- विष्णु प्रभाकर
क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी
में गहरी तलखी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठना था। यदि उस समय गोपी न आ
जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का गुबार निकालता।
गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा - 'साहब सलाम भाई रहमान। कहो क्या बना
रहे हो?' रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई
डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफी थी, बोला, 'आओ गोपी काका। साहब सलाम।'
'बड़े तेज हो, क्या बात है?' गोपी बैठ गया। रहमान ने उसके सामने
बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला - 'क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों
का दिमाग बिगड़ गया है। जाने कैसी हवा चल पड़ी है। माँ-बाप को कुछ समझते ही नहीं।' गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और
मुस्करा कर कहा - 'रहमान, बात सदा ही ऐसी रही है। मुझे तो
अपनी याद है। बाबा सिर पटक कर रह गए, मगर मैंने चटशाला में जा कर हाजिरी
ही नहीं दी। आज बुढ़ापे में वे दिन याद आते हैं। सोचता हूँ, दो अच्छर पेट में पड़ जाते तो...' बीच में बात काट कर रहमान ने तेजी
से कहा - 'तो काका, नशा चढ़ जाता। अच्छरों में नाज से
ज्यादा नशा होवे है, यह दो अच्छर का नशा ही तो है जो सलीम को उड़ाए लिए जावे है। कहवे
है इस बस्ती में मेरा जी नहीं लगे। सब गंदे रहते हैं। बात करने की तमीज नहीं। चोरी
से नहीं चूकें...'
गोपी चौंक कर बोला - 'सलीम ने कहा ऐसे?' 'जी हाँ, सलीम ने कहा ऐसे और कहा, हम इंसान नहीं हैं, हैवान हैं। फिर हम जैसे नाली में
कीड़े बिलबिलाए हैं न, उसी तरह की हमारी जिंदगी है….' कहते-कहते रहमान की आँखें चढ़ गईं।
बदन काँपने लगा। हुक्के को जिसे उसने अभी तक छुआ नहीं था, इतने जोर से पैर से सरकाया कि चिलम
नीचे गिर पड़ी और आग बिखर कर चारों ओर फैल गई। तेजी से पुकारा - 'करीमन! ओ हरामजादी करीमन! कहाँ मर गई जा कर? ले जा इस हुक्के को। साला आज हमें
गुंडा कहवे है...' गोपी ने रहमान की तेजी देख कर कहा - 'उसका बाप स्कूल में चपरासी था न!' 'जी हाँ, वही असर तो खराब करे है। पढ़ा नहीं था तो क्या; हर वक्त पढ़े-लिखे के बीच रहवे था।
मगर साले ने किया क्या? भरी जवानी में पैर फैला कर मर गया। बीवी को कहीं का भी नहीं छोड़ा।
न जाने किसके पड़ती, वह तो उसकी माँ ने मेरे आगे धरना दे दिया। वह दिन और आज का दिन; सिर पर रखा है। कह दे कोई,सलीम रहमान की औलाद नहीं है। पर वह
बात है काका...' आगे जैसे रहमान की आँख में कहीं से
आ कर कुणक पड़ गई। जोर-जोर से मलने लगा। उसी क्षण शून्य में ताकते-ताकते गोपी ने
कहा - 'सलीम की माँ बड़ी नेकदिल औरत है।'
रहमान एकदम बोला - 'काका, फरिश्ता है। ऐसी नेकदिल औरत कहाँ देखने को मिले है आजकल। क्या मजाल
जो कभी पहले शौहर का नाम लिया हो! ऐसी जी-जान से खिदमत करे है कि बस सिर नहीं
उठता। और काका उसी का नतीजा है। तुमसे कुछ छुपा है। कभी इधर-उधर देखा है मुझे?'
गोपी ने तत्परता से कहा - 'कभी नहीं रहमान, मुँह देखे की नहीं ईमान की बात है। पाँच पंचों में कहने को तैयार
हूँ।' 'और रही चोरी की बात! किसी के घर डाका मारने कौन जावे है। यूँ खेत
में से घास-पात तुम भी लावो ही हो काका।' गोपी बोला - 'हाँ लावूँ हूँ। इसमें लुकाव की क्या बात है। और लावें क्यों न? हम क्या इतने से भी गए? बाबू लोग रोज जेब भर कर घर लौटे
हैं। सच कहूँ रहमान! तनखा बाँटते वक्त अँगूठा पहले लगवा लेवे हैं और पैसों के वक्त
किसी गरीब को ऐसी दुत्कार देवें कि बिचारा मुँह ताकता रह जावे है। इस सत्यानाशी
राज में कम अंधेर नहीं है। पर बेमाता ने हमारी सरकार की किस्मत में न जाने क्या
लिख दिया है, दिन-रात चौगुनी तरक्की होवे है। गाँधी बाबा की कुछ भी पेश नहीं
आवे।' रहमान ने सारी बातें बिना सुने उसी
तेजी से कहा - 'बाबू क्यों? वे जो अफसर होते हैं, साब बहादर, वे क्या कम हैं? किसी चीज पर पैसा नहीं डालें हैं।
और काका! यह कल का छोकरा सलीम हमें गुंडा बतावे है। गुंडे साले तो वे हैं। सच
