- रमेश
शर्मा
वे बहुत दिनों बाद मेरे घर आए थे, कह
रहे थे... मेरी ही गलती थी इस बीच मैं नहीं आ सका, कहते-कहते
उनकी साँसें फूल
जा रही थीं, वे बहुत थके-थके लग रहे थे, मैंने
उन्हें बैठने का इशारा किया और खुद भी उनके सामने बैठ गया।
यात्रा करना अब कितना कठिन हो गया है, मेरा
रिजर्वेशन कन्फर्म ही नहीं हुआ, पूरी बोगी
भरी हुई थी, कहते-कहते उन्होंने अपनी जगह बदली, कोने
वाली कुर्सी से उठकर वे सामने सोफे पर बैठ गए। उनकी बातें
सुनकर मुझे लगा कि गलती तो हमारी भी थी, हम
तो उन्हें भूल ही चुके थे. स्मृतियों पर जमीं धूल पड़ी की पड़ी रह जाती है, कोई
आकर पोंछ देता है तो लगता है इस बीच बहुत कुछ हुआ, अचानक
मुझे लगा दूर किसी शहर में दुखों की बाढ़ आई होगी, कइयों को
बहा ले गई होगी अपनी दिशा में, लोग बह गए
होंगे, अपने-अपने दुख के साथ! याद आया वे बहुत दिनों
बाद नहीं बल्कि वर्षों बाद मेरे घर आए हैं।, मैं
पूछना चाह रहा था कि वे इतने वर्षों बाद क्यों आए हैं, पर
मेरे भीतर एक आशंका ने जन्म ले लिया, क्या
पता उनके साथ कोई अनहोनी घटित हो गई हो ;इसलिए
वे न आ सके हों और यह विचार आते ही मेरे मन में उथल- पुथल सी मच गई। वे
थोड़े और बूढ़े लग रहे थे। बात करते-करते बीच -बीच
में हँसने की उनकी आदत पूरी तरह छूट चुकी है- मैंने उस वक्त महसूस किया, फिर
भी मैं इंतजार करता रहा... उनके चेहरे पर हॅंसी लौट आए, पर
वे अपनी हॅँसी कहीं छोड़ आए थे... कहाँ? फिलहाल
जान पाना मेरे लिए अभी मुमकिन नहीं था चेहरे की हॅंसी इस तरह साथ छोड़ देती है, यह
मेरे लिए एक नया अनुभव था इस कड़वे अनुभव से मेरा मन भीग कर कसैला हुए जा रहा था, वे
मेरे सामने बैठे थे और मैं उनसे कहीं दूर जीवन के एक ऐसे कालखंड में बहुत पीछे चला
गया जहाँ उनके चेहरे की हँसी अभी बरकरार थी। उन दिनों दिल्ली के पहाडग़ंज इलाके
में उन्हीं के घर में हम किराएदार की हैसियत से रहते थे. बेटे को मिलाकर उनका केवल
तीन का ही परिवार था। मैं और दीपाली ऊपर के फ्लेट में और नीचे के फ्लेट में उनका
परिवार रहता था। वे हॅंसमुख, मजाकिया और
एक मुकम्मल इन्सान थे।
मुझे
याद है उस दिन उनकी शादी की एनिवर्सरी थी, वे
सज-धजकर काफी अच्छे मूड में लग रहे थे, चाची
भी लाल रंग की कांजीवरम् की साड़ी में खूब जँच रही थी, हालाकि
दोनों की उम्र पचास के पार जाने को थी ,पर
उनकी वेशभूषा से युवाओं -सा
लुक आ रहा था। उस दिन एक छोटी सी पार्टी भी घर में उन्होंने अरेंज की थी। खाने
पीने का भरपूर प्रबन्ध उन्होंने कर रखा था कुछ आत्मीय परिजन एवं मित्र भी उस दिन
मौजूद थे, पार्टी शुरू हुई, खाने
पीने का दौर चला, तब कुछ मित्रों ने उनसे गाने की
फरमाईश की थी। उस वक्त रफी के गाए गीत सुनाकर उन्होंने हम सबको विस्मित कर दिया
था।
वो
फूलों की रानी बहारों की मलिका
तेरा
मुस्कराना गजब ढा गया...
