- विजय जोशी
सुखों में सबसे बड़ा सुख
सेवा का है। इसे वही
जान सकता है ,जिसने समय का सदुपयोग सेवा के संस्कार से किया है।
प्राचीनकाल से लेकर आज तक का सारा इतिहास उठाकर देख लीजिए- इसमें
केवल सेवकों, संतो का
नाम मिलेगा; जिन्होंने स्वहित त्यागकर परहित में जीवन बिताया। एक छोटा- सा
उदाहरण देखें -पूरे देश में संभवतया राम से अधिक हनुमान के मंदिर होंगे।
महावीर विक्रम बजंरगी। लोग अपनी मनोकामना लेकर उनके दरबार में उपस्थित होते हैं।
स्वयं राम ने भी कहा है - राम से बड़े राम के दासा। लंका विजय अभियान पर प्रयाण से
पूर्व समुद्र पर सेतु अत्यावश्यक था। इस हेतु राम ने नल नील को अपने संगी साथियों
की सहायता से सेतु निर्माण हेतु अधिकृत किया। पूरी वानर सेना पूरे उत्साह और उमंग
के साथ इस आयोजन में जुट गई। वानर बड़े बड़े पत्थर उठाकर लाते और नल नील के
अनुमोदन पश्चात समुद्र में प्रवाहित कर देते। युद्ध स्तर पर चल रही इस कार्यवाही
पर सब और घमासान मचा हुआ था।
राम एक शिला पर शांतचित्त
बैठे हुए सारा दृश्य निहार रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि एक गिलहरी वानरों से
बचते- बचाते समुद्र तट पर जाकर नहाती लौटकर रेत में लौटती एवं
तत्पश्चात बन रहे पुल के मध्य अपने शरीर से चिपकी रेत झाड़कर पुन: उसी क्रम में
व्यस्त हो जाती।
राम कुछ समझ नहीं पाए।
उन्होंने गिलहरी को समीप बुलाकर इसका प्रयोजन पूछा- गिलहरी ने कहा- प्रभु वानर बन्धुओं के समान बड़े पत्थर उठा पाना मेरी वश में नहीं है, लेकिन नुकीले, उबड़-खाबड़ पत्थर के मध्य मैं रेत केवल इस प्रयोजन से डाल
रहा हूँ, ताकि वे
चलते समय आपके पैरों को लहूलुहान न कर सकें।
प्राणों पर खेलकर की गई
सेवा के इस समर्पित भाव पर राम की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने अपनी तीन उँगलियाँ गिलहरी के शरीर पर प्यार से फेरीं, जो आज तक हर गिलहरी के शरीर पर विद्यमान हैं। आप कहीं भी
कभी भी देख लीजिए।
सारांश यह कि सेवा का भाव
मन में होना चाहिए, अंहकार
नहीं। और सेवा के लिए सुविधा, संसाधन
पर निर्भरता भी जरूरी नहीं। निस्वार्थ सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती।
यह फल की कामना -रहित कर्म
के समान ही है। फल स्वार्थ का प्रतीक है और सेवा परमार्थ का। इससे आपको अंतस् में जिस गहन संतोष, सुख और आनंद की प्राप्ति होती हैं, उसे शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। अत: आज से ही अपनाएँ-
अहर्निश सेवामहे।
नज़र नज़र और नज़ारे
नजर या आँख इंसान को ईश्वर की अनुपम देन है। अब यह हम पर निर्भर है
कि हम क्या देखना चाहते हैं, किस
कोण से देखते हैं और हमारे देखने का मंतव्य क्या है। हमारे अंदर का सोच ही हमारा
नज़रिया तय करता है और फिर वैसे ही नज़ारे हमें देखने को मिलते हैं। धीरे-धीरे यही
हमारे मानस और फिर हमारी आदत में शुमार हो जाता है। इन तीनों अक्षरों में क्रमश:
पहला साधन दूसरा सोपान और अंतिम सोच है।
प्रसिद्ध संत रामदास बहुत
सुंदर तरीके से रामायण की व्याख्या किया करते थे।वे इतनी मधुर वाणी में अपनी बात कहते थे कि दूर-दूर से लोग उन्हें सुनने के लिए आते थे। पूरा वातावरण
भक्तिमय हो जाता था। लोग पूरे संतोष और सुख के भाव में हिलोरे लेते घर लौटते थे।
उनकी प्रवचन शैली इतनी
आनंददायक थी कि स्वयं हनुमान भी इस दौरान वहाँ आकर विनय भाव से अपने आराध्य की कथा सुना करते थे। एक दिन
अशोक वाटिका प्रसंग के दौरान संत रामदास ने कहा कि हनुमान जब माता सीता के दर्शन
के लिए वाटिका में उतर रहे थे तो उन्हें वहाँ पर श्वेत फूल दिखाई दिए। वे माँ के दर्शन की कल्पना मात्र से प्रफुल्लित थे। हनुमान
को यह प्रसंग अनुचित लगा; क्योंकि उन्हें तो वे फूल सूर्ख लाल लगे थे। तो उन्हें यह
कथा अप्रासंगिक लगी। वे तुरंत खड़े हो गए और इस कथन का प्रतिवाद किया।
बात उलझ गई। अब फैसला कैसे
हो। दोनों के दोनों निर्मल, अच्छे तथा
सच्चे। मामला भगवान श्रीराम तक पहुँचा। पूरी बात सुनने के बात उन्होंने मुस्कुराते
हुए इसका सार्थक और सामयिक हल निकाला- हे भक्त हनुमान जब तुम अशोक वाटिका में उतरे
तो तुम्हारे मन में रावण के प्रति आक्रोश था। तब तुम्हारी आँखों में खून उतर आया
था। अत: तुम्हें वे फूल लाल लगे, जबकि
संत रामदास शांत चित्त से जब इस प्रसंग का विवरण प्रस्तुत कर रहे होते हैं; तो उन्हें
वे फूल सुंदर श्वेत और शांत लगते है। आप दोनों ही अपनी जगह सही हैं।
बात का सारांश यह है कि
हमारी नज़र भी अमूमन वही देखना चाहती है जो हमारे अंतस् में है। बबूल रूपी सोच आम की फसल में तब्दील नहीं हो सकता।
इसलिए यह बेहद आवश्यक है कि हमारी नज़र हमारे सोच के अनुरूप सकारात्मक हो और तब ही
और केवल तब ही जो नज़ारे हमारे सामने उद्घाटित होगें, वे होंगे
सुमधुर, सुखद, स्वस्थ, सुंदर, सच्चे तथा अच्छे।
सम्पर्क: 8/ सेक्टर- 2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल- 462023,
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