कौशल
किशोर मिश्र
चुनाव के
राजनीतिक मौसम में भारत के राजनीतिज्ञों, तथाकथित
बुद्धिजीवियों और समाचार माध्यमों के बीच चर्चा का एक प्रिय (किंतु भ्रामक) विषय
हुआ करता है- पिछड़ापन एक सुनियोजित भ्रम
को निरंतर तराशे जाने का षड्यंत्र स्थापित किया जा चुका है। स्वतंत्रता प्राप्ति
के पश्चात् तथाकथित अल्पसंख्यक वर्गों को स्वप्न बेचे जाने का क्रम प्रारम्भ हुआ
जो अभी तक चल रहा है। लोगों ने बड़ी ललक से अपना बहुमूल्य मत देकर सपनों को खऱीदा, वर्षों तक
उसे अपनी आँखों में रखकर सींचा... किन्तु सपनों से अंकुर नहीं निकले। वे ठगे जाते
रहे, सपनों के बीज बाँझ थे वे कभी नहीं उगे। भुने हुए
चने कभी नहीं उगते भारत को अभी यह सीखना होगा। सपने बेचे
जाने का यह व्यापार पिछले छह दशक से भी अधिक समय से चल रहा है। हम यह नहीं कहेंगे
कि देश के साथ कोई वञ्चना की गयी, वञ्चना एक-दो बार होती है बारम्बार नहीं
होती। खरीददार यदि सजग नहीं है तो उसके ठगे जाने की सम्भावनाएँ असीमित हो जाती हैं। तथापि सत्य यह भी है कि हमारी सजगता को कुन्द करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से
हमारे चिंतन और विश्लेषण की धरती पर अम्ल छिड़का जाता रहा है। लोकतंत्र के चालाक
व्यापारियों ने सपने बेचने के साथ-साथ हमारे मन-मस्तिष्क में पिछड़ापन और
अल्पसंख्यक जैसे अम्लीय शब्द भी ठूँस दिये। इन शब्दों ने हमारे मस्तिष्क की
उर्वरता को नष्ट करना शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप इन भ्रामक शब्दों ने एक
छद्मरूप ही धारण कर लिया है।हम जानना चाहते हैं कि स्वाधीन भारत के सातवें दशक में
कौन है पिछड़ा? कौन है अल्पसंख्यक? जब मैं
कहता हूँ कि सूरजमुखी के फूल का रंग पीला है तो सबको यह विश्वास हो जाता है कि
सूरजमुखी के फूल में पीला रंग है, उसकी पँखुडिय़ों को प्रकृति के द्वारा पीले
रंग से रंगा गया है । किसी को मेरे कथन की विश्वसनीयता पर संदेह नहीं होता; किन्तु
यही बात यदि किसी भौतिकशास्त्री से कही जाए तो सूरजमुखी के फूल का नाम सुनते ही जो
चित्र उसके मन में निर्मित होगा उसमें छह रंग तो होंगे पर पीला रंग नहीं होगा।
भौतिकशास्त्री एक तत्त्ववेत्ता है, उसे वास्तविकता पता
है कि किसी फूल का रंग वह नहीं होता जो हमें दिखाई देता है; बल्कि वह होता है जो वह पुष्प अवशोषित करता
है। किसी पुष्प का जो रंग हमें दिखाई देता है; वह तो उस पुष्प के द्वारा अस्वीकृत
कर दिया गया है, उसे वापस कर दिया गया है। हमारी आँखें जो रंग देख पाती हैं वह
पुष्प के द्वारा वापस किया हुआ रंग है। जो पुष्प के द्वारा स्वीकार किया गया है वह
तो समाहित हो गया पुष्प में, जो रंग पुष्प के अन्दर है वह किसी को दिखाई
नहीं देता, उसे तो बस तत्त्वज्ञानी ही देख पाते हैं। कहने का आशय यह है
कि किसी बात को कहने और उसे समझाने के तरीके में सोद्देश्य भिन्नता हो सकती है। आज
की छद्मराजनीति का यही मूल है । जब हम 'अल्पसंख्यक’और 'पिछड़ा’जैसे
शब्दों को उछालते हैं तो उसका उद्देश्य लोककल्याणकारी नहीं होता। यह
सर्वविदित है कि भारत की धरती पर विभिन्न जातियों और धर्मों के लोगों का शासन रहा
है। भारत के लोग दीर्घ काल तक पराधीन बने रहे।
पराधीनता के इस दीर्घ काल में
भारतीयों का विकास सम्भव नहीं था ...विकास नहीं हुआ। पूरे भारत के लोग विकास की