रफी के वो मीठे बोल ,जिसे उन्होंने उस दिन बेहतरीन स्वर
दिया था, कई-कई दिनों तक हमारी लबों में
आ-जा रहे थे। उनके सामने चाची का शरमाकर
ठुमके लगाना भी हमें कई-कई दिनों तक याद रहा. उस दिन गाने के बाद फिर उन्होंने
पड़ोसन पिक्चर में सुनील दत्त और किशोर कुमार के किरदारों को पूर्ण भाव भंगिमा के
साथ प्रस्तुत करके हम सबको लोट-पोट कर दिया था।
मैं पुरानी स्मृतियों में डूबा हुआ था। अचानक
उन्होंने जम्हाई ली, तब मेरा ध्यान उनकी ओर गया- आप थक
गए होंगे, थोड़ा फ्रेश हो लीजिए, चाय-नाश्ते
के बाद इतमीनान से बातें करेंगे- कहते-कहते मैंने उन्हें बाथरूम की ओर जाने का
इशारा किया, वे हाँ-हाँ कहते रहे, पर
मेरी बातों का उन्होंने नोटिस नहीं लिया, सामने
वाले सोफे से उठकर दोबारा वे कोने की कुर्सी पर फिर से बैठ गए, फिर
उन्होंने आँखे मूँद ली।
उनके अंदर की बेचैनी रह-रह कर चेहरे पर दिखाई दे रही थी। साधना जैसी मुद्रा में
उन्हें पाकर दोबारा टोकना मैंने मुनासिब नहीं समझा। मैं प्रतीक्षा
करने लगा... वे दोबारा कुछ कहें। अचानक उन्होंने अपनी ऑंखे
खोली और बाथरूम की ओर गए, फ्रेश होकर लौटे, फिर
कहने लगे... शाम की गाड़ी से लौट जाऊँगा मैं !
रिजर्वेशन कन्फर्म है जाने का, सोच रहा था
कुछ दिन तुम लोगों के साथ रह लूँ, पर आने वाले
चार- छह दिनों
तक नो रूम की स्थिति थी, सो यही डेट वापसी के लिए चुनना
पड़ा, कभी-कभी चाहकर भी आदमी कुछ कर पाने
की स्थिति में नहीं होता, बेबसी उसका साथ नहीं छोड़ती।
इतनी हताशा भरी बातें करते हुए आज मैंने पहली
बार उन्हें सुना, मैंने महसूस किया, उनके
चेहरे पर उदासी की एक गहरी परत चढ़ आई है, उनकी
हताशा भरी बातें और उदासी की इस गहरी परत ने मेरी स्मृतियों को खरोंचना शुरू कर दिया। समय के उस कालखंड में, मैं
फिर से वापिस जाने लगा जहाँ उनके साथ घटी वर्षों पुरानी घटनाएँ मुझे याद हो आईं।
आत्मीय सम्बन्धों की वजह से उनके परिवार में अक्सर हमारा आना-जाना तो लगा ही रहता
था। उनके परिवार में घट रही हर छोटी बड़ी घटना की खबर हमें रहा करती। यह 1992 के
बाद आर्थिक उदारीकरण का वह दौर था, जब
देश के अधिकतर युवा
विदेश जाने का सपना वाले अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे थे। उन दिनों कॅरियर को लेकर बेटे
और उनके बीच तनातनी का माहौल था। श्यामल विदेश जाना चाह रहा था और वे उसे विदेश
भेजना नहीं चाह रहे थे।
एक दिन श्यामल को बोलते हुए मैंने सुना था-
पापा! आपने मेरे ऊपर इतनी मेहनत की, पढ़ाया-लिखाया
मुझे! कहाँ-कहाँ, किन-किन शहरों में जाकर क्या-क्या
पापड़ नहीं बेलने पड़े मुझे, और आज एब्रोड
जाने का यह ऑफर जब मुझे मिल रहा है, तो
आप इससे मुझे वंचित करना चाह रहे हैं, जबकि
मेरी खुशनसीबी पर तो आपको गर्व करना चाहिए;
पर आप हैं कि....? उसकी
