रि'आया आम हम।
साहित्य अपने काल का जीवन्त दस्तावेज़ होता है, जो समय-समय पर जीवन में होने वाले परिवर्तित संवेदनाओं और विचारों को सम्यक संतुलन प्रदान करता है। इस सम्यक् संतुलन की अभिव्यक्ति ही साहित्य का सौन्दर्य होता है। कई बार इस अभिव्यक्ति की पूर्णता में रचनाकार के व्यक्तित्व का विलयन हो जाता है और सामाजिक, सांस्कृतिक और मूल्यगत संदर्भों को पिरोते हुए जब रचना रची जाती है। इन सारे गुणों का समावेश मनीष बादल के रचनात्मक संसार में मिलता है। 
चेहरे पर चेहरा इक पहने तीरथ पर जो निकले हैं
ऐसे मानुष को धरती पर भार लिखा करता हूँ मैं।
मनीष की ग़ज़ल पढ़ते हुए स्पष्ट पता लगता है कि मनीष की ग़ज़ल साधना बहुत पुरानी संग्रह की हर ग़ज़ल गुनगुनाने पर कानों में मिश्री- सी घोलती है। कहते हैं अनुभूति कितनी ही जटिल, सूक्ष्म क्यों न हो, ग़जल में रूपान्तरित होने पर वह साधारण पाठकों के लिए ग्राह्य बन जाए, यही रचना की सबसे बड़ी चुनौती है। मनीष की ग़ज़लों में यह चुनौती पूरी तरह निभाई गई है- 
बदलकर सोच तुम अपनी नज़रिया साफ कर लेना
कि' सूरज है कहीं उगता, तुम्हें लगता कि ढलता है।
मनीष की जिजीविषा उन्हें कभी हारने नहीं देती। उनकी जिजीविषा यही सिखाती है कि पंख काटने को तत्पर कितने ही धूर्त शिकारी क्यों न बैठे हों, लेकिन उड़ने का प्रयास कभी नहीं छोड़ो-
पर कटे पंछी का यारो हौसला तो देखिए
उड़ नहीं पाता है लेकिन फड़फड़ाता है बहुत।।
सृजक का तात्कालिक सम्बन्ध प्रकट रूप से समाज से ही होता है और उसकी झलक उसके लेखन में परिलक्षित होती है। मनीष के सृजित समाज का फलक भी बेहद विस्तृत है। अधिकतर ग़ज़लें सामाजिक सरोकार को समर्पित हैं ।
नारी का प्रत्येक रूप वन्दनीय है; परन्तु माँ इस संसार का सबसे प्यारा शब्द है। माँ की तुलना ईश्वर से की जाती है। माँ स्रष्टा होती है। उसे जाति-मजहब तो बहुत दूर की बात है, उसे इंसानों की परिधि में भी नहीं बाँधा जा सकता। मनीष ने माँ को समर्पित बहुत ही ख़ूबसूरत शे'र कहे हैं। 
सँभाला कोख में हमको में हमको है पूरे नौ महीने तक
ये ममता माँ की हम सब पर हमेशा की उधारी है।
आधुनिकीकरण के इस दौर में रिश्तों और समाज पर बाज़ार तेज़ी से हावी होता जा रहा है। वो एक-दूसरे से मिलना-मिलाना, वो दोस्तों के साथ ख़ुश-गप्पियाँ, चाय पकौड़े के साथ चर्चाओं का दौर कहीं गुम हो चुका है। बच्चों का बचपन गुम हो चुका है। इसे मनीष कुछ यूँ कहते हैं- 
मैदानों में ख़ामोशी है गुम-सुम सा माहौल हुआ
बच्चे गायब होते जाते, शाम रहे है संशय में।
ग़ज़लगो की इस पीड़ा को गहराई से समझो, तो यह आज के वक्त की कठिन सच्चाई को स्पष्ट निष्कर्षित करता है। जहाँ तक दृष्टि जायेगी वहाँ तक स्वार्थ की सिद्ध स्थली ही नज़र आएगी।
जुगनू जैसा कम चमकेगा, जल्दी ही मर जाएगा
किंतु न माथा टेकेगा वो सामन्ती दरबारों में।।
जिस तरह के भाव और विचार सामने आते गए उसी के अनुरूप कथ्य को उसी शैली में विस्तार देकर मनीष ग़ज़ल कहते हैं। बड़ी बातों को सहजता से कह देने का हुनर मनीष में बखूबी नज़र आता है। 
