मानसिक रोगियों और विकारों का गढ़ भारत
तनाव और अवसाद
- सचिन कुमार जैन
बहुत कुछ घटता रहता है। हम उसे सामान्य
परिस्थिति मानते हैं। बातें और घटनाएँ मन-मस्तिष्क के किसी कोने में छिपकर बैठ
जाती हैं। अक्सर उभरती हैं और मन को विचलित कर जाती हैं। फिर कहीं दुबक जाती हैं।
व्यक्ति को लगता है कि कोई उसे रोकने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहा है।
व्यक्ति को लगता है कि 'वह’ मेरे
बारे में बात कर रहा है! इसी आधार पर मानस बनाता है और व्यवहार करने लगता है। मन
में बैठी बात तनाव में बदल जाती है। जीवन में फिर कोई घटना घटती है और व्यक्ति उस
घटना से अपने मन में बैठी बात को जोड़ देता है; तनाव
उन्माद या अवसाद में बदला जाता है।
मुझे लगता है कि मेरा साथी या परिजन मेरे
मुताबिक व्यवहार नहीं कर रहा है। मैं अपने पैमाने बना लेता हूँ और उन पर
मित्रों-परिजनों को तौलना शुरू कर देता हूँ। मेरे भीतर कुछ खलबलाने लगता है या तो
मुझे गुस्सा आता है या फिर मैं मन में बातें दबाने लगता हूँ।
व्यक्ति सोचता है कि आने वाले कल में क्या होगा? व्यापार
या उद्यम चलेगा या नहीं? मंदी तो नहीं आ जाएगी? आय
कम हो गई तो मैं परिवार की ज़रूरतें
कैसे पूरी करूँगा या कर्ज़ की
किश्तें कैसे चुकाऊँगा? ऐसे विचार हमेशा के लिए घर कर जाएं, तो?
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के शरीर ही नहीं
बल्कि मन में भी बहुत बोझ होता है। उन पर सामाजिक मान्यताओं और रूढिय़ों को मानने का
दबाव होता है; तो वहीं दूसरी तरफ सम्मानजनक
व्यवहार, देखरेख और भोजन न मिलने के कारण
भ्रूण के विकास पर भी गहरा असर पड़ता है। प्रसव शारीरिक रूप से बहुत पीड़ादायक
होता है। बताते हैं, प्रसव के समय 20
हड्डियाँ टूटने के बराबर का दर्द होता है। जब ऐसे में संवेदनशील व्यवहार नहीं
मिलता और उनकी पीड़ा को महसूस करने की कोशिश नहीं की जाती है, तो
वे अवसाद में चली जाती हैं। मज़दूर को जब काम के बदले मज़दूरी
नहीं मिलती है या जब किसान की फसल खराब हो जाती है, तब
वह संरक्षण और उपेक्षा के कारण अवसाद में चला जाता है।
रिश्तों से लेकर, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, व्यापार, परीक्षा
के परिणाम, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, काम
के दौरान अच्छा प्रदर्शन कर पाना, न कर पाना; हमारे
रोज़मर्रा के जीवन की घटनाएँ हैं, जिन पर मन
में बातें चलती रहती हैं। उन बातों को बाहर न निकाला जाए, तो
पहले वे हमारे व्यवहार पर असर डालती हैं और फिर व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं।
व्यक्ति में यह कुछ ज़्यादा ही गहरी अपेक्षा हो सकती है कि दूसरे लोग मेरे बारे
में अच्छी-अच्छी बात करें, मेरा विशेष ख्याल रखें। ऐसा न होने
पर व्यक्ति दूसरों की संवेदना हासिल करने के लिए स्वयं को निरीह और/या बहुत दुखी 'साबित’ करने
में जुटा रहता है। यह उसके व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हो जाते हैं ,जो हमें भीतर से बहुत असुरक्षित और
भयभीत बना देते हैं। मसलन कहीं मेरा वाहन दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं हो जाएगा, ट्रेन
तो नहीं छूट जाएगी या कहीं पैसे तो चोरी नहीं हो जाएँगे?
