अब न तो वैसे मेहमान रहे और न ही वैसे मेजबान। किसी ने खाया अथवा किसी ने नहीं खाया, इस बात को लेकर आज कोई मेजबान परेशान नहीं होता। खाया तो ठीक, नहीं खाया तो और भी ठीक।
- गजेन्द्र तिवारी
किस परेशानी में पड़े हुए हैं प्रोफेसर? ... आप तो इस तरह घबरा रहे हैं जैसे आपको लड़ाई के मैदान में जाना हो। किशोरीलाल ने कहा।
लड़ाई के मैदान में जाना होता तो मैं न घबराता दरअसल, एक स्वरुचि भोज (बफे डिनर) में जाना है, उसी की याद कर पसीने छूट रहे हैं। प्रोफेसर ने कहा, अभी चार दिन पहले ऐसे ही एक डिनर के दौरान हुए हादसे से अभी तक हमारा सूट उबर नहीं पाया है। ड्राईक्लीनर के यहां पड़ा आहें भर रहा है।
तो फिर इस बार क्या इरादा है आपका? किशोरीलाल ने छेड़ते हुए कहा। गोल मार जाइए।... इतनी भीड़ रहती है। कौन कितना याद रखेगा कि कौन आया और कौन नहीं।
अरे नहीं यार किशोरीलाल। प्रोफेसर ने कहा, रिलेशंस ऐसे हैं महरोत्रा साहब के साथ कि नहीं जाऊंगा तो बुरा मान जाएंगे और जिंदगी भर उलाहने देते रहेंगे।
तो ऐसा करो न। किशोरीलाल ने मध्यमार्ग सुझाते हुए कहा, किसी के हाथ से सगुन का लिफाफा भिजवा दो, जाने की जहमत से भी बच जाओगे और काम भी हो जाएगा। ... और हां, एक और सूट बोलोराम होने से बच जाएगा। क्यों, ठीक कह रहे हैं न हम?
ठीक तो कह रहे हो किशोरीलाल, लेकिन वैसा हो नहीं सकता। आज ही महरोत्रा साहब का फोन आया था। खास आग्रह किया है उन्होंने और कहा है कि वे मेरा राह देखेंगे। प्रोफेसर ने कहा, जाना ही होगा किशोरीलाल। होनी को कौन टाल सकता है?
स्वरूचि भोजों का आजकल जो स्वरूप हो गया है, उसे देखते हुए यही कहना होगा कि सीधे और सज्जन व्यक्ति के बस का रोग नहीं गया है यह बफे डिनर। अब तो ऐसे भोजों में बाहुबलियों की चलती है। जो शख्स आक्रामक मुद्रा नहीं अपना सकता, वह ऐसे डिनरों में रसगुल्ला तो दूर, टमाटर का एक टुकड़ा तक नहीं पा सकता।
एक वह भी समय था, जब लोग अपने मेहमानों को इसरार कर- कर के खाना खिलाते थे और मेहमान संकोचवश 'ना-ना' करता रहता था। प्रोफेसर ने कहा, अब न तो वैसे मेहमान रहे और न ही वैसे मेजबान। किसी ने खाया अथवा किसी ने नहीं खाया, इस बात को लेकर आज कोई मेजबान परेशान नहीं होता। खाया तो ठीक, नहीं खाया तो और भी ठीक।
दरअसल, होता यह है कि इंतजाम तो किया जाता है पांच सौ लोगों के लिए और निमंत्रित किया जाता है पांच हजार लोगों को। ऐसे में मारामारी और अफरातफरी नहीं मचेगी तो और क्या होगा? किशोरीलाल ने कहा।
हम तो कहेंगे कि इन बफे डिनरों के कारण व्यक्ति अपनी सभ्यता और शिष्टता तक को भूलने लग गया है। एक से एक पढ़ेलिखे और एक से बढ़कर एक आभिजात्य वर्ग के लोग भोजन के स्टालों पर यूं टूट पड़ते हैं मानो कि कई बरसों के अकाल-पीडि़त हों। किशोरीलाल ने कहा, तहज़ीब और भलमनसाहत और नज़ाकत जैसी बातों की परवाह किसी को नहीं रहती। सबका एकसूत्रीय कार्यक्रम रहता है- कैसे भर प्लेट भोज्य सामग्री 'लूट' लें ताकि भरपेट छकने का जुगाड़ हो सके।
आजकल यहां तक दरिद्रता पर उतारू हो गए हैं कि हमारे समाज के नामी गिरामी कहलाने वाले लोग मेजबान द्वारा भोजन के लिए अनुरोध किए जाने तक ही परवाह नहीं करते। अब तो बस पंडाल में घुसो और धक्कामुक्की करते हुए प्लेट भरो और पेट भरो अभियान में शामिल हो जाओ। कुछ लोग तो यह योजना बनाकर आते हैं कि आज किस आइटम के बारह बजाने हैं। कुछ चीजें ऐसी होती हैं भोजों में, जिन पर अक्सर ही भोजन भट्टों का कहर टूटता है। जैसे रसगुल्ला, राजभोग, आइसक्रीम।