बातें अधूरी रह गई थीं। उसके चेहरे पर पिता के लिए नाराजगी साफ दिख रही थी। बेटे
के अपने तर्क थे जिसे वे चुपचाप सुन रहे थे। जीवन में कभी-कभी रिश्तों की अंतरंगता
की डोर में बँधे बहुत
करीबी लोग अचानक मन से दूर होने लगते हैं। उस समय श्यामल की बातें सुनकर लगा मुझे
जैसे बाजार ने उसका ब्रेन वॉश कर दिया हो ,
जबकि
इसी शहर में एक बड़ी कम्पनी का वह सीईओ था और सारी सुविधाओं के साथ-साथ महीने में
अच्छी तनख्वाह भी उसे मिल रही थी।
जीवन में छोटी-छोटी चीजों को अधिक अहमियत दे
दिए जाने की वजह से ऐसी परिस्थितियॉं पैदा हुई हैं, इस
बात को वे भली-भाँति समझ
रहे थे, इसलिए बेटे की बातों पर उन्होंने
आगे कुछ नहीं कहा। कुछ
कहते भी तो रिश्तों में खटास पैदा होने के अलावा और कुछ होना नहीं था। कॉर्पोरेट
घरानों के लिए बचपन से अपने बच्चे को तैयार करने में उनका भी हाथ रहा, ताकि
एक मोटी रकम पैकेज के रूप में हथिया पाने में वह सफल हो सके, हर
माता-पिता की तरह अपने बच्चे को रिश्तों की पाठशाला में भेजने में उन्हें कभी
असुरक्षा महसूस हुई थी, इस बात को आज वे शिद्दत से महसूस
कर रहे थे। आज अर्थ की दौड़ में वह सफल तो हो गया और उसी को सफलता का पर्याय मान
लेने में नई पीढ़ी जो तर्क रखती है, वो
सारे तर्क एक के बाद एक उसने इस तरह बिछा दिए कि उस बिछौने में रिश्तों के लिए कोई
स्पेस ही नहीं रह गया था.
जाते 1995 का
वह साल था। दिसम्बर के दिन बीत ही रहे थे, कि
वह घड़ी भी आ गई जब हमारी आँखों के सामने ही श्यामल की फ्लाइट उड़ चली। दिल्ली में
उन दिनों तेज ठंड पड़ रही थी। ड्राइवर के अलावा वे, चाची, मैं
और दीपाली एक साथ एअरपोर्ट से घर को लौट रहे थे। कार के शीशे ड्राइवर ने बंद कर
रखे थे। आधी रात को हाड़तोड़ ठंड के कारण दिल्ली की सडक़ें साँय-साँय कर रही थीं। कार
के बाहर शीशे के उस पार मेरी नजरें आती-जाती रही थीं। यदा-कदा एक दो गाडिय़ाँ पार
हो जातीं कभी ! वहाँ एक गहरा सन्नाटा था और इस सन्नाटे को ये गाड़ियाँ तोड़ने का प्रयास
करती हुई लगतीं। कार के भीतर भी गहरी चुप्पी छाई हुई थी। उस रात मुझे याद है, एअरपोर्ट
से घर लौटते हुए किसी ने अपना मुँह तक नहीं खोला था। दिसम्बर के जाते दिनों की उस
रात ने जैसे सबके ओंठ सी दिए थे। सुबह उठकर मैंने महसूस किया जैसे बीती रात सबकी
ऑंखों से नींद ने भी विदाई ले ली थी। उसके बाद दो-तीन दिनों तक मैंने पाया कि चाचा
ने घरेलू कामों के बहाने अपने को घर में कैद- सा
कर लिया है। मैं उनकी मनोदशा उस वक्त समझ पा रहा था, मैंने
भी ऑफिस के कार्यों में अपने को व्यस्त कर लिया था। धीरे-धीरे उनका मन जब हल्का
हुआ तो हमारा एक साथ उठना-बैठना फिर से शुरू हो गया। मैंने बहुत दिनों तक महसूस
किया कि उनकी नजरें, सुबह का अखबार पलटते हुए सबसे पहले
सरहद पार की खबरों पर ठहर -सी
