- आकांक्षा यादव
भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, उन्नत
प्रौद्योगिकी एवं सूचना-तकनीक के बढ़ते इस युग में सबसे बड़ा खतरा भाषा, साहित्य और
संस्कृति के लिए पैदा हुआ है। भारत सदैव से विभिन्नताओं का देश रहा है। यहाँ के
बारे में कहा जाता है कि यहाँ हर कोस पर पानी और हर चार कोस पर वाणी यानी भाषा बदल
जाती है। पर लगता है यह मुहावरा कुछ दिनों में पुराना पड़ जायेगा। वस्तुत: भारत
में बोली जाने वाली सैकड़ों भाषाओं में से 196 खत्म होने के कगार
पर हैं; लेकिन इससे भी ज्यादा चिंताजनक पहलू यह है कि बोलियों का पूरा संसार ही
सिमटता जा रहा है। दुनिया में बोली जाने वाली 6900 भाषाओं में से 2500 का
अस्तित्व खतरे में है। भाषाएँ आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त
होती जा रही हैं। अगर संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन
से इसकी तुलना की जाए तो पिछले एक दशक में बदलाव काफी तेजी से हुआ है। उस समय
विलुप्त प्राय: भाषाओं की संख्या मात्र 900 थी, लेकिन यह
गंभीर चिन्ता का विषय है कि तमाम देशों में इस ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा
है। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएँ थी, जबकि 2001 में यह
संख्या घटकर मात्र 224 रह गई। स्पष्ट है कि इन पाँच दशकों में
भारत की 1418 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी है। इन्टरनेट पर हर कुछ खँगालने वाली
युवा पीढ़ी भी उन्हीं भाषाओं को तरजीह देती है जिनका उनके कैरियर से कोई वास्ता
होता है। नतीजन प्रगति और विकास के तमाम दावों के बीच कई भाषाएँ व बोलियाँ अपनी
उपेक्षा के चलते दम तोड़ती नजर आ रही हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व और संरक्षण के अभाव
में सैकड़ों भाषाएँ समाप्ति के कगार पर हैं। दुनियाभर
में भाषाओं की इसी स्थिति के कारण संयुक्त राष्ट्र ने 1990 के दशक
में 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की
थी। बांग्लादेश में 1952 में भाषा को लेकर एक आंदोलन के बारे में
कहा जाता है कि इसी से बांग्लादेश की आजादी के आंदोलन की नींव पड़ी थी और भारत के
सहयोग से नौ महीने तक चले मुक्ति संग्राम की परिणति पाकिस्तान से अलग होकर
बांग्लादेश बनने के रूप में हुई थी। इस आंदोलन की शुरुआत तत्कालीन पाकिस्तान सरकार
द्वारा देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्र भाषा के रूप में उर्दू को थोपे जाने के
विरोध से हुई थी।
संयुक्त
राष्ट्र की पहली स्टेट ऑफ द वल्र्ड्स इन्डीजीनस पीपुल्स रिपोर्ट में इस बात का
उल्लेख किया गया है कि दुनिया भर में छह से सात हजार तक भाषाएँ बोली जाती हैं, इनमें से
बहुत सी भाषाओं पर लुप्त होने का खतरा मँडरा रहा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि
इनमें से अधिकतर भाषाएँ बहुत कम लोग बोलते हैं, जबकि बहुत थोड़ी सी
भाषाएँ बहुत सारे लोगों द्वारा बोली जाती हैं। सभी मौजूदा भाषाओं में से लगभग 90 फीसदी
अगले 100 सालों में लुप्त हो सकती हैं, क्योंकि दुनिया की
लगभग 97 फीसदी आबादी इनमें से सिर्फ चार फीसदी भाषाएँ बोलती हैं।
यूनेस्को द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा
बढ़ता ही जा रहा है और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करनी होंगी। यूनेस्को
द्वारा कराये गये इस अध्ययन पर गौर करें तो इस रिपोर्ट में सबसे ज्यादा खतरा भारत
की भाषाओं पर बताया गया है। जहाँ भारत में यह 196 भाषाओं पर है, वहीं
अमेरिका व इण्डोनेशिया क्रमश: 192 व 147 भाषाओं पर खतरे के
साथ दूसरे व तीसरे नंबर पर हैं। भाषाओं के मामले में सर्वाधिक समृद्ध पापुआ न्यू
