- सूरज प्रकाश
दुनिया भर के साहित्य में ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिलते हैं जब लेखकों ने एक से अधिक भाषाओं में रचनाएँ कीं या अपनी मातृभाषा से इतर भाषा में लिखा। ऐसे भी उदाहरण में मिलते हैं जब लेखक ने पढ़ाया तो एक भाषा में और रचना दूसरी भाषा में कीं। अविभक्त हिंदुस्तान में कई राज्यों में कहीं उर्दू ,तो कहीं पंजाबी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती थी। इसका नतीजा ये हुआ कि बहुत से पंजाबी भाषी लेखक उर्दू में लिखते रहे। भारत के पंजाब में और पाकिस्तान के पंजाब में खासकर लाहौर में बहुत सारे रचनाकार ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा पंजाबी है; लेकिन वह रचना उर्दू में करते हैं। बंगाल, गुजरात और बिहार में भी उर्दू में लिखने वाले रहे। ऐसे सभी लेखकों की सूची देना संभव नहीं है; लेकिन ऐसे कुछ लेखकों के बारे में जानना रुचिकर होगा।
• उपेन्द्रनाथ अश्क हिंदी, पंजाबी और उर्दू में लिखते थे।
• कृश्न चंदर कश्मीरी थे; लेकिन उर्दू और हिंदी में लिखते थे।
• कोनराड जोसेफ पोलिश लेखक थे लेकिन इंग्लैंड में बसने के बाद लेखन अंग्रेजी में करते रहे।
• गुलज़ार की मातृभाषा हालाँकि पंजाबी है, वे उर्दू में लिखते हैं।
• गोविंद मिश्र शुरू- शुरू में अंग्रेजी पढ़ाते रहे; लेकिन लिखते हिंदी में ही रहे।
• देवेन्द्र सत्यार्थी कई भाषाएँ जानते थे और पंजाबी तथा हिंदी में लिखते थे।
• नागार्जुन भी कई भाषाएँ जानते थे और मैथिली में भी रचनाएँ कीं।
फ़िराक गोरखपुरी |
• निराला जी ने शुरुआती कविताएँ बांग्ला में लिखी थीं।
• प्रेमचंद पहले उर्दू में लिखते रहे और बाद में हिंदी में लिखने लगे।
• फ़िराक गोरखपुरी अंग्रेजी के अध्यापक थे और उनका सारा लेखन उर्दू में है जबकि भीष्म साहनी अंग्रेजी पढ़ाते
थे, लेकिन हिंदी में लिखते रहे।
• भुवनेश्वर हिंदी के लेखक थे, लेकिन उनकी अंग्रेजी कविताएँ उत्कृष्ट मानी जाती हैं।
• माइकल मधुसूदन दत्त बांग्ला के अलावा संस्कृत, तमिल, ग्रीक, लेटिन, फ्रेंच और अंग्रेजी जानते थे। वे कई भाषाओं में एक साथ डिक्टेशन दे सकते थे।
• मिलान कुंडेरा फ्रेंच और चेक भाषा में लिखते थे।
• राजकमल चौधरी मैथिली और हिंदी दोनों भाषाओं के रचनाकार थे, इसी तरह अमृता प्रीतम और गुरदयाल सिंह हिंदी और पंजाबी में लिखते रहे।
• राजिन्दर सिंह बेदी उर्दू में लिखते थे।
• राही मासूम रज़ा उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं में लिखते थे।
• राहुल सांकृत्यायन कई भाषाएँ जानते थे और उनमें लिखते भी थे और अनुवाद भी करते थे।
• लोलिता के लेखक नबोकोव जन्म से रूसी थे और बाद में जर्मनी, इंग्लैंड और बाद में अमेरिका में जा बसे। ललिता 1955 में अंग्रेजी में लिखा गया था और बाद में उसका रूसी में अनुवाद हुआ।
• वेद राही और पद्मा सचदेव डोगरी और हिंदी के रचनाकार हैं।
• सैमुअल बैकेट आयरिश लेखक थे और फ्रेंच औरन अंग्रेजी में भी लिखा।
• हरिवंशराय बच्चन अंग्रेजी में पीएचडी थे; लेकिन हिंदी में ही लिखते रहे।
मरने के बाद लेखन में प्रसिद्धि
कहा जाता है कि प्रसिद्धि चाहने से नहीं मिला करती लेकिन यह भी सच है कि प्रसिद्धि अगर मिलनी होगी तो आप प्रसिद्ध होकर ही रहेंगे। बेशक यह प्रसिद्धि मृत्यु के बाद ही मिले। दुनिया भर के साहित्य में ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिलते हैं जब लेखकों को उनके लेखन के जरिए उनकी मृत्यु के बाद ही पहचाना गया। कई लेखक ऐसे रहे, जिन्हें अपने जीते जी लेखन में जगह बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा तो कइयों के मामले में दूसरे कारण काम करते रहे। उन्हें अपनी मृत्यु के बाद और कई मामलों में बहुत देर बाद उनके लेखन को प्रसिद्धि मिली।
