रक्षा का लोक-चित्र
हाथा (एक प्रकार का भित्ती चित्र)
छत्तीसगढ़ में दीपावली के समय दीवारों पर बनाया जाने वाला रंगोली, मांडना जैसी ही एक लोक कला है। हाथा
देने के पीछे लोक मान्यता है कि इससे घर में आई फसल और पशु धन को किसी की नजर नहीं
लगती और वे सुरक्षित रहते हैं। चूंकि दीपावली के समय ही फसल कट कर घर में आ चुकी
होती है अत: उसकी सुरक्षा भी आवश्यक होती है।
हाथा देने की परम्परा लक्ष्मी पूजा
के बाद दूसरे दिन गोवर्धन पूजा की सुबह तथा मातर के दिन और कीर्तिक माह में जेठौउनी (देव उठनी) तक बनाया जाता है।
गाँव की रऊताईन (राऊत महिलाएँ) अपने-
अपने मालिकों (दाऊ या गौटिया) के घर दो- तीन के समूह में आशीष देते हुए गीत गाती
हुई जाती हैं और दीवारों पर हाथा देने की रस्म पूरा करती हैं। हाथा देने के लिए
चावल आटे का इस्तेमाल किया जाता है, तथा उसमें खूबसूरती लाने के लिए वे रंगों का
भी प्रयोग करती हैं। आजकल तो कृत्रिम रंग का उपयोग होने लगा है, जबकि पहले
गेरू मिट्टी तथा पेड़ों के छाल और पत्तों से रंग बनाए जाते थे। जब रऊताईन हाथा देने का कार्य संपन्न कर लेती है तब घर मालिकिन
उन्हें चावल, दाल, सब्जी, नमक, मिर्च और
दीवाली पर बने पकवान जिसमें पूड़ी और बड़ा प्रमुख होता है, आदि भेंट
स्वरूप उन्हें देती हैं।
इस परम्परा का हाथा नाम क्यों पड़ा
इस पर यदि विचार करें तो यही समझ में आता है कि चूंकि हाथा, हाथ की
उंगलियों से दिया जाता है इसलिए इसका लोक नाम
हाथा पड़ा है। राऊत महिलाएँ अपनी दो
उंगलियों को रंग और चावल के आटे में डूबो- डूबो कर विभिन्न आकृतियां बनाती हैं। अब
तो हाथा देने के लिए वे बबूल की डाली का उपयोग करने लगी हैं, जिसका उपयोग गाँव में दातौन के लिए
किया जाता है। (यह दाँत के लिए जड़ी-बूटी का काम करता है नीम के डंठल की तरह)
हाथा की आकृतियँं भिन्न -भिन्न होते
हुए भी उनमें एक समरसता होती है, वे मंदिर की आकृति में ऊपर की ओर नुकीले
आकार में ढलती जाती हैं। परंतु इसके लिए
कोई एक नियम नहीं होता। हर कलाकार को स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी कला का
खूबसूरती से प्रदर्शन करे। कुछ लोग हाथा देना को मांडना और रंगोली या अल्पना से
तुलना करते हंै पर वास्तव में न ये रंगोली है न मांडना और न ही अल्पना, उसका एक
प्रकार जरूर कह सकते हैं क्योंकि इस तरह दीवरों, आँगन तथा पूजा स्थान पर रंगों से आकृति बनाए
जाने की परम्परा भारत के लगभग हर प्रदेश में कायम हैं, जो किसी न
किसी रूप में सुख समृद्धि तथा टोटके के रूप में विद्यमान हैं।
हाथा घर के कुछ प्रमुख स्थानों पर ही
दिए जाते हैं- जैसे तुलसी चौरा में घी का हाथा दिया जाता है। जिस कोठी में धान रखा
जाता हैं वहाँ और गाय कोठे में भी हाथा देना जरूरी होता है। घर के प्रमुख दरवाजे
में भी एक हाथा दिया जाता है। एक हाथा रसोई घर में, जिसे सीता चौक कहा जाता है, देना
जरूरी होता है। सीता चौक को पवित्र माना जाता है और लोगों की ऐसी धारणा है कि जिस
स्थान पर सीता चौक बनाया जाता है वह स्थान पवित्र हो जाता है, इसीलिए
पूजा के स्थान पर यह आकार बनाया जाता है। इसे पवित्र मानने के पीछे भी एक कथा
जुड़ी हुई है- कहते है कि पावर्ती जब शंकर भगवान को प्रसन्न करने के लिए तपस्या
करती है और पूजा के लिए फूल सजाकर चौक पूरती है , उस चौक ( अल्पना) का आकार इसी सीता चौक की
तरह था। यद्यपि इसका नाम सीता चौक क्यों पड़ा इसके बारे में अभी कोई स्पष्ट
जानकारी नहीं मिल पाई।
गोवर्धन पूजा के दिन राऊत सोहई बांधने के पूर्व
रसोई में बने घी के हाथा के ऊपर, गाय का गोबर साथ में नई फसल का नया धान लेकर, दोहा पारते (कहते) हुए नाचते- गाते
आते हैं और उस हाथा के ऊपर गोबर तथा धान का गोला चिपका कर अपने मालिक की सुख
समृद्धि की कामना करते हुए आशीष देते हैं। इसी समय राऊतों को भी नारियल कपड़ा आदि
उपहार में दे कर उनका सम्मान करने की परंपरा है।
इसके बाद गांव के सब राऊत मिलकर सोहई (एक प्रकार का हार जो पशुओं के गले में
बांधने के लिए दीपावली के अवसर पर ही बनाएं जाते हैं) बांधने चले जाते हैं।
दीपावली में गोवर्धन पूजा के दिन खास बात यह है कि इस दिन लगभग सभी कार्य राऊत
रऊतईन द्वारा ही संपन्न होता है। हाथा
बनाने के साथ गोवर्धन पूजा के दिन रऊताईन, गाय कोठे में दरवाजे के पास गोबर से प्रतीक
स्वरूप देवता बनाती हैं, घर मालकिन जिसकी विधि विधान
के साथ पूजा करती है और उसके गाय उसे रौंदते हुए कोठे में प्रवेश करती है।
इन सबके साथ
गाय की पूजा करके नए चावल की खिचड़ी
खिलाना गोवर्धन पूजा के दिन का सबसे प्रमुख अंग होता है, घर वाले गाय को खिचड़ी
खिलाने के बाद ही अन्न ग्रहण करते हैं। (उदंती फीचर्स)
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