गिनी में 800 से ज्यादा भाषाएँ बोली जाती हैं, जबकि वहाँ
केवल 88 भाषाओं पर ही खतरा है। पीपुल्स
लिंग्युस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (पीएलएसआई) के अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षो के
दौरान 780 विभिन्न बोलियों वाले देश की 250 भाषाएँ लुप्त हो
चुकी हैं। इनमें से 22 अधिसूचित भाषाएँ हैं। जनसंख्या के आँकड़ों
के अनुसार 10 हजार से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली 122 भाषाएँ
हैं। बाकी 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाती है। आयरिश भाषाई विद्वान
जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के बाद पहली बार यह भाषायी सर्वे किया गया है। ग्रियर्सन
ने 1898-1928 के बीच भाषायी सर्वे किया था। पीएलएसआई सार्वजनिक विमर्श और
अप्रेजल फोरम वाला एक गैर सरकारी संगठन है, जिसमें 85 संस्थाओं
और विश्वविद्यालयों के तीन हजार विशेषज्ञ शामिल हैं। आजाद भारत में पहली बार किए
गए इस पहले सर्वें में चार वर्ष लगे। सितम्बर 2013 में इसकी 72 पुस्तकों
में 50 खंड की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट
के अनुसार भाषायी विविधता की दृष्टि से भारत में अरुणाचल प्रदेश सबसे समृद्ध राज्य
है, वहाँ 90 से अधिक भाषाएँ बोली जाती है। इसके बाद
महाराष्ट्र और गुजरात का स्थान है, जहाँ 50 से अधिक
भाषाएँ बोली जाती है। 47 भाषाओं के साथ ओडिशा चौथे स्थान पर है।
लिपियों के आधार पर देखें तो देश में 86 विभिन्न लिपियाँ
चलन में हैं। सबसे ज्यादा नौ लिपियों के साथ पश्चिम बंगाल पहले स्थान पर है और कई
अन्य लिपियों को भी विकसित करने का यहाँ प्रयास किया जा रहा है। इस राज्य में 38 विभिन्न
भाषाएँ बोली जाती हैं। देश की पाँच प्रतिशत भाषाएँ और 10 प्रतिशत
लिपियाँ बंगाल में पाई जाती हैं। इस सर्वें के अनुसार उत्तर-पूर्व में किसी एक
व्यक्ति द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या दुनिया में सर्वाधिक है। इसके
बावजूद पूर्वोत्तर के पाँच राज्यों में बोली जाने वाली करीब 130 भाषाओं का
अस्तित्व खतरे में हैं। असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड
की 17 और त्रिपुरा की 10 भाषाएँ खतरे में
हैं। हाल ही में
भारत के अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तकरीबन 65000 साल से बोली जाने
वाली एक आदिवासी भाषा 'बो’हमेशा के लिए
विलुप्त हो गई। वस्तु: कुछ समय पहले अंडमान में रहने वाले बो कबीले की आखिरी सदस्य
85 वर्षीय बोआ सीनियर के निधन के साथ ही इस आदिवासी समुदाय
द्वारा बोली जाने वाली 'बो’भाषा भी लुप्त हो
गई। अंडमान-निकोबार में चिडिय़ों पर शोध कर रही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
की प्रोफेसर डॉ.अनविता अब्बी को तो यह देखकर हैरत हुई की बोआ सीनियर चिड़िया से बात
कर रही थीं और वे दोनों एक-दूसरे की भाषा समझ रहे थे। गौरतलब है कि ग्रेट अंडमानीज
में कुल 10 मूल आदिवासी समुदायों में से एक बो समुदाय की इस अंतिम सदस्य
ने 2004 की विनाशकारी सुनामी में अपने घर-बार को खो दिया था और सरकार
द्वारा बनाए गए कंक्रीट के शेल्टर में स्ट्रैट द्वीप पर गुजर-बसर कर रही थी। 'बो'भाषा के
बारे में भाषायी विशेषज्ञों का मानना है कि यह भाषा अंडमान में प्री-नियोलोथिक समय
से इस समुदाय द्वारा उपयोग में लाई जा रही थी। दरअसल, ये भाषाएँ
शहरीकरण के चलते दूर-दराज के इलाकों में अंग्रेजी और हिन्दी के बढ़ते प्रभाव के
कारण हाशिए पर जा रही हैं। भाषाओं के
कमजोर पड़कर दम तोडऩे की स्थिति का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया
भर में 199 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या एक दर्जन
