वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम मलयजशीतलाम ।
शस्यश्यामलां मातरम् ।
शुभ्र ज्योत्स्ना-पुलकित यामिनीम,
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम...
प्रकृति की नैसर्गिक छटा को चित्रित करता हमारा राष्ट्रगीत सांप्रदायिक राजनीति में घिसटकर प्रदूषित हो गया। अब इसे स्कूलों में गाए जाने पर परहेज किया जा रहा है। धरती पर प्रदूषण इतना बढ़ रहा कि हमारे पोते, पड़पोते सुजला सुफला-शस्य श्यामला का ही नहीं, शुभ्र ज्योत्स्ना का मतलब पूछ बैठेंगे! एयरकंडीशंड के फौलादी जंगल में बैठ कर तब उन्हें इसका मतलब क्या बताएँगे? क्योंकि तब तक तो भारत में ताजी हवा लेने के लिए पेशाबघरों जैसे शुद्ध वायु लेने के लिए बूथ बन चुके होंगे।
जन्मजात बच्चे रोगी-
गर्म होती हुई धरती के मिजाज ने अहसास करा दिया है कि बदलती आबोहवा उस मोड़ तक आ पहुँची है, जहाँ हम बूढ़े नहीं होंगे याने अल्पायु में रोग घेर लेंगे। लाइलाज होते रोग उम्रदराज नहीं होने देंगे। भूख से किसी की मौत नहीं होगी। हर आदमी किसी-न-किसी बीमारी से अभिशप्त हो जाएगा। राजा और प्रजा बराबर हो जायेंगे। आम आदमी भी बड़े मजे से राजरोग का शिकार होता रहेगा। जनसंख्या घटाने के लिए सरकारी कार्यक्रमों पर खर्च होने वाली राशि बच जाएगी। जनसंख्या नियंत्रण का वृहत कार्यक्रम भी बंद करा दिया जाएगा, क्योंकि आदमी इतना निरीह हो जाएगा तो बच्चे पैदा कहाँ से कर सकेगा। अभी ही कई देशों में प्रदूषण के चलते जन्म दर गिर गई है, वहीं जन्मजात शिशु कई रोगों के साथ पैदा हो रहे हैं।
बारिश हुई तेजाबी-
विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार औद्योगिक विकास के शिखर पर पहुँच चुके देश अब अपनी बगलें झांक रहे हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दे दी है कि अब पेड़ न काटे जाएँ। जंगलों को लगे रहने दें। प्रदूषण का खरदूषण उन काले-कजरारे मेघों को भी लील गया है जो अमृतमयी वर्षा करते हैं। अब जहाँ-तहा अम्लीय वर्षा जीवन को शून्य कर रही है। उमड़ते-घुमड़ते बादल कब बरसे, इसकी आस लिए आसमान की ओर अब निहारेंगे नहीं बल्कि रिमझिम वर्षा से बचने के लिए हमें कंकरीट के जाल का सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि अब ऐसी बरसात विषैली, अम्लीय होगी। तब के लोग मेघदूत को पढ़ेंगे तो कालिदास पर हंसी आएगी कि इतना महान कवि कितना बेवकूफ था और कैसा था उसका यक्ष, जिसने ऐसे विष भरे मेघों को अपना संदेशवाहक बनाया वह भी अपनी प्रियतमा के पास संदेशा देने के लिए...।
हमारा विष भरा भोजन-
आज का मानव भगवान शंकर का सहोदर बन गया है, जिन्होंने समुद्र मंथन से निकले विष को अपने कंठ में धारण कर लिया था। अब हम सब नीलकंठ विषपायी बन अपने कंठ में नहीं, बल्कि उदर विषपायी बन चुके हैं। हम हर रोज भोजन के साथ अनेक विषैले तत्वों को हजम कर रहे हैं। डीडीटी, एल्ड्रिन, पेस्टीसाइड्स, हर्बीसाइड्स जैसे खतरनाक विष कीड़े तो मार देते हैं और उसी का अंश हम रोज थोड़ा-थोड़ा निगल रहे हैं। तेज से तेज जहर अब खोजें जा रहे हैं। डीडीटी एडिक्ट हुए मच्छर अब दुनिया में मलेरिया का आतंक फैला रहे हैं। प्रकृति को नष्ट करते पेड़ों की हजारों प्रजातियाँ व जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ अब नहीं रहीं। ऐसी प्रजातियाँ बर्दास्त नहीं कर पाईं प्रदूषित होते बदलाव को, जैसा कि आज मनुष्य में बदलाव आया है।
