सांस्कृतिक विविधता का सतरंगी रूप
- त्रिजुगी कौशिक
मेला यानि खुशियों का मेला अर्थात
चटख रंगों में सजे-धजे बच्चे, किशोर व युवक-युवतियों का झुंड। हंसती
खिलखिलाती... किलकारियों से गुंजती आवाजों का मेला। जहाँ उल्लास है, उमंग है, लाल-पीला-हरा चटख रंग है...। आकाश में
झूलते-झूले, हिंडोले
हैं। नाचते-कूदते भालू बंदर हैं, नाचा नौटंकी, जादू, रंग बिरंगी चूडिय़ाँ, सिन्दूर
टिकली, फीता
व बुन्दा की सजी-धजी दुकानें, गुब्बारे, खेल-खिलौने व फिरकनियां। उस पर जलेबी, मिठाई व
बताशा और उखरा की दुकानें समझों यहीं भरा है... खुशियों का मेला, जहां बचपन गुम जाता है।
यह है भारतीय संस्कृति का सांस्कृतिक सामाजिक
विविधता भरी जीवनशैली का एक रूप। हमारे देश का लोकानुरंजक मौलिक संस्कृति का
संतरंगा ग्राम्य स्वरूप प्रचलित व विख्यात है। इन मेलों के मूल में कोई न कोई
अन्र्तकथा है, संवेदना
है, व
आदि लोक परंपरा है यही कारण हैं कि इनका धार्मिक सामाजिक, आर्थिक व
सांस्कृतिक स्वरूप कभी मिटता नहीं।

कर्णेश्वर मेला - रायपुर जिले का
आदिवासी बहुल क्षेत्र सिहावा जहँं महानदी का उद्गम है, जो शृंगी
ऋषि के तपोभूमि के रूप में प्रसिद्ध है। वहां माघ पूर्णिमा पर कर्णेश्वर मेला का
आयोजन होता है यह तीन दिनों तक रहता है।
राजिम मेला - महानदी के किनारे
रायपुर जिले का दूसरा महत्वपूर्ण मेला राजिम है। राजीव लोचन मंदिर और कुलेश्वर
महादेव के मंदिर क्षेत्र में फैला राजिम का मेला यहां का महत्वपूर्ण मेला है।
राजिम का मेला माघ पूर्णिमा से लेकर महाशिवरात्रि तक रहता है राजिम के पास ही
चम्पारण्य नामक महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मस्थली है वहाँ चम्पारण्य का मेला भरता
है।
सिरपुर का मेला - राजिम मेले के साथ
ही रायपुर जिले का सिरपुर में भी माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक मेला भरता है।
श्रीपुर के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान शरभपुरीय व सोमवंशी राजाओं की राजधानी रही
है। सिरपुर में प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर है जो सोमवंशी राजा महाशिवगुप्त बालार्जुन
का स्मरण दिलाता है। ईंट से बनी यह आठवीं शताब्दी की अनुपम कृति है जिसे महारानी
ने बनवाया है। सिरपुर में गंधेश्वर मंदिर स्वास्तिक विहार, आनंद
प्रभुकुटी विहार एवं बौद्धों के प्राचीन स्मारक हैं।