काका! कलब में सिवाय बदमाशी के वे करें क्या हैं। शराब वे पिएँ, जुआ वे खेलें और...।' 'और क्या? हमारे साब के पास आए दिन कलब का चपरासी आवे है। कभी सौ, कभी डेढ़ सौ, सदा हारे ही हैं, पर रहमान, उसकी मेम बड़ी तकदीर की सिकंदर है।
जब जावे तब सौ-सवा सौ खींच लावे है।' 'मेम साब... काका, तुम क्या जानो। उसकी बात और है। जितने ये साब बहादुर हैं, और साब क्यों, बड़े-बड़े वकील, बलिस्टर, लाला, सभी आजकल कलब जावे हैं। मुसलमान को
शराब पीना हराम है; पर वहाँ बैठ कर विस्की, जिन, पोरट, सेरी सब चढ़ा जावे हैं। औरतें ऐसी
गिर गई हैं कि पराए मरद के कमर में हाथ डाल कर लिए फिरे हैं, और वे हँस-हँस कर खिलर-खिलर बातें
करे हैं। काका! जितनी देर वे वहाँ रहवे हैं; ये यही कहते रहे हैं - उसकी बीवी
खूबसूरत है। इसकी जोरदार है। सरमा खुशकिस्मत है, रफीक की लौंडिया उसके घर जावे।
गुप्ता की बीवी उसके पास रहे है। सारा वक्त यही घुसर-पुसर होती रहे और मौका देख
कोई किसी के साथ उड़ चला। उस दिन जीत की खुशी में ड्रामा हुआ था। पुलिस के कप्तान
लालाजी बने थे। वे लालाजी लोगों को हँसाते रहे और मेजर साहब उनकी बीवी को ले कर
डाक बँगले की सैर करने चले गए। ये हैं, बड़े लोगन की चाल-चलन। ये हमारे
आका... हमारे भाग की लकीर इन्हीं की कलम से खिंचे है।'

गोपी ने अब अपना डंडा उठा लिया।
बोला - 'रहमान, कुछ भी हो, सलीम तेरा ही लड़का माना जावे है, जवान है; अबे-तबे से न बोलना। समझा; आजकल हवा ऐसी चल पड़ी है। और चली कब
नहीं थी! फरक इतना है, पहले मार खा कर बोलते नहीं थे, अब सीधे जवाब देवे हैं...'
रहमान तेज ही था। कहा - 'मैं उसके जवाबों की क्या परवा करूँ काका। जावे जहन्नुम में। मेरा
लगे क्या है? ...और काका। मैं उसे मारूँगा क्यों। मेरे क्या हाथ खुले हैं। मैं तो
उससे दो बात पूछूँगा, रास्ता इधर या उधर। और काका, मुझे उस साले की जरा भी फिकर नहीं -
फिकर उसकी माँ की है। यूँ तो औलाद और क्या कम हैं,पर जरा यही कुछ सहूरदार था... काका, सोचता था पढ़-लिख कर कहीं मुंशी
बनेगा, जात-बिरादरी में नाम होगा। लेकिन लिखा क्या किसी से मिटा है?'
गोपी बोला - 'हाँ रहमान। लिखा किसी से नहीं मिटा! अब चाहे तो मालिक भी नहीं मेट
सकता। ऐसी गहरी लकीर बेमाता ने खींची है। सो भइया अपने इज्जत अपनी हाथ है। ज्यादा
कुछ मत कहना। पढ़ों-लिखों को गैरत जल्दी आ जावे है। समझा...।'
'समझा काका।' और फिर गोपी डंडा उठा, घास की गठरी कंधे पर डाल, साहब सलाम करके चला गया। रहमान कुछ
देर वहीं शून्य में बैठा धुँधले होते वातावरण को देखता रहा। मन में उमड़-घुमड़ कर
विचार आते और आपस में टकरा कर शीघ्रता से निकल जाते। वे झील के गिरते पानी के समान
थे, गहरे और तेज। इतने तेज कि उफन कर रह जाते। उनका तात्कालिक मूल्य
कुछ नहीं था, इसीलिए उससे मन की झुँझलाहट और गहरी होती गई। करुणा और विषाद कोई
उसे कम नहीं कर सका। आखिर वह उठा और अंदर चला गया।
घर में सन्नाटा था। बच्चे अभी तक
खेल कर नहीं लौटे थे। उसकी बीवी रोटियाँ सेंक रही थी। सालन की खुशबू उसकी नाक में
भर उठी। उसने एक नजर उठा कर अपनी बीवी को देखा - शांत-चित्त वह काम में लगी है।
उसके कानों में लंबे बाले रोटी बढ़ाते समय वेग से हिलते हैं। उसके सिर का गंदा
कपड़ा खिसक कर कंधे पर आ पड़ा है। यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं
पड़ा है। गोरी न हो कर भी वह काली नहीं है। उसकी आँखों में एक अजीब नशा है। वही
नशा उसे बरबस खूबसूरत बना देता है। जिसकी ओर वह देख लेती है एक बार, तो वह ठिठक जाता है। रहमान सहसा
ठिठका - उन दिनों इन्हीं आँखों ने मुझे बेबस बना दिया था। नहीं तो... सहसा उसे देख कर उसकी बीवी बोल उठी
- 'इतने तेज क्यों हो रहे थे। गैरों के आगे क्या इस तरह घर की बात
कहते हैं?' रहमान कुछ तलखी से बोला - 'गैरों के आगे क्या? पानी अब सर से उतर गया है। कल को जब
घर से निकल जावेगा, तब क्या दुनिया कानों में रुई ठूँस लेगी या आँखें फोड़ लेगी?' बीवी को दुख पहुँचा। बोली - 'बाप-बेटे क्या दुनिया में कभी अलग नहीं होते?' 'कौन कहे कि वह मेरा बेटा है?' 'और किसका है?' 'मैं क्या जानूँ?' 'जरा देखना मेरी तरफ! मैं भी तो सुनूँ।'

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