पृथ्वी की छतरी में छेद-
स्माग स्मोक एँड फॉग अर्थात् धुआँ और कोहरा उस भस्मासुर की याद दिलाता है, जिसके डर से भगवान शंकर भी डरकर भागे-भागे फिरे थे। तब देवी पार्वती ने मनमोहनी रूप धारण कर उसे भस्म किया था। अब हजारों हजार भस्मासुरों ने सिर उठा लिया है। औद्योगिक विकास के पर्याय बने भस्मासुर दिन-रात उगल रहे हैं धुआं। सडक़ों पर रेंगते वाहन ऐसे भस्मासुर के ही लघु रूप है। अब कोई मनमोहिनी इन भस्मासुर को खत्म नहीं कर सकती। आखिर, इतने सारे भस्मासुरों के लिए एक मनमोहिनी तो पर्याप्त नहीं होगी। फैलता धुआँ और गहराती कालिख ने एक परत बिछा दी है।
गहराते प्रदूषण से हमारी ओजोन परत भी विदीर्ण होने लगी है। अंटार्कटिका में ओजोन की परत में छेद हो गया। इसका पता वैज्ञानिकों को 1984 में लगा। इसके साथ ही उत्तरी गोलार्ध, एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के एक बड़े भाग के ऊपर आसमान में ओजोन को विघटित करने वाले रसायनों का जमाव हो गया है। सूर्य की पराबैगनी घातक किरणें इन्हीं विदीर्ण राह से आ रही हैं, जो तेजी से चर्म रोग तो फैला रही हैं, वहीं खेती और पशुपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। सूर्य की घातक किरणों को रोकने के लिए हमारे वैज्ञानिकों के पास अंजनीपुत्र हनुमान नहीं हैं, जिसे वे आदेश देते। आज हनुमान नहीं हैं, नहीं तो वे सूर्य को लील लेते, तब तक हम ओजोन की छतरी की मरम्मत कर लेते। पराबैगनी किरणों से बचने के लिए अब हमें शुतुरमुर्ग का अनुसरण कर सिर छिपाना होगा। रेफफ्रिजरेटर, एयरकंडीशनरों और उन उत्पादों को हम छोड़ नहीं सकते, जिन्हें बनाने में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का इस्तेमाल होता है।यही गैस जिम्मेदार है, ओजोन की छतरी को विदीर्ण करने के लिए। इनका उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। नीम की छांव में बैठने की बजाए हमें गद्देदार बिस्तर ही सुकून देते हैं, जहां एयरकंडीशनर हो। मशीनी मानव को इतनी फुरसत कहाँ मिलती है कि वह पेड़ों की छांव तलाशे। अब तो ड्राइंग रूम में टीवी के ऊपर रखे गमले में प्लास्टिक का पेड़ ही हरे रंग का अहसास करा रहे हैं।
जंगल हुए वीरान-
यावत् भूमंडल धत समृगवन कानन्।
तावत तिष्ठति मेदिन्याम् संतति: पुत्र पौत्रिकी।
वेदों के रचने वालों ने वनों के महत्त्व को बताते हुए कहा था कि "जब तक धरती वृक्षों एवं वन्य जीवों से समृद्ध वनों से सम्पन्न है, तब तक वह मनुष्यों की संतानों का पोषण करती रहेगी।" जंगलों,पहाड़ों को समृद्ध बनाने के लिए द्वापर युग में श्रीकृष्ण सबसे पहले आगे आए। गौपालक कृष्ण ने इन्द्र पूजा को नकार कर गोवर्धन पर्वत और वनों की पूजा का धार्मिक विधान बनाया। जंगल, पहाड़ों से ही जल और वायु शुद्ध होते हैं। इन्द्र के कुपित होने पर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर लोगों की रक्षा की थी। अब जगह जगह बादल फटने लगें हैं, ऐसी विभीषिका से बचाने एक कृष्ण कहाँ-कहाँ जाएँगे!
