भोर शरद् की
- डॉ. बच्चन पाठक सलिल
भोर
शरद की
उतर
रही है
धरती
पर धीरे धीरे
मानो
कोई नव परिणीता
पति-गृह
में सकुचाती आती।
किरणों
की डोली में बैठी
जिसके
कहार ये तारक सारे
और
आसमान का बूढ़ा चाँद
करुण
दृष्टि से ताक रहा है
पर
घर जाती निज दुहिता को।
तुहिन
पट आवृत्त छलकती आँखें
अंतर
में है छिपा एक कौतूहल,
जिसमे
भय है, विस्मय
भी।
अब
आलोक निखर आया है
पंछी
गाते मंगल गान
इस
समष्टि का हो कल्याण।
नाच
रही है सारी धरणी
विहँस
रही है यह पुष्करिणी
घर
से निकले सब नर- नारी
शुचिस्मिता
के अभिनन्दन में
आओ, आओ, आओ
शरद
सुहागिन आओ ।
लेखक
के बारे में: वरिष्ठ साहित्यकार, कवि, कथाकार, व्यंग्यकार डॉ बच्चन पाठक 'सलिल’ रांची विश्व विद्यालय
के अवकाश प्राप्त पूर्व हिंदी प्राचार्य हैं। स्नेह के आँसू, धुला आँचल, सेमर के फूल, मेनका के आँसू (उपन्यास)
तथा कई काव्य एवं कहानी संग्रह प्रकाशित।
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