मन में बसी बातें जब बाहर नहीं आती हैं या जब
मन की गढ़ी हुई बातों पर संवाद नहीं होता है या सही परामर्श नहीं मिल पाता है, तो
वे तनाव बनती हैं और अगला चरण अवसाद (यानी डिप्रेशन) का रूप ले लेता है।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी)
द्वारा हाल में जारी आँकड़ों
से पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409
लोगों ने आत्महत्या की।
अवसाद मानसिक रोगों का एक रूप है। मानसिक रोग
कोई एक अकेला रोग नहीं है। ये ऐसी स्थितियाँ या रोग हैं, जिनका
असर हमारे व्यवहार, व्यक्तित्व, सोचने
और विचार करने की क्षमता, आत्मविकास, सम्बन्धों पर पड़ता है।
मानसिक रोगों में मुख्य रूप से शामिल हैं - वृहद अवसादग्रस्तता (मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर), एकाग्रताविहीन
सक्रियता का विकार (अटेंशन डेफिसिट हायपरएक्टिव डिसऑर्डर), व्यवहार
सम्बन्धी विकार, ऑटिज़्म, नशीले
पदार्थों पर निर्भरता, भय, उन्माद, बहुत
चिंता होने का विकार (एंग्ज़ायटी), स्मृतिभ्रंश
(डिमेंशिया), मिर्गी, शिज़ोफ्रोनिया, मानसिक
कष्ट (डिस्थीमिया)। शोध पत्रिका दी लैंसेट ने हाल ही में भारत और चीन में मानसिक
स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार-प्रबंधन की व्यवस्था पर शोध पत्रों की शृंखला प्रकाशित
की। इसके मुताबिक इन दोनों देशों में मानसिक बीमारियाँ अगले दस सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ेंगी। वर्तमान में ही
दुनिया के 32 प्रतिशत मनोरोगी इन दो देशों में
हैं।
मानसिक अस्वस्थता के कारण वर्ष 2013 में
भारत में स्वस्थ जीवन के 3.1 करोड़ सालों
का नुकसान हुआ। यानी यदि मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से पहल की जाती तो, भारत
में लोगों को एक वर्ष में इतने साल खुशहाली के मिलते। अध्ययन बताते हैं कि वर्ष 2025 में
मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में 3.81
करोड़ साल का नुकसान होगा।
दु:खद
बात यह है कि अध्यात्म में विश्वास
रखने वाला समाज अवसाद, व्यवहार में हिंसा, तनाव, स्मरण
शक्ति के ह्रास, व्यक्तित्व
में चरम बदलाव, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के संकट को
पहचान ही नहीं पा रहा है। हम तनाव और अवसाद या व्यवहार में बड़े बदलावों को जीवन का
सामान्य अंग क्यों मान लेते हैं ,जबकि
ये खतरे के बड़े चिह्न हैं?
भारत में आर्थिक विकास ने हमें मानसिक रोगों का
उपहार दिया है। वर्ष 1990 में भारत
में 3 प्रतिशत लोगों को किसी तरह के मानसिक, स्नायु
रोग होते थे और लोग गंभीर नशे की लत से प्रभावित थे। यह प्रतिशत वर्ष 2013 में
बढ़कर दुगना हो गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग 7
करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। यहाँ 3000
मनोचिकित्सक हैं, जबकि ज़रूरत लगभग 12 हज़ार
की और है। यहाँ केवल 500 नैदानिक
मनोवैज्ञानिक हैं, जबकि 17,259 की ज़रूरत है। 23,000
मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की का़रूरत है, जबकि
4000 ही उपलब्ध हैं।
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य जन
स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़कर देखने की ज़रूरत
है। विशेष मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत विशेष और गंभीर स्थितियों में ही होती है।
अनुभव बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अक्सर गंभीर विकारों (जैसे
शिज़ोफ़्रोनिया) को प्राथमिकता दी जाती है और आम मानसिक बीमारियों (जैसे अवसाद और
उन्माद) को नज़अंदाज़
किया जाता है, जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही
समाज को ज़्यादा प्रभावित करते हैं। अवसाद और उन्माद के गहरे सामाजिक-आर्थिक
प्रभाव पड़ते हैं। अत: ज़रूरी
है कि बड़े-बड़े चमकदार निजी अस्पतालों के स्थान पर समुदाय केंद्रित मानसिक
स्वास्थ्य व्यवस्था बने।
हमारे यहाँ मानसिक रोगों के शिकार दस में से 1
व्यक्ति ही उपचार की तलाश करता है। शेष को सही मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ न मिलने के
कारण उनकी समस्या गहराती जाती है। भारत में इस तरह की समस्याओं के प्रति अपमानजनक
नकारात्मक भाव रहा है। जैसे ही यह पता चलता है कि व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक या
स्नायु रोग चिकित्सक के पास गया है, तो
उसे भेदभावजनक व्यवहार का सामना करना पड़ेगा। हमारे यहाँ तत्काल ऐसे व्यक्ति को
पागल घोषित कर दिया जाता है जिसे या तो पागलखाने भेज दिया जाना चाहिए या फिर
रस्सियों से बाँधकर
रखा जाना चाहिए। यह न भी हो तो सामान्य पारिवारिक और सामाजिक जीवन से उसे पूरी तरह
से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इनमें भी महिलाओं की स्थिति लगभग नारकीय बना कर रख
दी गई है।
भारत में जो भी व्यक्ति मानसिक रोग के लिए
परामर्श लेना चाहता है, उसे कम से कम दस किलोमीटर की
यात्रा करना होती है। 90 फीसदी को तो इलाका ही नसीब नहीं
होता। मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चला है कि गंभीर और तीव्र मानसिक विकारों