लोगों से भी कम है। गौरतलब है कि 1974 में आइसले ऑफ मैन
में नेड मैडरेल की मौत के साथ ही 'मैक्स’ भाषा खत्म हो
गई, जबकि वर्ष 2008 में अलास्का में मैरी स्मिथ जीन्स
के निधन से 'इयाक’भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया। दुनिया की एक तिहाई
भाषाएँ अफ्रीकी देशों में बोली जाती हैं, आकलन है कि अगली
सदी के दौरान इनमें से दस फीसदी खत्म हो जाएँगी। यूक्रेन में कराइम भाषा बोलने वाले
केवल छह लोग हैं, जबकि अमेरिका के ओकलाहामा में विशिता भाषा
केवल दस लोगों द्वारा बोली जाती है। इसी तरह इंडोनेशिया में लेंगिलू बोलने वाले
केवल चार लोग बचे हैं। 178 भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों
की संख्या 150 से कम हैं। वाकई बोलियाँ-भाषा क्यों विलुप्त हो रही हैं। यह
आपने आप में एक जटिल सवाल है। बकौल हिन्दी कवयित्री और लेखिका अनामिका, हम इस बात
की अवलेहना नहीं कर सकते कि भाषा और बोलियों को बचाने की शुरुआत घर से ही की जा
सकती है। हर परिवार में अलग-अलग पीढिय़ाँ होती है। यह जरूरी है कि अलग-अलग घरेलू बोलियों
में घर के अन्दर संवाद हो। बच्चों में लोक कथाओं के मिथक, लोकोक्तियाँ, माँ-दादी व
नानी की कहानियों के जरिए रूप लेती हैं। भाषाई संस्कृति का यह पूर्वराग ही अच्छी
भाषा के विकास का आधार है। इस पच्चीकारी से भाषा सहज, पैनी और
संवादगम्य होती है। भाषा-बोलियों को बचाने के लिए यह भी जरुरी है कि अनुवाद के
जरिए दो भाषिक संस्कृतियों के बीच पुल बनाया जाय। यदि हम आज की स्थितियों में
भारतीय परिप्रेक्ष्य को ही लें तो एक ओर अंग्रेजी का हौव्वा है तो दूसरी ओर हिन्दी
आम आदमी से कट रही है, वहीं उर्दू को मजहब से जोड़ दिया गया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य ने दो भाषायी परम्पराओं
को विकलांग बना दिया। यही नहीं आज की जबान में बोलियों के लफ्जों और कहावतों के
समंदर का उपयोग भी नहीं हैं, इससे भी भाषा कमजोर हुई है।भारत में
भी तेजी से खत्म हो रही भाषाओं और बोलियों को बचाने व संरक्षित करने के प्रयास तेज
हो गये हैं। केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल में बोलियों
को लेकर एक अध्ययन कराया गया, जिसमें पाया गया कि उत्तर भारत की नौ
बोलियाँ लगभग खत्म होने के कगार पर हैं। इनमें दर्मिया, जाद, राजी, चिनाली, गहरी, जंघूघ, स्पीति, कांशी या
मलानी और रोंगपो शामिल हैं। इन बोलियों को पाँच हजार से कम लोग ही बोलते हैं।
इनमें दर्मिया, जाद और राजी बोलियाँ तिब्बती-बर्मी परिवार की हैं, जो
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बोली जाती हैं। राजी को 668, दर्मिया को
लगभग ढाई हजार और जद को इससे कुछ अधिक ही लोग बोलते हैं। ये बोलियाँ उत्तरांखड में
पिथौरागढ़, धारचूला, जौलजीवी और अस्कोट में बोली जाती हैं। इसी
प्रकार उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ही बोली जाने वाली चिनाली और गहरी बोलियों
को बोलने वालों की संख्या भी मात्र दो-तीन हजार ही है। वाकई समय रहते यदि इनको
संरक्षित नहीं किया गया तो इन्हें खत्म होने में देरी नहीं लगेगी। इन बोलियों के
खत्म होने से वहाँ की संस्कृति भी खत्म हो रही है, इसलिए इनका संरक्षण
बेहद जरूरी है। ऐसे में इन
बोलियों को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिजर्वेशन ऑफ
इनडैंजर्ड लैंग्वेज योजना शुरू की है। इसके तहत तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं और
बोलियों से जुड़े दस्तावेजों को डिजिटल स्वरूप में संरक्षित किया जायेगा। इसके तहत
तमाम प्रतिष्ठित शैक्षणिक व शोध संस्थानों को इन बोलियों के संरक्षण की जिम्मेदारी
