असभ्यता की दुर्गन्ध में एक सुगंध
- अनुपम
मिश्रबीस-तीस बरस पहले कुछ लोग मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी। विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहाँ साफ पानी, साफ हवा, साफ अनाज और शायद साफ माथा, दिमाग भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में सम्भवत: महात्मा गाँधी का नाम लेना पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की जरूरत पूरी कर सकती है’ ऐसा विश्वास के साथ केवल गाँधीजी ही कह सकते थे ; क्योंकि अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती’। पहले कुछ सरल बातें। फिर कुछ कठिन बातें भी। एक तो गाँधीजी ने पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं लिखा, कुछ नहीं कहा। तब आज जैसा यह विषय, इससे जुड़ी समस्याएँ वैसी नहीं थीं, जैसे आज सामने आ गई हैं। पर उन्होंने देश की आजादी से जुड़ी लम्बी लड़ाई लड़ते हुए जब भी समय मिला, ऐसा बहुत कुछ सोचा, कहा और लिखा भी जो सूत्र की तरह पकड़ा जा सकता है और उसे पूरे जीवन को सँवारने, सम्भालने और उसे न बिगाड़ने के काम में लाया जा सकता है। सभ्यता या कहें कि असभ्यता का संकट सामने आ ही गया था।
गाँधीजी के दौर में ही वह विचारधारा अलग-अलग
रूपों में सामने आ चुकी थी, जो
दुनिया के अनेक भागों को गुलाम बनाकर, उनको
लूटकर इने-गिने हिस्सों में रहने वाले मुट्ठी-भर
लोगों को सुखी और सम्पन्न बनाए रखना चाहती थी। साम्राज्यवाद इसी का कठिन नाम था।
उस दौर में गाँधीजी से किसी ने पूछा था - 'आजादी
मिलने के बाद आप भारत को इंग्लैंड जैसा बनाना चाहेंगे’ तो
उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया था कि छोटे से इंग्लैंड को इंग्लैंड जैसा बनाए रखने
में आधी दुनिया को गुलाम बनाना पड़ा था, यदि
भारत भी उसी रास्ते पर चला तो न जाने कितनी सारी दुनिया चाहिए । कभी एक और प्रश्न
उनसे पूछा गया था, 'अंग्रेजी सभ्यता
के बारे में आपकी क्या राय है।’ गाँधीजी का
उत्तर था, 'यह एक सुन्दर विचार है।’
अहिंसा की वह नई सुगन्ध गाँधी चिन्तन, दर्शन
में ही नहीं उनके हर छोटे-बड़े काम में मिलती थी। जिससे वे लड़ रहे थे, उससे
वे बहुत दृढ़ता के साथ, लेकिन पूरे प्रेम के साथ लड़ रहे
थे। वे जिस जनरल के खिलाफ आन्दोलन चला रहे थे, न
जाने कब उसके पैर का नाप लेकर उसके लिए जूते की एक
सुन्दर जोड़ी अपने हाथ से सी रहे थे। पैर के नाप से वे अपने शत्रु को भी भाँप रहे
थे। इसी तरह बाद के एक प्रसंग में अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर पूना की
जेल में भेज दिया था। जेल में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका 'मंगल
प्रभात’ लिखी। इसमें एकादश व्रतों पर
सुन्दर टिप्पणियाँ हैं। ये व्रत हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, अभय, सर्वधर्म
समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यता-निवारण।
गाँधीजी ने इस सूची में से स्वदेशी पर टिप्पणी नहीं लिखी। एक छोटा-सा नोट लिखकर
पाठकों को बताया कि जेल में रहकर वे जेल के नियमों का पालन करेंगे और ऐसा कुछ नहीं
लिखेंगे जिसमें राजनीति आए। और स्वदेशी पर लिखेंगे तो राजनीति आएगी ही।

पहले कोई गर्म दूध से जल जाता था ,तो छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता था।
अब तो देश के देश का विकास के या कहें विनाश के गर्म दूध से जल रहे हैं, फिर भी विश्व बैंक से और उधार
लेकर, अपना पर्यावरण गिरवी रखकर बार-बार
गर्म दूध बिना फूँके पी रहे हैं।
तब ऐसे विचित्र दौर में कोई गाँधी विचार की तरफ
क्यों मुड़ेगा? बीस-तीस बरस पहले कुछ लोग मजबूरी का
नाम महात्मा गाँधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी।
विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहाँ साफ पानी, साफ
हवा, साफ अनाज और शायद साफ माथा, दिमाग
भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में सम्भवत: महात्मा गाँधी का नाम लेना
पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की जरूरत पूरी कर सकती है’ ऐसा
विश्वास के साथ केवल गाँधीजी ही कह सकते थे ;
क्योंकि
अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह
धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती’।
जरूरत और लालच का, सुगन्ध और दुर्गन्ध का यह अन्तर
हमें गाँधीजी ही बता पाए हैं। गाँधीजी कल के नायक थे या नहीं, इतिहास
जाने। वे आने वाले कल के नायक जरूर होंगे। (पुस्तक - साफ माथे का समाज से)
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