नदियाँ हुई बदहाल-
हमारी जीवनदायिनी नदियाँ विषाक्त हो चली हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना नदी को ज़हरीला करने वाले कलियानाग का दमन किया था। अब यमुना ही क्या गंगा, कृष्णा, कावेरी, ब्रह्मपुत्र सहित देश की हर नदियाँ प्रदूषित हो गई हैं। अधिकांश नदियाँ मैला ढो रही है और सभ्य समाज उसमें अपना सीवेज डाल रहा है।श्रीकृष्ण ने ही गोवंश के महत्त्व को समझाया। गोधन दम पर भारत कभी सोने की चिडिय़ा कहलाता था। जहाँ दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। उसी देश में आज सिंथेटिक दूध बिक रहा है। दूध के नाम पर जहर भरा सफ़ेद पानी पीने के लिए विवश हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए निरापद नहीं है। हम यह जानते हैं, फिर भी उसका उपयोग कर रहे हैं।
लौटें प्रकृति की ओर-
धर्म और समाज में सन्निहित मानव प्रकृति का अविभाज्य अंग है। जहाँ सूर्य चमकता है, हवा बहती है
और नदियाँ जल देती हैं। प्रकृति की नैसर्गिक धरोहर को हमारा आधुनिक सभ्य समाज संजो नहीं पाया है। मध्यकाल में विश्नोई समाज के सैकड़ों लोगों का आत्मोसर्ग अब इतिहास के पन्ने में सिमटकर रह गया है। विश्नोई समाज के लोगों ने पेड़ों को काटने के खिलाफ उनसे लिपट कर अपने प्राण दे दिए। जिनकी दारूण गाथा में मानव का प्रकृति के साथ अटूट रिश्ते का संदेश निहित है।
अब कभी कभार होने वाले समारोह और गोष्ठियों में वन, प्रकृति, जल, जंगलों को याद कर लिया जाता है, परन्तु इनका अनुसरण करके हम सब सुंदरलाल बहुगुणा क्यों नहीं बन सकते, जिन्होंने ‘चिपको आंदोलन’ से वनों को संरक्षित करने की दिशा दी। आज हालात इतने बिगड़ गये हैं कि जलवायु परिवर्तन का भयावह संकट दुनिया के सामने आ खड़ा हुआ है फिर भी हम नहीं चेते!
आज हम पर्यावरण बचाने का नाटक करते हैं, प्रतीकात्मक रैली निकालकर, सडक़ों पर प्रदर्शन कर अपनी शक्ति प्रदर्शन करते हैं। जिसके बाद शुरू होती है, बड़ी-बड़ी गोष्ठी, एयरकंडीशन हाल में बैठकर जंगलों और वन्य जीवों पर चिंता व्यक्त की जाती है। नीलकंठ विषपायी मानव को आज जरूरत है कृष्ण का अनुसरण करने की। समाज को चाहिए कि वह विश्नोई समाज को आदर्श माने और अपनी ही लगाई बगिया में जाकर उन बचे-खुचे पेड़ों को थोड़ा सा सहेज ले तो घर ही नहीं, देश-दुनिया फिर हरी-भरी हो जाएगी।
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ravindraginnore58@gmail.com
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