- अर्पण जैन 'अविचल’
वो भी संघर्ष करती है, मंदिर-मस्जिद
की लाइन-सी मशक्कत करती है, वो भी इतिहास के पन्नों में जगह
बनाने के लिए जद्दोहद करती है, लड़ती-
भिड़ती है, अपने सपनों को संजोती है, अपने
अरमानों से जिद्द करती है, परेशान इंसान की आवाज़ बनकर, न्याय
के मंदिर की भाँति निष्पक्षता के लिए, निर्भीकता
का अलार्म बनने की कोशिश में, पहचान की
मोहताज नहीं, पर एक अदद जगह की उम्मीद दिल में
लिए, पराड़क़र के
त्याग के भाल से, चतुर्वेदी और विद्यार्थी के झोले
से निकलने के साहस के साथ, भारतेन्दु के हरिश्चन्द्र से लेकर
बारपुते की नई दुनिया
तक, संघर्ष के प्रेमचन्द से निकलती हुई कठोर सत्य
के रज्जु बाबू तक, आदम की नज़र में आकर, समाज
के चौराहे से, संपादक की टेबल तक तरजीह पाने को
बेताब होती है, तब तो जाकर कहीं मुकाम हासिल कर
पाती है,क्योंकि वो 'जिद्दी’ होती
है, जी हाँ, खबर
भी जिद्दी होती है।
खबर की दिशा क्या हो सकती है, जब
इस प्रश्न के उत्तर को खोजने की चेष्टा से गहराई में उतरो तो पता चलता है कि, दफ़्तर
के कूड़ेदान में न पहुँचना ही उसकी सबसे बड़ी ज़िद
होती है। पत्रकारों की मेजों पर दम न
तोडऩा ही, सम्पादक की नज़र में अटक-सा
जाना, खबरची की नज़र में
आना ही उसकी ज़िद का
पैमाना है। पाठक के मानस का अंग बन पाना ही उसकी जिद का प्रमाण है। किाद करने का
जज़्बा और हुनर तो बहुत है खबर में, इसीलिए
वह संघर्ष का स्वर्णिम युग लिख पाती हैं।
बहरहाल, खबर
के आंकलन और ज़िद के ही परिणाम हैं जिससे कई रसूखदार पर्दे से
बाहर आ गए और कई घर ज़द में, बेबुनियाद
रवैये से लड़ती हुई जब संघर्ष के मैदान में कोई खबर आती है तो सरे-आम कई आरोप भी
लग जाते हैं।
व्यवस्था के गहरे असंतुलन और बाज़ारवाद से दिनरात
संघर्ष करना ही खबर का नाम है। जिस तरह से हर जगह बाजार का गहरा प्रभाव हो रहा है, उसी
तरह से कई बार संपादकीय संस्था की विवशता उस खबर के जीवन पर घाव कर देती है ।
तर्क के मजबूत आधार के बावजूद भी कई लाभ-हानि
के जर्फ (पात्र) से गुजर भर जाना ही उसके अस्तित्व का सबसे बड़ा $फैसला
होता है।
यक़ीनन
वर्तमान दौर में पत्रकारिता का जो बदरंग चेहरा होता जा रहा है, उस
कठिन काल में शाब्दिक उल्टियाँ हावी हैं। परिणाम की पराकाष्ठा से परे प्रवर्तन के
अगणित अध्याय बुनती खबरें पाठक की सरज़मीं भी हिलाकर रखने का माद्दा रखती है। अवसान
के सन्दर्भ से उपजकर जिस तरह से मशक्कत के आधार स्थापित करने का जो दर्द एक खबर को
होता है, निश्चित ही वो दर्द अन्यत्र दुर्लभ
है।
खबर, चाटुकरिता
की भीड़ को चीरती हुई, तत्व के अवसाद को धता बताकर समर के
सृजन का विकल्प अर्पण करती है, यही उसके परम
होने का सौभाग्य है, इसीलिए खबर जिद्दी है।
गहन और गंभीर सूचकों का अनुगामी न बन पाना और
जनहित में सृजक हो जाना खबर की पूर्णता का आकलन है। वर्तमान दौर में यदि
खबर जि़द करना छोड़ दे तो मानो संसार में सत्य का देखना भी दूभर हो जाएगा। समाज
में वर्तमान में जिस हीन भावना से मीडिया को देखा जा रहा है, उससे
तो लगता है कि खबर के आज होने पर यह हाल हैं, जब
खबर ही अवकाश पर हो जाएगी,तो
फिर हालात क्या होंगे? सामान्य जनमानस का जीवन ही कठिन हो
जाएगा ।
आम जनता का रखवाला केवल न्याय का मंदिर और
संविधान ही है, उसी संविधान के अनुपालन में जो
भूमिका एक खबर की है उसे नकारा
नहीं जा सकता है। इसी कारण ही संवैधानिक संस्थाओं और शासन-प्रशासन को भय रहता है
पोल खुल जाने का, तभी तो आम जनमानस के जीवन का
अभिन्न अंग भी खबर है ।
जीवन के हर क्षेत्र में जिद्दी खबरों का समावेश
होना, खाने में नमक जैसा है। उपस्थिति की
आवश्यकता है अन्यथा बेस्वाद जिंदगी से जिंदादिली गौण हो जाती है।
पत्रकारिता के पहरेदार भी खबरों की ज़िद के कारण
ही जीवन के केनवास पर अच्छे-बुरे चित्र उकेर पा रहे है, वर्ना
समाज के बंधनों की बलिवेदी पर समाज का ही ख्याल भी रख पाना आसान नहीं है। जब भी समाज
का ताप उच्च होता है तब उस ताप पर नियंत्रण भी खबर ही करती है । अपराध, विवाद, बुराई, कुरीतियाँ, आदि
परिणाम पर अंकुश भी खबरों के माध्यम से ही लगता है। बस ये खबर तो जिद्दी है पर खबर
के पुरोधाओं को भी खुद जिद्दी और सच के आईने को साथ लेकर पानी होना ही होगा।
पत्रकार एवं स्तंभकार,
09893877455
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