बात चाहे खुद से की जा रही एक विचित्र शरारत से शुरू हुई थी लेकिन थोड़ा रुककर सोचने से पता लगने लगा कि बात इतनी गई-गुजरी और महत्वहीन नहीं है जितनी ऊपर-ऊपर से लगती है।
हाँ , तो बात नव वर्ष की डायरी के उस कॉलम को भरने की थी जिसमें लिखा था, ‘व्यक्ति विशेष जिसे संकट के समय संपर्क करना हो।’ अगर दो-चार लोगों के नाम लिखने की बात होती तो शायद दिक्कत नहीं आती। वे आला अफ़सर थे। संगी-साथियों के अलावा कुछ दूसरे विभागीय मित्र उनके थे। कुछ अच्छे बिजनेस फ्रेंड्स भी थे। फिर अपने अड़ोस-पड़ोस में भी उठना-बैठना था। अनौपचारिक भी कम लोगों की आवाजाही नहीं थी उनके यहाँ।
लेकिन जब वे छंटनी करने लगे तो...नरेश चतुर्वेदी उनका पड़ोसी ही नहीं, बैचमेट भी था। लेकिन दोनों की पत्नियों में चल रही अलिखित मगर घोर अदावत और ईर्ष्या के कारण वे ठोककर नहीं कह सकते थे कि किसी विकट परिस्थिति में वह दौड़ा चला आएगा। विभाग के उसके एक भूतपूर्व बॉस की मृत्यु पर उसे साथ लेकर चलने का सुझाव जब उन्होंने दिया था तो उसने पूरी निर्ममता से अपनी अनुपलब्धता पेश कर दी थी। ‘वैसे भी जो जीते जी निहायत टुच्ची बातों पर एडवर्स टिका गया उसके यहाँ जाकर स्वांग क्या रचना।’ इस तर्क संगत तर्क ने गोया नरेश का गिरेबाँ ही उघाड़ दिया था। राजेन्द्र पडगाँवकर उनसे था तो एक-दो वर्ष कनिष्ठ, लेकिन परिवारिक उठक-बैठक उससे अच्छी थी। हाँ, चीज़ों को जाँचने परखने का नज़रिया ज़रूर बचकाना था। सूचना मिलने पर फ़ोन पर ही पत्नी को कहेगा ‘क्या कह रही हैं आप भाभी जी...च्च च च...लेकिन गाड़ी देखकर क्यों नहीं चला रहा था...कल थोड़ी लगा ली थी क्या....अब थोड़ी देर में मुझे तो अपने साढू- साली को स्टेशन लेने जाना है....पहली बार आ रहे है....मैं उसके बाद फौरन पहुँचता हूंँ...’
अलका प्रजापति दूसरे विभाग में थी। हम दोनों ही डैप्यूटेशन पर गृह मंत्रालय में साथ थे। बहुत निष्ठावान और विश्वसनीय महिला। मान कि धरातल पर उनके सबसे करीब। लेकिन वे जानते थे कि अपने टिंकू-पिंकू के चलते वह कुछ करना भी चाहेगी तब भी नहीं कर पाएगी... सुबह बच्चों का स्कूल, दिन भर दफ्तर, शाम को होमवर्क... कामकाजी महिलाओं का घर की चकरघिनी पर जुटे रहना उन्हें इसी कारण बहुत दकियानूसी लगता है। किसी की मदद तो कोई तब करे जब अपने जंजालों से जुदा होकर सोच पाए।
व्यावसायिक दोस्तों का तो आलम ही यह था कि लगभग हर वर्ष ही नए बनते थे। उनके पाास पड़ी फाइलों के अनुरूप। असीम श्रीवास्तव जिसे उन्होंने अपवाद समझा था, पिछली दिवाली पर संबंधित काम न होने के अभाव में कन्नी काट गया था। उनकी पूरी जमात बीसेक मिनट अस्पताल में अपनी मौजूदगी जताकर ‘कोई काम हो तो’ की औपचारिकता निभा सकती थी। इससे अधिक कुछ नहीं।
उनकी अपने क़स्बे से सैकड़ों कोस दूर तैनाती थी अतः सभी बंधु-बिरादर और रिश्तेदार पीछे छूट गए थे। दूरियाँ इतनी हो गई थी कि पहुँचता-पहुँचता एक दिन और रात बिगड़ जाता था। वे जानते थे कि हर दो-एक महीने में किसी के साथ पिक्चर देखना, जन्म दिन मनाना, खाना, खाना या पिकनिक पर घूमना एक बात है और उसे किसी निष्कपट और संकटकालीन मदद को देखना निहायत दूसरी। वे किसी को दोष नहीं दे रहे थे, मगर हकीकत यही थी कि सामाजिकता के दबाव में रात गई, बात गई।
डायरी का वह खुला हुआ अदना सा कॉलम अब किसी हीनतायुक्त असुरक्षा को पनाह देने लगा था। कोई भी एक नाम उस विचित्र कॉलम की शर्तो पर खरा न उतर पाने पर जैसे लगातार उनके पैरों की ज़मीन खिसक रही थी। यह चोट और चुनौती उनके खालिस अहम से अधिक विश्वास पर थी। वहाँ उन्होंने लिखा, किसी को नहीं। ■■
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