से प्रभावित 99 प्रतिशत भारतीय देखभाल और उपचार
को ज़रूरी
ही नहीं मानते।
भारत में 3.1 लाख
की जनसंख्या पर एक मनोचिकित्सक है। इनमें से भी 80
प्रतिशत महानगरों और बड़े शहरों में केन्द्रित हैं। अर्थात् ग्रामीण
लोगों के लिए दस लाख पर एक मनोचिकित्सक ही है। हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से
डेढ़ प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है। ज़रा अंदाज़
लगाइए कि 650 से ज़्यादा ज़िलों वाले देश में अब तक कुल जमा 443
मानसिक रोग अस्पताल हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में, जिनकी
जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है, एक
भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है।
लैंसेट के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में
लगभग 70 प्रतिशत मानसिक चिकित्सकीय
परामर्श और 60 प्रतिशत उपचार निजी क्षेत्र में
होता है। तथ्य यह है कि डिमेंशिया से प्रभावित व्यक्ति की देखभाल की लागत उसके
परिवार को 61,967 रुपये पड़ती है।
क्या ऐसे में लोग निजी सेवा वहन कर सकते हैं? वैसे
भारत में इस विषय पर बहुत विश्वसनीय अध्ययन और जानकारियाँ भी उपलब्ध नहीं है, जिनसे
इसकी गंभीरता सामने नहीं आ पाती है।
वर्ष 1982 में
भारत में ज़िला
मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया था। 23
सालों यानी वर्ष 2015-16 तक यह कार्यक्रम
महज़ 241 जि़लों तक ही पहुँच पाया। इसकी
गुणवत्ता और प्रभावों की बात करना बेमानी है। भारत में मनोचिकित्सकों की 77
प्रतिशत, नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की 97
प्रतिशत और मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की 90
प्रतिशत कमी है।
एक बड़ी समस्या यह है कि मानसिक स्वास्थ्य की
व्यवस्था में दवाइयों से उपचार पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जबकि
वास्तव में परामर्श, समझ विकास, समाज
में पुनर्वास, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर सबसे
ज़्यादा पहल की ज़रूरत
है। भारत में वर्ष 1997 से सर्वोच्च
न्यायालय के दखल के बाद से इस विषय पर थोड़ी बहुत चर्चा होना कारूर शुरू हुई, किन्तु
समाज आधारित मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम एक हकीकत नहीं बन पाया है। देश में वर्ष 2014 में
मानसिक स्वास्थ्य नीति बनी और इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक,
2013 संसद में आया। यह विधेयक भी मानसिक रोगियों के साथ होने
वाले दुर्व्यवहार और हिंसा को लेकर बहुत स्पष्ट व्यवस्था नहीं देता। उनका पुनर्वास
भी एक चुनौती है।
चूँकि
भारत में स्वास्थ्य शिक्षा पर सरकारें बहुत ध्यान नहीं देती हैं, इसलिए
मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का काम नहीं हुआ। इसी कारण यह माना जाने लगा है कि मानसिक
रोग से प्रभावित हर व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराने की ज़रूरत होती है, जबकि
यह सही नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि 2000
रोगियों में से एक को ही अस्पताल सेवाओं की ज़रूरत पड़ सकती है।
वास्तव में मानसिक रोगों और अस्वस्थता के प्रति
समाज और सरकार का नज़रिया
क्या है, इसका अंदाज़ा हमें कुछ तथ्यों से
लग जाता है। मानसिक रोगों को विकलांगता की श्रेणी में रखा जाता है। ऊपर से मान्यता
यह है कि विकलांग लोग परिवार-समाज पर 'बोझ’ होते
हैं। बात मानसिक बीमारी की हो तो संकट और बढ़ जाता है। मानसिक रोगियों के बारे में
मान लिया जाता है कि अब यह बोझ
हैं।
सच तो यह है कि समस्या को छिपाने के कारण यह
संकट बढ़ रहा है। मसलन जनगणना 2011 के
मुताबिक भारत में मानसिक रोगियों की संख्या 22 लाख
बताई गई, जबकि सभी जानते हैं कि यह आँकड़ा
सच नहीं बोल रहा है। जनगणना में परिवार से पूछा जाता है कि क्या उनके यहाँ कोई
मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति या मानसिक रोगी है। स्वाभाविक है कि कोई यह स्वीकार
नहीं करना चाहता, इसलिए सच सामने नहीं आ पाता।
सच हमें पता चलता है लैंसेट के अध्ययन से कि
भारत में वर्ष 1990 में विभिन्न मानसिक रोगों से
प्रभावित और गंभीर नशे से प्रभावित लोगों की संख्या 10.88
करोड़ थी जो वर्ष 2013 में बढ़ कर 16.92
करोड़ हो गई। अब कारा इस आंकड़े के भीतर झाँकते हैं। इस अवधि में भारत में डिमेंशिया
प्रभावित लोगों की संख्या में 92 प्रतिशत और
डिसथीमिया से प्रभावित लोगों की संख्या में 67
प्रतिशत की वृद्धि हुई है। गंभीर अवसाद से प्रभावित भी 59
प्रतिशत बढ़े हैं। भारत में आज की स्थिति में लगभग 4.9
करोड़ लोग गंभीर किस्म के अवसाद के शिकार हैं। इसी तरह लगभग 3.7
करोड़ लोग उन्माद (एंग्ज़ायटी) की गिरफ्त में हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि माहौल
और व्यवहार का हमारे व्यक्तित्व पर कितना गहरा असर पड़ रहा है और हम परामर्श और
संवाद सरीखी बुनियादी व्यवस्थाएँ नहीं बना पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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