- श्यामलाल चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ी की अर्थ व्यवस्था कृषि के
धुरी पर घूमती है। यहाँ आज भी अस्सी प्रतिशत से अधिक परिवारों की आजीविका कृषि पर
निर्भर करती है। दिन रात कार्यरत रह कर, चराचर के समस्त जीवों को जीवनदान देने वाला
किसान मौन साधक होते है। अनेक जोखिमों के बाद जब फसल काट कर अपने कोठे में लाता है
तो राहत की साँस लेता है। धान को बोने से लेकर उसकी कटाई और मिंजाई तक उसकी फसल को
पशु, पक्षी
चूहे, चोर
और कीट पतंग देखे मन देखे चाटते रहते हैं। फिर भी किसान को परम संतुष्टि का अनुभव
तब होता है जब वह समारोह पूर्वक अपनी फसल के कुछ अंश का दान करता है। स्वेच्छा से
धान की फसल के अंशदान का महायज्ञ छेर छेरा कहलाता हैं। अन्नदान का यह महायज्ञ पौष
पूर्णिमा के दिन समारोहपूर्वक होता है।
छत्तीसगढ़ के किसान को छेर-छेरा की
उत्फुल्लता के साथ प्रतीक्षा रहती है। घरों की साफ-सफाई और लिपाई पुताई करने के
बाद अन्नदान के सामूहिक अनुष्ठान का यजमान छत्तीसगढ़ का किसान पौष पूर्णिमा के आने
तक मन-प्राण से अपने सामाजिक दायित्व के निर्वाह के लिए तैयार हो जाता है।
सुबह होते ही गाँव भर के अमीर गरीब
अभिजात्य और अन्त्यज सभी वर्गो के बच्चे-बच्चियाँ टोकरियाँ लिये हुए घर-घर
छेर-छेरा के लिए निकल पड़ती है। समूह में साधिकार घोष करते जाते हैं छेर-छेरा माई
कोठी से धान निकालो और उसे बाँटो। बाल भगवान की घर के सामने सुबह से समूह में
उपस्थित टोली और उसकी अधिकारिक यह बोली
क्या अमीर क्या गरीब सबके दरवाजे ही भीड़। गरीब भी यथाशक्ति सबको थोड़ा-थोड़ा ही
सही अत्यधिक आन्नद से अन्न दान करता है। उसके दरवाजे धनिक निर्धन सभी घर के बच्चे
खड़े होते हैं। दौलत की दीवार टूट जाती है जाति का भेद मिट जाता है। एकात्मता का
अनोखा अनुष्टान होता है छेर-छेरा। नौकर के भी दरवाजे मालिक का बेटा खड़ा रहता है, गरीब की
गली में अमीर का लाड़ला याचक बना घूमता है। सब लोग सबको देते हैं, सब लोग
सबसे लेते हैं। यहाँ परिणाम का प्रश्न नहीं परिणाम की प्रसन्नता प्राप्त करना सबका
अभीष्ट है। यदि कोई धान बाँटने में कंजूसी करता है तो ये बच्चे अपने बेलाग व्यंग्य
बाणों से उनकी कृपणता पर निर्भीकता से आधात करने से भी नहीं चूकते। अहंकार का भी
परिष्कार हो जाता है। सर्वत्र समभाव का साम्राज्य होता है। उदारता की भावना
उद्वेलित होती है। कई छोटे बच्चे अपने यहाँ गोद में अपने छोटे भाई-बहन को लेकर
निकले रहते हैं और उसके लिए भी हिस्सा वसूलते हैं। यहाँ इंकार करने वाला भी कौन है? शास्त्रों
में कहा गया है बाँटकर खाओ सबकी सम्पदा में सबका हिस्सा है। किसी को खाली हाथ न
लौटाओ। छत्तीसगढ़ में इस भावना को आचरण में उतारा जाता है। अन्न वितरण के बाद पर्व