जातीं। वहॉं कुछ हो न हो ,पर
उनके मन के भीतर की छटपटाहट बेचैनी की शक्ल में चेहरे पर उभर आती, गोया
वे अखबार पर खबरें नहीं बल्कि अखबार के पन्नों पर बेटे की स्मृतियों को छूने की
कोशिश कर रहे हों। उनके घर की उदासी कुछ दिनों के लिए हमें भी उदास कर गई थी। बेटे
की शादी को लेकर भी वे विगत एक दो सालों से चिन्ता में लगे हुए थे कि यह घटना घटित
हुई थी। उसके विदेश जाने के साल भर बाद सरहद पार से यह खबर भी छनकर उन तक पहुँची
कि उसने एक फ्रेंच लडक़ी से शादी कर ली है और कुछ दिनों बाद माता-पिता से आशीर्वाद
लेने इण्डिया पहुँच रहा है। इस खबर से वे खुश थे या नहीं ,यह कह पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं ; पर इस खबर से मुझे जरूर खुशी हुई
थी कि श्यामल का घर आना हो रहा है। पर मेरी यह खुशी भी ज्यादा देर टिक न सकी। वे
दोनों मेहमान की तरह आए और चौबीस घंटे बाद की फ्लाइट से वापिस चले गए। फ्लाइट की
वापसी टिकट एवं उसकी तारीख भी कम्पनी ने तय कर रखी थी। हमने महसूस किया कि उनके
जाने के कुछ महीनों बाद ही चाची ज्यादा बीमार रहने लगी थी। रही सही कसर मेरे
ट्रांसफर ने पूरी कर दी। कुछ महीनों बाद दिल्ली छोडक़र हम भोपाल आ गए। हमारा साथ
छूटना उन्हें बहुत अखरा, पर नियति को तो यही मंजूर था।
इस घटना को वर्षों बीत चुके हैं। यह पूछना मेरे
लिए अभी मुनासिब नहीं कि चाची अब कैसी हैं, जिन्दा
हैं भी या नहीं ? यह पूछने की भी मेरी अभी हिम्मत
नहीं हो रही कि श्यामल और उसकी फ्रेंच पत्नी अभी कहाँ हैं ? वे
घर आते भी हैं या नहीं ? बहरहाल मेरे मन में सवाल तो कई उठ
रहे हैं पर उनका जवाब आना अभी शेष है।
'इस
बीच मेरे बाबू जी गुज़र गए
बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे’ - मैंने
उनका मूड बदलने के लिए अपनी बात शुरू करनी चाही।
'और माँ तुम्हारी ठीक तो हैं?’ -
उन्होंने
इस तरह पूछा कि उनके प्रश्न में एक शुभचिंतक का भाव छलक उठा था।
'हाँ-हाँ ,
माता
जी ठीक हैं, एक सप्ताह पहले ही पड़ोस की महिला
समूह के साथ तीर्थ यात्रा पर गई हैं। ’- मेरी
बातें सुनकर उनके चेहरे पर कुछ समय के लिए खुशी की एक लहर दौड़ गई, उन्होंने
कहा कुछ नहीं, पर उनके चेहरे पर चढ़ी उदासी की
परत को हटते देखकर मैंने महसूस किया कि वे खुश होना चाहते हैं। उनके चेहरे पर
लौटती खुशी देखकर मैंने पूछ लिया- 'आपकी
तबियत तो ठीक रहती है आजकल ?’ हाँ
हाँ, तबियत का तो ऐसा है कि बुढ़ापा तो
अपना असर दिखाता ही है, ऊपर से मेरा अकेलापन... मन में कुछ
सूझता नहीं कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? किताबें
पढ़ने का एक शौक रह गया है, सो
उसी में समय कुछ कट जाता है।
वे इस तरह अपनी बातें कह गए कि मैं उन बातों को
सुनने के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं था.