खल्लारी मेला - रायपुर जिले के
बागबाहरा विकासखंड के गाँव खल्लारी में चैत पूर्णिमा पर मेला भरता है खल्वाटिका के
नाम से चर्चित यहां एक ऊंची पहाड़ी पर खल्लारी माता का मंदिर है।
दामाखेड़ा का मेला - मेले की इस शृंखला
में सिमगा विकासखंड का दामाखेड़ा का माघ मेला महत्वपूर्ण कड़ी है। दामाखेड़ा
कबीरपंथियों की तीर्थभूमि है। माघ पूर्णिमा पर यहां सद्गुरु कबीर साहब धर्मदास
वंशावली प्रतिनिधि सभा द्वारा मेले का आयोजन होता है। इस मेले में कबीरपंथी देशभर
से आते हैं।
बस्तर के मेले मड़ई - बस्तर जिला का
महापर्व बस्तर 'दशहरा' और
रथयात्रा पर 'गोंचा' दो बड़े
मेले मड़ईयों में गिनी जा सकती है, पर इसे मेला की संज्ञा देना पर्याप्त नहीं
है।
भद्रकाली का मेला- शिवरात्रि के दिन
इंद्रावती गोदावरी के संगम पर भद्रकाली का मेला भरता है यहां भद्रकाली का
एक छोटा सा मंदिर टीले पर स्थित है।
कहा जाता है काकतीय वंश के महाराजा
प्रताप रूद्रदेव ने वारंगल में मुगलों से परास्त होकर राज्य विहीन होकर बस्तर
प्रवेश किया था। तब उन्होंने भद्रकाली में यह मंदिर बनवाकर देवी दन्तेश्वरी की
पूजा की थी। यहां उन्हें दिव्य तलवार देवी से वरदान स्वरूप मिला था जिसके बल पर
उन्होंने बस्तर में अपना राज्य स्थापित किया था।
नारायणपुर मंडई - बस्तर जिले का सबसे
आकर्षक मुरिया मड़ई माघ महीने के शुक्ल पक्ष में बुधवार को भरता है। अबूझमाड़
क्षेत्र से जुड़े होने के कारण मड़ई में भारी भीड़ जुटती है। मड़ई के दिन देवी
मंदिर में पुजारी द्वारा पारंपरिक विधि से पूजा-पाठ किया जाता है। यहां कई सिरहा
उपस्थित रहते हैं।

छोटपाल मड़ई - यदि ठेठ माडिय़ा का
आनंद उठाना हो तो गीदम के पास का छोटपाल मंडई का आनंद लीजिए। सैकड़ों की संख्या
में यहां माडिया आदिवासियों की जमघट होती है। इसी तरह बस्तर व करपावण्ड की मड़ई
दीवाली के बाद होती है।
दन्तेवाड़ा की फागुन मड़ई -
दन्तेवाड़ा की फागुन मड़ई होली के समय की मड़ई है। होली के एक सप्ताह पूर्व मड़ई
नृत्योत्सव प्रारंभ हो जाता है। प्रतिदिन दंतेश्वरी मंदिर से डोली व छत्र निकलता
है तथा मेड़का डोंनका नामक स्थान पर ग्रामवासियों द्वारा गौरमार आखेट नृत्य किया
जाता है। अंतिम दिवस होली के दिन दन्तेवाड़ा में थाने के सामने विशाल मेला भरता
है।
धूमधाम से मां दंतेश्वरी की डोली व
छत्र का जुलूस निकलता है। रंग गुलाल चढ़ाने के बाद होली खेलना प्रारंभ किया जाता
है। इस तरह बस्तर में प्रति सप्ताह कहीं न कहीं फागुन मड़ई के पूर्व मड़ईयां भरती
है। जहां आदिवासी सम्मिलित होकर अपने-अपने क्षेत्र के देवी-देवता के छत्र के साथ
उपस्थित होकर सारी रात नाच गाकर अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मड़ई इनके लिए
वर्षिकोत्सव की तरह होता है। यहां आकर वे अपनी कला को उन्मुक्त होकर प्रकट करते
हैं।
सरगुजा जिले के मेले- सरगुजा जिले
में अनेक स्थानों में मेले भरते हैं। जिनमें प्रमुख मेलें हैं। कुसमी, कुदरगढ़, सीतापुर, शंकरगढ़, डीपाडीह, दुर्गापुर, रामगढ़ और
देवगढ़। सरगुजा के रामगढ़, कुदुरगढ़ व देवगढ़ के मेले में मूलत:
धार्मिक भावना निहित है।

