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Aug 1, 2023

आलेखः साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय

 
 - प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘हमारी संस्कृति में भूखा नहीं सोने की अवधारणा है। ‘हमारा यह पारंपरिक बोध नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एक ऐसा मूल्य रचता है, जिसका अनुभव करते हुए भक्ति कालीन कवि कबीर दास करते हैं, ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। आपहूं भूखा न रहे, साधु न भूखा जाय।‘ इस अपरिग्रहवादी चेतना का संकेत न्यायालय ने देते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि यह सुनिश्चित हो कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के तहत खाद्यान्न अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे। न्यायमूर्ति एमआर शाह और हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति तक भोजन पहुँचाना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। न्यायालय कोरोना महामारी के दौरान भारतबंदी के चलते प्रवासी श्रमिकों की कठिनाइयों से संबंधित जनहित मामले पर सुनवाई कर रहा है। अदालत ने इस मामले को स्वतः संज्ञान में लिया है। इस सिलसिले में सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज, हर्थ मंदर और जगदीप झोकर की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने दलील दी कि खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले लाभार्थियों की संज्ञा बढ़ गई है, अतएव इस परिप्रेक्ष्य में यदि कानून को प्रभावी तरीके से लागू नहीं किया गया तो कई जरूरतमंद और पात्र लाभार्थी मुफ्त अनाज के लाभ से वंचित रह जाएँगे। सरकार का इस बावत दावा है कि पिछले आठ वर्षों की अवधि में भारत में लोगों की प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि हुई है। यह वृद्धि औसतन 33.4 प्रतिशत तक है। इसलिए प्रति व्यक्ति बड़ी आमदनी के चलते बड़ी संख्या में गरीब परिवार उच्च आयवर्ग के दायरे में आ गए हैं। सरकार को यह दलील इसलिए देनी पड़ी; क्योंकि न्यायालय ने कहा था कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों तक इस योजना के लाभ को सीमित न रखा जाए। बल्कि अन्य जरूरत मंदो को भी इसमें शामिल किया जाए। 

केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत अवधि तीन महीने और बढ़ाकर पेट की भूख से जूझ रहे लोगों को 2020 से गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज हर महीने निःशुल्क दे रही है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत 81.35 करोड़ लाभार्थी हैं। कोरोना महामारी के दौरान जब काम-धंधे पूरी तरह बंद हो गए थे, तब रोज कुआँ खोदकर प्यास बुझाने वाले लोगों के लिए भोजन का संकट गहरा गया था। अतएव भारत सरकार ने गरीबों को राहत पहुँचाने की दृष्टि से पूर्व से मिल रहे सस्ते अनाज के अतिरिक्त पाँच किलो मुफ्त अनाज देने की थी, जो वर्तमान में भी जारी है। हालाँकि इस दौरान तालाबंदी पूरी तरह खोल दी गई है। नतीजतन शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएँ पटरी पर लौटने लगी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्राण फूँकने का काम धार्मिक पर्यटन ने पूरे देश में कर दिया है। ऐसे में अन्न योजना अनिश्चित आय वाले लोगों के लिए सोने में सुहागा है। 

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पूरे देश में लागू है। इस कानून के तहत देशभर के 81.35 करोड़ लोगों को 2 रुपये किलो गेहूँ और 3 रुपये किलो चावल मिलते हैं। गरीबों अथवा भूखों को मिले इस सस्ते अनाज के अधिकार को इस कानून का उज्ज्वल पक्ष माना जाता है। लेकिन इतनी बड़ी संख्या में देश के लोग भूखे हैं, तो यह चिंता का विषय है कि आजादी के अमृत महोत्सव में भी यह भूख क्यों बनी हुई है। अतएव संदेह होना लाजिमी है कि नीतियाँ कुछ ऐसी जरूर हैं, जो बड़ी संख्या में लोगों को रोटी के हक से वंचित बनाए रखने का काम कर रही हैं। पूंजी और संसाधनों पर अधिकार आबादी के चंद लोगों की मुट्ठी में सिमटता जा रहा है। इस लिहाज से भूख की समस्या का यह हल सम्मानजनक व स्थाई नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में अब देश के नीति-नियंताओं की कोशिशें यह होनी चाहिए कि लोग श्रम से आजीविका कमाने के उपायों से खुद जुड़ें और आगे भूख सूचकांक का जब भी नया सर्वेक्षण आए, तो उसमें भूखों की संख्या घटती दिखे? न्यायालय की यही चिंता है। 