और
हमारी चाची? पूछते
हुए मैं अपनी व्यग्रता छुपा न सका, वे
मेरी मनोदशा समझ गए, धीरज के साथ अपनी बातों को
उन्होंने कहना आरंभ किया- बेटा तुम्हारी
चाची की तो बरसी है न अगले महीने, इसलिए तो आया
हूँ, तुम लोगों के पास! श्यामल न सही कम
से कम तुम लोग आ सको, तो
कितना अच्छा लगेगा, बहू-बेटे की कमी पूरी हो जाएगी
मेरे लिए !
जीते जी तुम्हारी चाची कहा भी करती थी कि अमरजीत और दीपाली के जाने के बाद बहुत
सूना लगता है हमारा यह घर... ! मुझे हमेशा लगता रहा कि वह किसी बोझ से दबी जा रही
है, मैं उसे वहाँ से उबार नहीं सका, और
वह चली गई हमेशा के लिए साथ छोडक़र! - कहते-कहते उनका गला भर आया था।
मैंने उनके कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा- कुछ
दिन आपको यहाँ हमारे साथ रहना होगा, तब
तक माँ भी आ जाएँगी।, सब साथ चलेंगे, माँ को भी अच्छा
लगेगा, नहीं तो वह बहुत पछताएँगी।
....मेरी बातें सुनकर वे थोड़ा नार्मल
जरूर हुए; पर उनके चेहरे पर हँसी लौट नहीं पाई।
इस बीच दीपाली चाय नाश्ता
लेकर आ गई, मैंने उन्हें डायनिंग टेबल पर चलने
का आग्रह किया, इस बार आसानी से वे वहाँ आ गए और
इतमीनान से बैठकर दीपाली की ओर देखने लगे, उनके
चेहरे पर खुशी मैंने दोबारा देखी। इस दरमियान दीपाली उनसे बातें करती रही और नाश्ता
सर्व करने लगी। चाचा! आपके चेहरे पर हँसी मुझे अच्छी लगती है... मैंने दीपाली को
ऐसा कहते हुए सुना। उसकी बातें सुनकर वे थोड़ा मुस्कराने का प्रयास करने लगे ; पर उनकी हँसी ज्यादा देर तक वहाँ
टिक न सकी।
- बेटी!
लगता है तुम तो मुझे भूल ही चुकी थी! - उन्होंने दीपाली की ओर मुखातिब होकर कहा और
गहरी उदासी में फिर डूबने लगे। मैंने उन्हें वहाँ से खींचना चाहा और नाश्ता करने
के लिए आग्रह करने लगा, वे नाश्ता करने लगे, तब
तक दीपाली उनके सामने बैठकर उनका हाल चाल पूछती रही। छुट्टी का दिन था, मुझे
कोई जल्दी नहीं थी, सो आराम से मैं नहाने चला गया।
नहाते-नहाते पुरानी स्मृतियों में मैं फिर से डूबता चला गया। वे जब से आए थे उनसे
जुड़ी पुरानी स्मृतियाँ मुझे बार-बार अपनी ओर खींच ले जा रही थीं। पुराने दिनों की
ओर लौटना भी मुझे अच्छा लग रहा था। उन्हें कई बार ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएँ खरीद कर
लाते हुए मैं देखता और खुश होता। वे छुट्टी के दिनों में मुझे अपने फ्लैट में नीचे
बुलाते और घंटों, किसी टॉपिक या कभी-कभी किसी कहानी
पर चर्चा करते। इस बीच हमारी चर्चा खतम होने का नाम न लेती। हम कभी-कभी तीन चार
घंटों तक उनके स्टडी रूम में मशगूल रहते किसी ऐसे मुद्दे पर जिसका कोई हल नहीं
दिखता और हम हल ढूँढने की जद्दोजहद में अपनी चर्चा को जारी रखते। इस बीच कभी चाची
चाय बनाकर ले आतीं तो कभी दीपाली को मैं फोन कर देता और वह ऊपर से चाय बनाकर ले
आती, दीपाली के हाथ की चाय वे हमेशा
पसंद करते, उसकी तारीफ करते हुए वे यहाँ तक कह
डालते कि अगले जनम में तुम मेरे घर बेटी बनकर आना, तब
दीपाली कहती अगले जनम में क्या, मैं तो इस
जनम में ही आपकी बेटी ठहरी... उसकी बातें सुनकर वे खुश हो उठते और उसे आशीर्वाद
देते।
वह दिन भी छुट्टी का दिन था जब उन्होंने मुझे
अपने कमरे में बुलाया था, उन्होंने अपना टी.वी.ऑन कर रखा था, उसमें
गाने बज रहे थे, मुकेश की आवाज में गीत बज रहा था ....