के उल्लास का दूसरा अध्याय प्रारंभ होता है। डंडा नाचने वालो के दल हाथों में डंडे
लिए झांझ मजीरा मांदर आदि के साथ घरों घर जाकर आँगन में डंडा नाच करते हैं। इस नाच
की अनेक शैलियाँ हैं जिनमें रेली, माढऩ, गुनढरकी मंडलाही, तिनडंडिय़ा, दूडंडिय़ा
आदि प्रचलित है।
इस नाच के साथ गाए जाने वाले लोक
गीतों में जन-जीवन की व्यथा कथा इतिहास, भगवान के स्वरूप वर्णन आदि के साथ हर्ष
विषाद उल्लास के वृत चित्र उभरते हैं। निरक्षर नर्तकों के गीतों की बानगी देखिए।
नाना रे भाई नान गा।
परथम बन्दौं गुरू आपना,
फिर बन्दों भगवान गा।
क्या स्पष्ट धारणा है? कबीर के
समान असमंजस नहीं है कि गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काकेलागू पांय ये तो साफ कहते हैं सबसे पहले
अपने गुरू की वन्दन करता हूँ फिर बाद में भगवान की स्तुति। एक गीत में विरह की
व्याकुता की झलक देखिए:-
मैं तो नई जानौं राम, नई जानौं
राम,
जिया बियाकुल पिहा बिना
(हे राम। मैं नहीं जानती, नहीं
समझती कि क्यों प्रियतम के बिना मेरे प्राण व्याकुल है) इस पद की अगली पंक्ति में
नायिका कहती है:-
कच्चा लोहा सरौता के,
सइंया हे नदान।
फोरे न फूटय सुपरिया,
बिना बल के जवान।
जियरा बियाकुल पिहा बिना।
मेरा बालम अपरिपक्व है, पूर्ण
वयस्क नहीं है, उसकी
सामथ्र्य का सरौता अभी कच्चा है। उससे सुपारी नहीं फूट सकती। अपेक्षित बलविहीन
जवान, अभी
नादान है। फिर भी उसके वियोग में मेरे प्राण बेजार हैं, बेकल हो
रही हूँ।
एक मनोरंजक विचित्रता इस गीत में
देखिए-
बावा कोड़ाइस, तिन डबरी,
दू सुक्खा एक म पानी नहीं।
तेमा पेलिन, तिन
केंवटा
दू खोरवा एक के गोड़े नहीं।
आमन पाइन तिन मछरी,
दू सरहा एक के पोटा नहीं।
भोला बेंचिन, तिन
रूपया।
दू खोटहा, एक चलय
नहीं।
ये किस्सा ल समढ़ लेहा गा,
नई जाने तउन अडहा ये गा।
क्या दिलचस्प कल्पना है? बाबा जी
ने तीन तालाब खोदवाये जिसमें से दो सुखे और एक में पानी नहीं। उसमें मछली लाने तीन
मछुआरे घुसे जिसमें दो लँगड़े और एक के पाँव ही नहीं है। उनको तीन मछलियाँ मिली
जिसमें से दो सड़ी हुई थी और एक मछली की आँते नहीं थीं। उसे तीन रूपये में बेचा
गया तो दो सिक्के मिले खोटे और एक ऐसा जो
बाजार में चला ही नहीं।
अब गौर कीजिए कथा के उस निरक्षर लोक
गायक के चातुर्य कौशल को जिसने इस अटपटे अनबूझ कथानक को नहीं समझ पाने की बात
कबूलने के पहले से यह घोषित कर दिया कि नासमझी बताने वाले मूर्ख कहे जायेंगे।
डंडा नाचने वालों को धान देकर बिदाई
दी जाती है। गाँव-गाँव में डंडाहारों के नाच गान से वातावरण संगीतमय हो जाता है।
घरों-घर पकवान बनाए जाते और इष्ट मित्रों के साथ खाये जाते हैं।
इस तरह अन्नदान का यह सामूहिक
महोत्सव सम्पन्न हुआ करता है।
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