प्रतिस्पर्धा में शेष विश्व से पिछड़ते चले गये; क्योंकि अवसरों की अनुपलब्धता
सभी पराधीन भारतीयों के लिए एक समान थी। चन्द अवसरवादियों और देशद्रोहियों के
अतिरिक्त आम भारतीय विकास नहीं कर सका। इसलिए यदि 'पिछड़े’लोगों को चिह्नित
करना है तो सत्ताधीशों, व्यापारियों और उद्योगपतियों के अतिरिक्त
पूरे भारत को चिह्नित करना होगा। मैं यह
नहीं समझ पाया हूँ कि सामाजिक समानता और विकास की चिंता (?) के समय
हमारे विद्वान राजनीतिज्ञों द्वारा अवसरों की अनुपलब्धता के आधार पर 'वंचित’शब्द का
प्रयोग क्यों नहीं किया गया? और यदि 'पिछड़ा’शब्द से
इतना ही मोह था तो उसे वर्ग और जाति का चोला क्यों पहना दिया गया? क्या भारत
में कोई भी धर्मावलम्बी है ऐसा जो कह सके कि उसके धर्म को मानने वालों में एक भी
व्यक्ति 'वञ्चित’नहीं है या विकास में पीछे नहीं है ? क्या भारत
में कोई भी जाति ऐसी है जो कह सके कि उसकी जाति में एक भी व्यक्ति 'वञ्चित’नहीं है या
विकास में पीछे नहीं है ? इन सारी चर्चाओं के समय सवर्णों की स्थिति
के बारे चर्चा नहीं की जाती। बिना किसी संधान और प्रमाण के यह माना जाता रहा है कि
सवर्ण विकसित हो चुके हैं और अब उन्हें आगे विकसित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह पक्षपात पूर्ण कुविचार वर्गभेद और सामाजिक विषमता को कैसे समाप्त कर सकेगा यह
मैं आज तक समझ नहीं सका हूँ। वर्गविशेष को योग्यता और पात्रता में शिथिलता के साथ
प्रश्रय देना वर्गभेद का एक अंतहीन चक्र है जिसमें कभी एक ऊपर होगा तो कभी दूसरा। स्वाधीनता
के बाद विकास के विषय पर समग्र समाज की बात कभी क्यों नहीं की गयी, यह
विचारणीय विषय है। बड़ी धूर्तता से खण्डित
समाज की बात की जाती रही और समाज में खाइयाँ खोदी जाती रहीं। मुझे किसी ने बताया
है कि भारत में एक मात्र बिल्हौर संसदीय क्षेत्र ही ब्राह्मणबहुल है, किंतु वहाँ
के ब्राह्मण भी विकास में अन्य लोगों की तरह ही पीछे हैं । उनके लिए कभी नहीं सोचा
गया कि उन्हें भी पिछड़ा घोषित किया जाए। क्यों, क्या कोई सवर्ण
विकास में पीछे नहीं हो सकता? राजधर्म तो
बिना किसी भेदभाव के हर नागरिक को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए राजा को
प्रतिबद्ध करता है।यद्यपि
आर्यावर्त में कभी वर्गआधारित राजसत्ताएँ नहीं रहीं, यह तो कुशल नेतृत्व
की योग्यता के आधार पर तय होता था कि सत्तानायक कौन होगा। किन्तु जब सत्तानायक की
बात आती है तो प्राय: ब्राह्मण इस योग्यता में खरे नहीं उतर सके। सच तो यह है कि बहुत
कम ब्राह्मण राजा बने हैं । भारत की ब्राह्मणेतर जातियों के लोग ही प्राय: राजा हुए
हैं या राजसत्ता में मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं । अब एक स्वाभाविक सा प्रश्न यह
उठता है कि जिनके हाथो में सत्ता रही उनके लोग भी विकास में पीछे क्यों रह गये ? एक दीर्घ
अवधि तक भारत पर मुसलमानों का शासन रहा, फिर भी आज मुसलमान
पिछड़े हुए क्यों हैं? वे कौन लोग हैं जो मुसलमानों के सत्ता में
होते हुए भी मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं? हम उस समुदाय
को पिछड़ा कैसे कह सकते हैं; जिसके लोग भारत के राष्ट्रपति रह चुके हों और जो पूरे
भारत के लिए सम्मान के पात्र हों ? पिछड़ेपन की छद्म
परिभाषा को ...अल्पसंख्यक की छद्म परिभाषा को निरस्त करना होगा। नयी परिभाषाएँ ही