मुक्तिबोध |
हिंदी में भी ऐसे लेखक रहे हैं जो जीते जी अपने लेखन के कारण पहचान नहीं बना सके या हमेशा उपेक्षित ही माने गये। लेकिन मृत्यु के बाद वे अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकार माने गये। इस सूची में सबसे पहला नाम मुक्तिबोध का आता है। बेशक अपने जीते जी अपनी रचनाओं और अपनी अलग सोच के कारण वे साहित्य में अपनी जगह बनाने लगे थे और उनकी एक डायरी भी छपी थी; लेकिन वे मृत्यु के बाद ही साहित्य में अपनी स्थायी जगह बना पाए। उनका सही मूल्यांकन हुआ।
भुवनेश्वर ऐसे दूसरे रचनाकार रहे जिनके जीते ही उनका कोई नाटक नहीं छपा; लेकिन उनकी रचनाएँ उनकी मृत्यु के बाद भी सामने आईं और बाद वाली पीढ़ियां देख कर दंग रह गयीं कि कितना समर्थ रचनाकार अपने समय में अपनी जगह न बना सका और समकालीनों द्वारा हद दर्जे तक उपेक्षित हुआ। हालाँकि आज तक उनका सही मूल्यांकन नहीं हो पाया है।
ऐन फ्रेंक एक ऐसी लड़की रही कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अज्ञातवास में लिखी गई उसकी डायरी संयोग से ही उसकी अकाल मृत्यु के बाद सामने आई और बाइबल के बाद दूसरे नंबर पर पढ़ी जाने वाली रचना मानी जाती है।
फ्रांज काफ्का का छिटपुट लेखन विषय उनके जीते जी छपने लगा था। वे अपने पीछे ढेर सारी पांडुलिपियाँ छोड़कर गए थे। उन्होंने अपने दोस्त से कहा था कि मेरे मरने के बाद मेरी सारी पांडुलिपियाँ जला दी जाएँ। दोस्त ने काफ्का की अंतिम इच्छा की परवाह नहीं की और हम देखते हैं कि वे अपने पीछे कितना विपुल और महत्त्वपूर्ण साहित्य छोड़ कर गए हैं।
जॉन कैनेडी टूल ने अपनी आत्महत्या से पहले अपनी एक पांडुलिपि बेचने की कोशिश की थी; लेकिन सफल नहीं हुए थे। उनकी मृत्यु के 11 बरस बाद उनकी माँ और मित्रों ने वह किताब छपवाई, तब पता चला कि वह कितना बड़ा काम करके गए हैं।
हैनरी डेविड थोरी जंगल में रहा करते थे। वे ज्यादातर समय अकेले जंगलों में रहे। मृत्यु के बाद बेहद वे लोकप्रिय लेखक माने जाते हैं।
एमिला डिकिन्सन कभी भी अपने कमरे से बाहर नहीं निकलीं। जीते जी उन्होंने कुछ कविताएँ छपवाई थीं; लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार को उनकी रद्दी में ढेरों कविताएँ और अन्य रचनाएँ मिलीं। उनकी रचनाएँ उनकी मृत्यु के कई बरसों के बाद छपवाई जा सकी थीं। तभी पता चला था कि वे इतना बड़ा काम छोड़ कर गई हैं।
एडिथ होल्डन ने भी जीते जी कुछ कविताएँ बेशक छपवाई थीं। बाद में टेम्स नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली थी; लेकिन उनकी मृत्यु के बाद जब उनके कागज खँगाले गए, तो पता चला कि वे कितना काम छोड़ कर गई थीं।
सिल्विया प्लैथ ने भी अपना उपन्यास प्रकाशित होते ही आत्महत्या कर ली थी; लेकिन उनकी मृत्यु के बाद जब उनके पति ने उनका कविता संग्रह छपवाया तो वह मिसाल बन गया।
एडगर एलन पो जीवन भर अपने साहित्य के बल पर नाम कमाने के लिए संघर्षरत रहे। गरीबी में जिए और गरीबी में मरे, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद ही उनका काम सामने आ पाया।
राजकमल चौधरी बेशक मैथिली और हिंदी के बड़े रचनाकार हैं लेकिन जीते जी उन्हें कोई अहमियत नहीं दी गई उनका सारा काम उनकी मृत्यु के बाद ही सामने आ पाया।
फर्नांदो पेसोआ ने बेशक 75 छद्म नामों से लेखन किया लेकिन वे अपने पीछे 27000 अप्रकाशित पन्ने छोड़कर गए थे। उनके जीते जी उनकी दो तीन किताबें ही छपी थीं। (क्रमशः)
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