 खाद्य सुरक्षा के तहत करीब 67 फीसदी आबादी को रियायती दर पर अनाज दिया जा रहा है। इसके दायरे में शहरों में रहने वाले 50 प्रतिशत और गांवों में रहने वाले 75 फीसदी लोग हैं। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में दिया जाता है। लोगों तक इस अनाज को पहुंचाने के लिए पीडीएस की 1,61,854 दुकानों पर इपीओएस मशीनें लगाई गई हैं, जिससे अनाज की तौल सही हो। सही लोगों को इसका लाभ मिले, इसके लिए राशन कार्डों को आधार नंबर से भी जोड़ा गया है। बावजूद पूरे देश में यह वितरण प्रणाली संदिग्ध बनी हुई है। निःशुल्क अनाज योजना के अंतर्गत एक हजार लाख टन से अधिक अनाज प्रतिमाह बाँटा जा रहा है। अब तक इस योजना पर 3.40 लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इसलिए  पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री और उद्योगपति इस अनाज को मुफ्त बांटने का विरोध कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की भी यही मंषा है। हालांकि भारत सरकार केवल गरीबों को अनाज में सब्सिडी देती हो, ऐसा नहीं है। उद्योगपतियों के भी हजारों करोड़ के कर हर साल माफ कर दिए जाते हैं। सरकारी कर्मचारियों और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के न केवल वेतन बढ़ा दिए जाते हैं, बल्कि सुविधाएँ भी बढ़ा दी जाती हैं। इसलिए वंचितों को राहत देना आवश्यक है।  

दरअसल किसी भी देष के राष्ट्र प्रमुख की प्रतिबद्धता विश्व व्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब व वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा के प्रति होती है। लिहाजा जेनेवा में 2014 में आयोजित हुए 160 सदस्यों वाले डब्ल्यूटीओ के सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने समुचित व्यापार अनुबंध; टेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। इस करार की सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश, अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता। जबकि भारत के साथ विडंबना है कि खाद्य सुरक्षा कानून और मुफ्त अन्न योजना के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है। इस लिहाज से मोदी ने करार पर हस्ताक्षर नहीं करके यह मंशा जता दी थी कि उनकी सरकार गरीबों के हक में है। इस कानून में गरीब गर्भवती महिलाओं और स्तन पान कराने वाली माताओं तथा बच्चों के लिए अलग से पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है।

 सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अनाज की खरीद और उसके उचित भण्डारण की रहती है। अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भण्डारण की अतिरिक्त व्यवस्था को अंजाम देना होता है, जो नहीं हो पा रही है। उचित व्यवस्था की कमी के चलते गोदामों में लाखों टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। यह अनाज इतनी बड़ी मात्रा में होता है कि एक साल तक 2 करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता है। अनाज की यह बरबादी भण्डारों की कमी की बजाय अनाज भण्डारण में बरती जा रहीं लापरवाहियों के चलते कहीं ज्यादा होती है। देश में किसानों की मेहनत और जैविक व पारंपरिक खेती को बढ़ावा देने के उपायों के चलते कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूँ उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे, लेकिन अब मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में भी गेहूँ की रिकार्ड पैदावार हो रही है। इसमें धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, दालें और मोटे अनाज व तिलहन शामिल हैं। 2021-22 में 29 करोड़ टन अनाज की पैदावार हुई है। जिससे बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न मांग की आपूर्ति की जा सके। 

साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरूआत के साथ ही अनाज भण्डारण की समस्या भी सुरसा मुख बनती रही है। एक स्थान पर बड़ी मात्रा में भडांरण और फिर उसका संरक्षण अपने आप में एक चुनौती भरा और बड़ी धनराशि से हासिल होने वाले लक्ष्य हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की पूरे देश में एक साथ खरीद, भंडारण और फिर राज्यवार माँग के अनुसार वितरण का दायित्व भारतीय खाद्य निगम के पास है। जबकि भंडारों के निर्माण का काम केंद्रीय भण्डार निगम संभालता है। इसी तर्ज पर राज्य सरकारों के भी भण्डार निगम हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आजादी के 75 साल बाद भी बढ़ते उत्पादन के अनुपात मे केंद्र और राज्य दोनों ही स्तर पर अनाज भण्डार के मुकम्मल इतंजाम नहीं हो पाए हैं। नतीजतन हजारों टन खुले में रखा अनाज बेमौसम बारिश से सड़ जाता है, जबकि लाखों लोग रोटी की आस में टकटकी लगाए पथराई आँखों से सोते रहते हैं। 

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सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., , मो. 09425488224, 09981061100


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