कुदुरगढ़ मेला - यह चैत्र नवरात्रि
में भरता है। यहँं एक देवी का मंदिर है वहां एक सुराख है। इस सुराख की गहराई अनंत
है। यहां बकरे की बलि दी जाती है खून उसी सूराख में समा जाता है। यहां श्रद्धालु
नारियल चुनरी भी चढ़ाते हैं। कुदरगढ़ अंबिकापुर से 25 किमी की दूरी पर है। इस मेले
को घिर्रा भी कहते हैं।
घिर्रा - घिर्रा यानि मेले का पहला
दिन युवकों का उत्सव का होता है और दूसरा दिन बाजार का होता है। सरगुजिहा भाषा में
घिर्रा का अर्थ मदमस्त होकर दौडऩा कूदना होता है। सरगुजा जिले में फसल की कटाई के
बाद पूस माह में गाँव-गाँव में घिर्रा का आयोजन होता है।
बिलासपुर जिले के मेले- बिलासपुर
जिले के प्रमुख मेलों में शिवरीनारायण रतनपुर, मल्हार, पीथमपुर है। बिलासपुर में माघ पूर्णिमा में
बिल्हा में रतनपुर में, सेतगंगा (मुंगेली), बेलयान (तखतपुर) सागर व शिवरीनारायण में
मेला भरता है। मकर संक्रांति में लखनघाट (मरवाही), मदकू (पथरिया), सेमरताल
(लोरमी), पीथमपुर
(जांजगीर) मेला का आयोजन होता है। महाशिवरात्रि में मल्हार (मस्तूरी) चारीडीह
बिलासपुर में होता है। इसके साथ ही किरारी (मस्तूरी), पथरगढ़ी
(पथरिया) में तथा कटघोरा में जनवरी में मेला भरता है।
राजनांदगांव के मेले- राजनांदगँंव
में डोंगरगढ़ का मेला क्वार चैत्र में नवरात्रि मेले का नाम से आयोजित होता है।
जहां मां बम्लेश्वरी की मूर्ति स्थापित है।

मोहरा मेला- मोहरा राजनांदगांव
नगरपालिका सीमा पर नदी किनारे स्थित गांव है जहां शिवजी मंदिर है यहां कार्तिक
पूर्णिमा पर मेला भरता है।
दशरंगपुर मेला- दशरंगपुर तहसील
मुख्यालय कवर्धा से लगभग 15 किमी पर स्थित एक गांव है यहां शिवमंदिर है। यहां
शिवरात्रि पर मेला भरता है।
दुर्ग जिले के मेले मड़ई- दुर्ग जिले
में शिवनाथ नदी के किनारे बसा दुर्ग से 12
कि.मी. स्थित ग्राम चंगोरी में शिवरात्रि पर मेला भरता है। यहां शिव का
मंदिर है। बेरला विकासखंड में जहां-जहां शिवमंदिर हैं वहां भी मेला भरता है। साजा
विकास खंड में अकलवारा में दो दिवसीय व सहलपुर में दो दिन का मेला भरता है। माघी
पूर्णिमा में साजा क्षेत्र के दही-मही में मेला भरता है। गुंडरदेही विकासखंड के
ग्राम चौरेले में भी माघी पूर्णिमा को मेला भरता है।
रायगढ़ में मेला - रायगढ़ जिले में
श्री कृष्ण के जन्म पर रायगढ़ में जन्माष्टमी में मेला भरता है। यह मेला रक्षाबंधन
से जन्माष्टमी तक लगभग 10 दिनों का होता है। यह गौरीशंकर मंदिर के निकट भरता है।

दशहरा मेला - दशहरा मेला मुख्यत:
रायगढ़ खरसिया सारंगढ़, लैलूंगा व जशपुर में भरता है। यह एक दिन का होता है।
पोरथमेला - यह मेला सारंगढ़ तहसील के
ग्राम पोरथ में मकर संक्रांति पर भरता है। यह महानदी के किनारे भरता है।
इस तरह मेले मड़ई छत्तीसगढ़ की
संस्कृति का एक अंग है। जो इनके लिए
मनोरंजन का साधन तो है ही साथ ही एक ऐसा
मिलन स्थल है जहां लोग अपने संगी- साथी और नाते -रिश्तेदोरों से मिलते हैं और सुख-
दुख बांटते हैं।
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