‘‘बाबूजी सुबह-सुबह कहाँ चल दिए।’’ मैंने अपने पड़ोसी को टोका जो काफी वृद्ध थे।
‘‘पोस्ट ऑफिस।’’
‘‘क्या पेंशन नहीं आई, या फिर बेटों के भेजे मनीआर्डर नहीं मिले?’’
‘‘कुछ रूपयों की आवश्यकता हो तो मुझसे ले लो? ला दूँ क्या?’’
‘‘रूपयों का ढेर लगा है घर में, तुझे लगते हों तो ले जा।’’ अब बूढ़ी पड़ोसन अपनी चिरपरिचित शैली में बोल पड़ी,
‘‘तुम तो जाओ जी, इसकी बातों में लगे रहे हो पोस्ट ऑफिस बन्द हो जाएगा।’’
उनके बेटे बड़े सरकारी ओहदों पर थे जिम्मेदारी, कार्य की अधिकता, समयाभाव के कारण चाह कर भी वे गाँव नहीं आ पाते थे ऊपर से बूढ़े- बूढ़िया गाँव न छोड़ने की जिद्द पर अड़े थे, उनकी खीज मुझ पर ही उतरती थी, मैं उनके बेटों का दोस्त जो था।
‘‘बाबूजी , आज पोस्ट ऑफिस में ऐसा क्या काम अड़ गया जो आप खुद जा रहे हैं।’’ मैं पूछ ही बैठा।
‘‘टेलिग्राम करने।’’
‘‘टेलिग्राम!’’ मैं स्तब्ध रह गया।
‘हाँ- हाँ टेलिग्राम करने....मेरे मरने का, वह भी तेरे नाम से।’’ पड़ोसन की वही आवाज गूँजी।
‘‘अब खड़ा- खड़ा मुँह ताकेगा या हाथ भी बँटाएगा। बेटे आएँगे, बहुएँ आएँगी नाती पोते पोतियाँ आएँगे।’’ यह बड़बड़ाते बूढ़ी के चेहरे पर आनंद उभर आया...सचमुच मैं भी उस मिलन की कल्पना में खो गया। ■■
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