देश को नयी दिशा में ले जा सकेंगी जिसके लिए देश के नागरिक प्रतीक्षारत हैं। हमें इन
सारी बातों पर पुन: विचार करना होगा। हमें वर्षों के रचे छद्म को तोड़ कर सत्य को
अनावृत्त करना होगा। वास्तविकता यह है कि हर धर्म और हर जाति में कुछ लोग समृद्ध
हैं, कुछ लोग विकास में पीछे हैं, कुछ लोग बहुत पीछे
हैं। भारत में प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों और सभी जातियों के लोग उच्च पदों तक
पहुँच कर कार्यरत हुए हैं, उनके समुदायों के लोग संत के रूप में पूज्य
होते रहे हैं, वैज्ञानिक बने हैं, प्रबन्धक बने
हैं... राजनीतिज्ञ बने हैं। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर आरक्षण की बैसाखियों पर चल
कर आगे नहीं बढ़े। यह वही भारत है जहाँ शाक्य मुनि गौतम, कबीर, ज्योति बा फुले
आदि समाज में सभी के लिए पूज्य और सम्मानित हुए हैं।भारत के
लोगों को यह समझना होगा कि किसी भी जाति विशेष का विकास आरक्षण के आधार पर किया जा
सकना सम्भव नहीं। विश्व के किसी भी देश में आरक्षण जैसा कोई कुविचार विकसित नहीं
हुआ। आरक्षण एक अप्राकृतिक सामाजिक अव्यवस्था है जो समाज में विषमता और बौद्धिक
शोषण का आधार बन कर उभरी है। यह दु:ख और चिंता का विषय है कि लोग आरक्षण की
पात्रता के लिए नये-नये समुदायों को सम्मिलित करने के लिए माँग और आन्दोलन करते
हैं । नये-नये अल्पसंख्यक पैदा हो रहे हैं, जबकि अब तक तो
इन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाना चाहिए था। 'अल्पसंख्यक’का यह
विषैला विचारवृक्ष कब तक पल्लवित होता रहेगा?
जब हम
सामाजिक समानता और समरसता की बात करते हैं तो हर नागरिक के लिए एक जैसी राष्ट्रीय
नीति की आवश्यकता होनी चाहिए न कि समाज के किसी खण्ड विशेष के लिए पृथक् नीति की? जब हम
वैश्विक स्तर पर बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में सामने आते हैं तो हमें अपनी बौद्धिक
दक्षता के प्रदर्शन की आवश्यकता होनी चाहिए न कि किसी बौद्धिक शिथिलता की? विकास में
किसी प्रकार की शिथिलता का कोई स्थान नहीं
होता, यह प्रकृति का विधान है इसका उल्लघंन भारतीय समाज के लिए अभिशाप
का कारण बन गया है। हमारे
राजनेताओं के व्यक्तिगतहित खण्डितसमाज के खण्डितहितों के भ्रमजाल में सुरक्षित हैं। आज मुस्लिम हितों, दलित हितों, अनुसूचित जाति
हितों, अनुसूचित जनजाति हितों की खण्डित चर्चा की जाती है। खण्डितहितों
के विरोध को बड़ी धूर्तता से साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया है। समग्र भारतीयसमाज
के हितों का चिंतन करने वाले राष्ट्रवादी विचारकों का अभाव-सा हो गया है। सामाजिक
विषमता के गर्तों को पाटने के नाम पर गर्तों को और भी गहरा करने काम कब तक चलता
रहेगा? यह भारत प्रतीक्षा कर रहा है उस शुभ दिन की जब खण्डितहितों और
खण्डितसमाज की नहीं बल्कि समग्र समाज को एक साथ लेकर चलने की चर्चा की जाएगी। हर
भारतीय के लिए एक जैसे कानून होंगे, एक जैसे अवसर होंगे
और विकास की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को
सुस्थापित किया जा सकेगा ।
सम्पर्क-
शासकीय कोमलदेव जिला चिकित्सालय, कांकेर, उत्तर बस्तर (छग) 494334, Email-
kaushalblog@gmail.com
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