दी गयी हैं। इन नौ विलुप्त प्राय: बोलियों में से तीन बोलियों दर्मिया, जाद और
राजी (जंगली) के संरक्षण का दायित्व लखनऊ विश्वविद्यालय और दो बोलियों चिनाली व
गहरी के संरक्षण का काम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को सौंपा गया है। इसके अलावा
दो बोलियों को बचाने का जिम्मा सीआईआईएल मैसूर और एक-एक का कोलकाता और जेएनयू, नई दिल्ली
को दिया गया है। इनमें लखनऊ विश्वविद्यालय में भाषा विभाग की विभागाध्यक्ष
प्रो.कविता रस्तोगी और अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रो. इम्तियाज हसनैन के नेतृत्व
में काम होगा। डिजिटल स्वरूप में संरक्षित करने हेतु सर्वप्रथम लुप्त होती भाषाओं
व बोलियों की टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो रिकार्डिंग की जाएगी।
टेक्स्ट रिकार्डिंग के बाद बोलियों को इंटरनेशनल फोनेटिक्स अल्फाबेट्स (आईएफए) में
लिखा जाएगा ताकि विश्व के भाषा वैज्ञानिक इन्हें पढ़ सकें और बोली को समझ सकें।
आडियो रिकार्डिंग लाइब्रेरी में रखी जाएगी ताकि कोई भी इसको सुनकर समझ सके। वीडियो
रिकार्डिंग में इन लोगों की दिनचर्या, बोलियों की
संस्कृति और विशेष कार्यक्रमों को भी रिकार्ड किया जाएगा, ताकि
बोलियों के साथ-साथ उनकी संस्कृति को भी संरक्षित किया जा सके। इसी क्रम में केरल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं
के एक समूह ने भी तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं से जुड़े दस्तावेजों को डिजिटल
स्वरूप में संरक्षित करने के लिए परियोजना शुरू की है। वहाँ के भाषा विज्ञान विभाग
का भाषा विज्ञान अनुसंधान मंच बयारी, मलिजलाशांबा और
मइगुरदुने सहित 25 भाषाओं एवं बोलियों को संग्रहित कर चुका
है। इन भाषाओं को बोलने वाले अब केवल कुछ ही लोग बचे हैं। केरल की लुप्त होती
बोलियों के अलावा इस समूह ने हिमाचल प्रदेश की मंतलिया और पहाड़ी भाषाओं, झारखंड की
कुरमली और लद्दाख की पाली भाषा को भी रिकार्ड किया है। यहाँ के भाषा विज्ञान विभाग के तकनीकी अधिकारी एवं
परियोजना प्रमुख शिजित एस के निर्देशन में शिक्षकों के दल ने लुप्तप्राय भाषाओं के
बचे हुए वक्ताओं की तलाश में देश भर की यात्रा की और उसे रिकार्ड किया। इसके लिए
उन्होंने अंग्रेजी में एक प्रश्नमाला तैयार किया और उन लोगों से अपनी मूल भाषा में
इसका जवाब देने को कहा। इन 25 में से 15 भाषाओं के वक्ताओं
को स्टूडियो में लाकर भी उनकी बातें रिकार्ड की गई, ताकि इनका
डिजिटलीकरण आसानी से हो सके। वस्तुत: आज सवाल सिर्फ किसी भाषा के खत्म होने
का ही नहीं है, बल्कि इसी के साथ उस समुदाय और उससे जुड़ी कई तरह की
सांस्कृतिक विरासत के नष्ट होने का अहसास भी होता है। इन भाषाओं का इतिहास हजारों
वर्ष पुराना है। इनमें से कुछ एक तो कभी समृद्ध और शिष्ट साहित्य का विपुल भण्डार
मानी जाती थी कुछेक देशों ने इस खतरे को भाँपते हुए कदम भी उठाये हैं, नतीजन-ब्रिटेन
की भाषा कॉर्निश और न्यू कैलेडोनिया की भाषा को पहले खत्म हुआ मान लिया गया था
लेकिन अब इन्हें फिर से बोला जाने लगा है। भाषा विशेषज्ञों का कहना है कि भाषाएँ
किसी भी संस्कृति का आईना होती हैं और एक भाषा की समाप्ति का अर्थ है कि एक पूरी
सभ्यता और संस्कृति का नष्ट होना। इस तरफ सभी देशों को ध्यान देने की जरूरत है, अन्यथा
दुनिया अपनी सभ्यता, संस्कृति व समृद्ध विरासत को यूँ ही खोती
रहेंगी।
सम्पर्क:
निदेशक, डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र, टाइप 5, निदेशक
बंगला, जीपीओ कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद
(उ.प्र.)-211001, मो.08004928599, Email-
kkyadav.y@rediffmail.com
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