सामने वाला कितना ही बढिय़ा इंतजाम क्यों न करे, उसके परखच्चे उड़ा देने में कतिपय नामचीन लोग, जो कि हर जगह पाए जाते हैं, बड़े माहिर होते हैं इन्हीं के विपरीत ऐसे लल्लू लोग भी होते हैं, जो अव्वल तो रसगुल्ले के कटोरे तक पहुंच भी नहीं सकेंगे और यदि खुशकिस्मती से पहुंच भी गए तो एक पीस लेकर ही तौबा कर लेंगे। किशोरीलाल ने अफसोस प्रकट करते
हुए कहा।
मेरी तो यह समझ में नहीं आता कि एक से बढ़कर एक समझदार लोग प्लेटें भर भरकर वहीं स्टालों से चिपके हुए खड़े क्यों रहते हैं। प्रोफेसर ने कहा, अरे भाई, भर गई प्लेट, अब तो पिंड छोड़ो और दूसरों को मौका दो।
वे लोग मोर्चा संभाले जमे रहते हैं ताकि कोई दुश्मन कोई और चौकी पर कब्जा न कर ले। किशोरीलाल ने कहा, मोर्चे से हटना वैसे ही हम भारतीयों की शान के खिलाफ बात है।
इन भोजों में स्टालों पर भगदड़ और आपाधापी का जो माहौल देखने में आता है, उसे देखते हुए इन्हें 'गिद्ध भोज' की संज्ञा ठीक ही दी गई है। वैसे ही चीख पुकार, वैसी ही धमाचौकड़ी। दरअसल, बफे डिनर का रूप इन दिनों इतना भयावह हो गया है कि अपने प्रोफेसर जैसे अनेक लोग अब इन डिनरों में जाने के नाम से ही थरथर कांपने लगते हैं।
ऐसे ही भयभीत और डरपोक लोगों की सहायता के लिए डीएएस वाले पैकेज प्रोग्राम लेकर आए हैं। किशोरीलाल ने रहस्योद्घाटन किया, 'डीएएस' यानी 'डिनर असिस्टेंस सर्विस' यानी अपनी प्यारी हिंदी भाषा में 'भोज सहायक सेवा।' हमारे शहर के उत्साही नौजवानों का स्वयंसेवी संगठन है यह, जो नाम मात्र के सेवा-शुल्क पर अपनी सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।
अरे! ऐसा है क्या? प्रोफेसर ने अचरज से कहा, कब बन गई इस प्रकार की संस्था? किन लोगों ने बनाई? और ये किस प्रकार सहायता करते हैं?
सेवाभावी लोगों की अपने यहां कमी नहीं है प्रोफेसर, किशोरीलाल ने कहा। आप जैसे शरीफ लोगों की व्यथा इनसे देखी नहीं जाती इसलिए इन लोगों ने बकायदा एक संगठन बना लिया, जिसका महान धार्मिक उद्देश्य ही है आप जैसे जरूरतमंदों की सेवा करना और वह भी नाममात्र के सेवा शुल्क पर।
लेकिन ये करते क्या हैं? इनकी कार्यप्रणाली कैसी हैं? प्रोफेसर ने सवाल दागे।
आप डिनर पर जाना चाहते हैं लेकिन जाने से डरते भी हैं। ऐसे ही भोज-भीरुओं के लिए फरिश्ते बनकर प्रकट हुए हैं डीएएस के महाबली। किशोरीलाल ने कहा, आपको बस इतना करना है कि इन्हें स्थान, समय और तारीख की सूचना भर देनी है। इसके आगे की जवाबदारी इनकी। ये आएंगे और आपको अपनी अभिरक्षा में ले लेंगे फिर, निर्धारित स्थल पर आपको ले जाएंगे। आपके आगे-पीछे, दाएं-बांए अंगरक्षकों की तरह ये आपके साथ रहेंगे और तलवारें भांजते हुए आपको भोजन के स्टालों की ओर ले जाएंगे।
बस-बस! हम समझ गए। प्रोफेसर ने कहा, उन्हें बुला लो किशोरीलाल। उनको शुल्क क्या देना होगा? अरे, आप जो रकम लिफाफे में देने वाले हैं, उसका पचास प्रतिशत मात्र, किशोरीलाल ने कहा और डीएएस का फोन नंबर मिलाने लगा।
किस परेशानी में पड़े हुए हैं प्रोफेसर? ... आप तो इस तरह घबरा रहे हैं जैसे आपको लड़ाई के मैदान में जाना हो। किशोरीलाल ने कहा।