इन ग़ज़लों का एक सुखद पक्ष यह भी है कि दुर्गेश उपाध्याय और मोनिका साईं ने इन ग़ज़लों में सुरों की खोज़ की है। इन्होंने मनीष की कई ग़ज़लों को न सिर्फ संगीतबद्ध कर सुर ताल से सजाया है; अपितु अपनी सुमधुर आवाज़ भी दी है। कानों में रस घोलती ये ग़ज़लें मन को सहज की छू जाती हैं। 
ग़ज़ल की भाषा ग़ज़ल को अभिव्यक्ति देने का सिर्फ एक माध्यम ही नहीं; बल्कि वह ग़ज़ल कहने वाले के व्यक्तित्व की सटीक पहचान भी होती है। मनीष की ग़ज़लों की भाषा गूढ़ता और क्लिष्टता से इंकार करती है। संभवतः यह उनके व्यक्तित्व की बेबाकी और खारापन ही है कि संग्रह की तमाम ग़जल एक निष्कपट, निष्कवच और निडर भाषा में लिखी गईं हैं। कहते हैं नए प्रयोग किसी भी विधा को समृद्ध करते हैं। मनीष ने अपनी ग़ज़लों में भाषा का मिथक तोड़ते हुए हिंदी,उर्दू,अंग्रेजी शब्दों का बखूबी इस्तेमाल किया है। यह शब्द इतनी सहजता से प्रयोग किए हैं कि पढ़कर लगता है , इनकी जगह पर कोई और शब्द शायद ग़ज़ल को वो ख़ूबसूरती न दे पाता। 
बहुत से कवि अपने को प्रगतिवादी कहते हैं; पर उन्होंने देश और मजहब के जैसे ही भाषा का भी बँटवारा कर लिया है। ग़ज़ल केवल ग़ज़ल है, उसे हिंदी, उर्दू के शब्दों की परिधि में क्यों बाँधना? आज आम बोलचाल की भाषा में कुछ उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्द दूध में शक्कर के जैसे घुल-मिल गये हैं। ये सर्वत्र पाठक को अनूठा स्वाद देते हैं। ऐसे में भाषा विशेष से परहेज़ मुझे तो समझ नहीं आता। अंग्रेज़ी शब्दों के सटीक प्रयोग से इन शे'रों की मिठास देखिए। 
मैं ऑफिस की सभी टेंशन-थकन सब भूल जाता हूँ
कि' इक पुचकार पर बिटिया मेरी जब खिलखिलाती है। 
जेंटलमैनों में जब बैठा तो मैं पाया कुछ ऐसा
वो उतना मधुरस बरसाए, जो जितने ज़हरीले थे।
 स्वयं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने भाषा का इस्तेमाल एक सशक्त और मारक अस्त्र के रूप में किया है। मनीष बादल में जहाँ अनुभूति की गहराई है, जीवन-दृष्टि की नवीनता है, वहीं भाषा और अनुभवों को ग़ज़ल मे पिरोने की अद्भुत कला है। आम बोली-बानी में रचे बसे शब्दों को जिस खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है वह शिल्प के स्तर पर बेहद कारीगरी का उदाहरण है। काव्य- भाषा के स्तर पर मनीष जितने आधुनिक, प्रयोगशील दिखते हैं उतने ही वे परम्परावादी एवं परम्परान्वेषी भी दिखते हैं।
वो तो रहती है दिलो-जाँ में उमर भर 'बादल'
जाने क्यों लोग कहें- बेटी पराई होती।
सम्यक् अभिव्यक्ति ही साहित्य का सौन्दर्य होता है जिसमें रचनाकारका व्यक्तित्व विलय हो जाता है। इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मूल्यगत संदर्भ विद्यमान होते हैं। भाषा इन सारे सबंधों को समाहित करती हुई, इस वैशिष्ट्य को प्राप्त करती है। मनीष एक लोकोन्मुखी शायर  हैं। उनकी रचनाओं में स्पष्ट परिलक्षित होता है कि लोकचेतना को चित्रित तथा जाग्रत करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। मनीष अपनी अनुभूतियों को पाठकों तक सम्प्रेषित करने में पूरी तरह कामयाब हुए हैं। ■■ 
सम्पर्कः बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली-110053

2 comments:

रमेशराज तेवरीकार said...

सुंदर समीक्षा

Anonymous said...

बहुत धन्यवाद.. बहुत सुन्दर समीक्षा 👏🏼👏🏼🤗