संसार है इक नदिया, हम
तुम दो किनारे हैं
ना जाने कहाँ जाएँ, हम
बहते धारे हैं....
उनका ध्यान गाने के बोल पर था, मैं
सामने सोफे पर बैठकर उनके चेहरे को देख रहा था, उस
दिन मुझे पहली बार उनके चेहरे पर चिन्ता की कुछ लकीरें दिखाई पड़ी थीं। अचानक
उन्होंने मुझसे पूछा था... बेटा ! क्या दुनिया में खुशी को कहीं बिकते हुए या किसी
को खरीदते हुए तुमने देखा है? - मैं
उनकी बातों की गंभीरता को एकबारगी पकड़ तो नहीं सका, पर
मुझे लगा कि इसका कुछ न कुछ जवाब तो मुझे देना ही चाहिए और मैंने ना कह दी।
मैं नहाकर लौटा तब तक वे नाश्ता कर पुन:
सोफे पर आकर बैठ चुके थे। अचानक उन्होंने मुझसे कहा... मेरा रूकना तो संभव नहीं है
बेटा! अगर नेट की व्यवस्था तुम्हारे लेप टॉप पर हो तो मैं गाड़ी का टाइम चेक कर
लूँ।
मैंने उन्हें अपना लेप टॉप दिया। इण्डियन रेलवे
का साइट खोलकर गाड़ी का टाइम वे चेक करने लगे, गाड़ी
समय पर चल रही थी। फिर उन्होंने अपना इमेल अकाउंट खोला। इनबॉक्स में उधर से श्यामल का मेल
दिखा। उन्होंने उसका मेल खोला, उसमें लिखा
था- पापा ! मैं माँ की बरसी पर नहीं आ पा
रहा हूँ, क्योंकि यहाँ कम्पनी किसी भी स्थिति में छुट्टी देने को
तैयार नहीं है। अगर विदाउट पे गया तो नौकरी से निकाले जाने का डर भी है, आप
तो समझदार हैं, मेरी बातों को समझने का प्रयास
करेंगे ...... आपका बेटा श्यामल !
उन्होंने मुझसे कहा कुछ नहीं। बहुत देर तक
मॉनीटर स्क्रीन को देखते रहे और अंत में साइन आउट कर डिवाइस को बंद कर दिया। वे
बहुत देर तक चुप बैठे रहे, फिर अचानक सवाल किया- बेटा ! तुम
लोग तो चाची की बरसी पर आ रहे हो न?
उस वक्त बोलते हुए उन्हें मैंने देखा... दु:ख, हताशा
और उदासी की कई-कई परतें उनके चेहरे पर बार-बार आक्रमण कर रही हैं। वे मुझसे हाँ
में ही उत्तर चाह रहे थे, मैं उन्हें थोड़ी खुशी देना चाह
रहा था, इसलिए झट से हाँ कर दी।
हाँ-हाँ कहते हुए उस वक्त मुझे लगा कि दुनिया
में खुशी कहीं खरीदी जा सकती तो उसे उसी समय खरीदकर उनके चेहरे पर चस्पाँ कर
देता...पर आप ही बताएँ क्या यह सम्भव है ?
सम्पर्क: गायत्री मंदिर के पीछे, बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 496001, मो.-09752685148,
Email- rameshbaba.2010@gmail.com
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