लड़ाई के मैदान में जाना होता तो मैं न घबराता दरअसल, एक स्वरुचि भोज (बफे डिनर) में जाना है, उसी की याद कर पसीने छूट रहे हैं। प्रोफेसर ने कहा, अभी चार दिन पहले ऐसे ही एक डिनर के दौरान हुए हादसे से अभी तक हमारा सूट उबर नहीं पाया है। ड्राईक्लीनर के यहां पड़ा आहें भर रहा है।
तो फिर इस बार क्या इरादा है आपका? किशोरीलाल ने छेड़ते हुए कहा। गोल मार जाइए।... इतनी भीड़ रहती है। कौन कितना याद रखेगा कि कौन आया और कौन नहीं।
अरे नहीं यार किशोरीलाल। प्रोफेसर ने कहा, रिलेशंस ऐसे हैं महरोत्रा साहब के साथ कि नहीं जाऊंगा तो बुरा मान जाएंगे और जिंदगी भर उलाहने देते रहेंगे।
तो ऐसा करो न। किशोरीलाल ने मध्यमार्ग सुझाते हुए कहा, किसी के हाथ से सगुन का लिफाफा भिजवा दो, जाने की जहमत से भी बच जाओगे और काम भी हो जाएगा। ... और हां, एक और सूट बोलोराम होने से बच जाएगा। क्यों, ठीक कह रहे हैं न हम?
ठीक तो कह रहे हो किशोरीलाल, लेकिन वैसा हो नहीं सकता। आज ही महरोत्रा साहब का फोन आया था। खास आग्रह किया है उन्होंने और कहा है कि वे मेरा राह देखेंगे। प्रोफेसर ने कहा, जाना ही होगा किशोरीलाल। होनी को कौन टाल सकता है?
स्वरूचि भोजों का आजकल जो स्वरूप हो गया है, उसे देखते हुए यही कहना होगा कि सीधे और सज्जन व्यक्ति के बस का रोग नहीं गया है यह बफे डिनर। अब तो ऐसे भोजों में बाहुबलियों की चलती है। जो शख्स आक्रामक मुद्रा नहीं अपना सकता, वह ऐसे डिनरों में रसगुल्ला तो दूर, टमाटर का एक टुकड़ा तक नहीं पा सकता।
एक वह भी समय था, जब लोग अपने मेहमानों को इसरार कर- कर के खाना खिलाते थे और मेहमान संकोचवश 'ना-ना' करता रहता था। प्रोफेसर ने कहा, अब न तो वैसे मेहमान रहे और न ही वैसे मेजबान। किसी ने खाया अथवा किसी ने नहीं खाया, इस बात को लेकर आज कोई मेजबान परेशान नहीं होता। खाया तो ठीक, नहीं खाया तो और भी ठीक।
दरअसल, होता यह है कि इंतजाम तो किया जाता है पांच सौ लोगों के लिए और निमंत्रित किया जाता है पांच हजार लोगों को। ऐसे में मारामारी और अफरातफरी नहीं मचेगी तो और क्या होगा? किशोरीलाल ने कहा।
हम तो कहेंगे कि इन बफे डिनरों के कारण व्यक्ति अपनी सभ्यता और शिष्टता तक को भूलने लग गया है। एक से एक पढ़ेलिखे और एक से बढ़कर एक आभिजात्य वर्ग के लोग भोजन के स्टालों पर यूं टूट पड़ते हैं मानो कि कई बरसों के अकाल-पीडि़त हों। किशोरीलाल ने कहा, तहज़ीब और भलमनसाहत और नज़ाकत जैसी बातों की परवाह किसी को नहीं रहती। सबका एकसूत्रीय कार्यक्रम रहता है- कैसे भर प्लेट भोज्य सामग्री 'लूट' लें ताकि भरपेट छकने का जुगाड़ हो सके।
आजकल यहां तक दरिद्रता पर उतारू हो गए हैं कि हमारे समाज के नामी गिरामी कहलाने वाले लोग मेजबान द्वारा भोजन के लिए अनुरोध किए जाने तक ही परवाह नहीं करते। अब तो बस पंडाल में घुसो और धक्कामुक्की करते हुए प्लेट भरो और पेट भरो अभियान में शामिल हो जाओ। कुछ लोग तो यह योजना बनाकर आते हैं कि आज किस आइटम के बारह बजाने हैं। कुछ चीजें ऐसी होती हैं भोजों में, जिन पर अक्सर ही भोजन भट्टों का कहर टूटता है। जैसे रसगुल्ला, राजभोग, आइसक्रीम।
सामने वाला कितना ही बढिय़ा इंतजाम क्यों न करे, उसके परखच्चे उड़ा देने में कतिपय नामचीन लोग, जो कि हर जगह पाए जाते हैं, बड़े माहिर होते हैं इन्हीं के विपरीत ऐसे लल्लू लोग भी होते हैं, जो अव्वल तो रसगुल्ले के कटोरे तक पहुंच भी नहीं सकेंगे और यदि खुशकिस्मती से पहुंच भी गए तो एक पीस लेकर ही तौबा कर लेंगे। किशोरीलाल ने अफसोस प्रकट करते
हुए कहा।
मेरी तो यह समझ में नहीं आता कि एक से बढ़कर एक समझदार लोग प्लेटें भर भरकर वहीं स्टालों से चिपके हुए खड़े क्यों रहते हैं। प्रोफेसर ने कहा, अरे भाई, भर गई प्लेट, अब तो पिंड छोड़ो और दूसरों को मौका दो।
वे लोग मोर्चा संभाले जमे रहते हैं ताकि कोई दुश्मन कोई और चौकी पर कब्जा न कर ले। किशोरीलाल ने कहा, मोर्चे से हटना वैसे ही हम भारतीयों की शान के खिलाफ बात है।
इन भोजों में स्टालों पर भगदड़ और आपाधापी का जो माहौल देखने में आता है, उसे देखते हुए इन्हें 'गिद्ध भोज' की संज्ञा ठीक ही दी गई है। वैसे ही चीख पुकार, वैसी ही धमाचौकड़ी। दरअसल, बफे डिनर का रूप इन दिनों इतना भयावह हो गया है कि अपने प्रोफेसर जैसे अनेक लोग अब इन डिनरों में जाने के नाम से ही थरथर कांपने लगते हैं।
ऐसे ही भयभीत और डरपोक लोगों की सहायता के लिए डीएएस वाले पैकेज प्रोग्राम लेकर आए हैं। किशोरीलाल ने रहस्योद्घाटन किया, 'डीएएस' यानी 'डिनर असिस्टेंस सर्विस' यानी अपनी प्यारी हिंदी भाषा में 'भोज सहायक सेवा।' हमारे शहर के उत्साही नौजवानों का स्वयंसेवी संगठन है यह, जो नाम मात्र के सेवा-शुल्क पर अपनी सेवाएं उपलब्ध कराते हैं।
अरे! ऐसा है क्या? प्रोफेसर ने अचरज से कहा, कब बन गई इस प्रकार की संस्था? किन लोगों ने बनाई? और ये किस प्रकार सहायता करते हैं?
सेवाभावी लोगों की अपने यहां कमी नहीं है प्रोफेसर, किशोरीलाल ने कहा। आप जैसे शरीफ लोगों की व्यथा इनसे देखी नहीं जाती इसलिए इन लोगों ने बकायदा एक संगठन बना लिया, जिसका महान धार्मिक उद्देश्य ही है आप जैसे जरूरतमंदों की सेवा करना और वह भी नाममात्र के सेवा शुल्क पर।
लेकिन ये करते क्या हैं? इनकी कार्यप्रणाली कैसी हैं? प्रोफेसर ने सवाल दागे।
आप डिनर पर जाना चाहते हैं लेकिन जाने से डरते भी हैं। ऐसे ही भोज-भीरुओं के लिए फरिश्ते बनकर प्रकट हुए हैं डीएएस के महाबली। किशोरीलाल ने कहा, आपको बस इतना करना है कि इन्हें स्थान, समय और तारीख की सूचना भर देनी है। इसके आगे की जवाबदारी इनकी। ये आएंगे और आपको अपनी अभिरक्षा में ले लेंगे फिर, निर्धारित स्थल पर आपको ले जाएंगे। आपके आगे-पीछे, दाएं-बांए अंगरक्षकों की तरह ये आपके साथ रहेंगे और तलवारें भांजते हुए आपको भोजन के स्टालों की ओर ले जाएंगे।
बस-बस! हम समझ गए। प्रोफेसर ने कहा, उन्हें बुला लो किशोरीलाल। उनको शुल्क क्या देना होगा? अरे, आप जो रकम लिफाफे में देने वाले हैं, उसका पचास प्रतिशत मात्र, किशोरीलाल ने कहा और डीएएस का फोन नंबर मिलाने लगा।
.......................................................
गजेन्द्र तिवारी वकील हैं और बागबहरा छत्तीसगढ़ में रहते हैं। उनकी प्रमुख विधा व्यंग्य है। उनके तीन व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में 900 से अधिक रचनाएं जिनमें कविता, कहानी, समीक्षाएं शामिल हैं छप चुकी हैं। उनका पता है- अधिवक्ता, प्रमुख पथ, बागबहरा (महासमुन्द) छ.ग. टेलीफोन नं. 07702-242482
No comments:
Post a Comment