- मीना गुप्ता
अवकाश
पर जब भी घर जाती हूँ। तो छत पर खड़े होकर सुबह दस बजे की गाड़ी से आयी
सब्जीवालियों को देखना दिनचर्या में शामिल हो जाता है। उनकी संघर्षपूर्ण दिनचर्या
मुझे प्रेरित करती है। सुबह होते ही घर से निकलती हैं तो दस बजे यहाँ पहुँचती है
और शाम छह बजे यहाँ से निकली तो रात दस बजे घर...
बस इतनी ही दिनचर्या और इतनी ही जिन्दगी। तरस
आता है इन पर।
एक दिन सुबह-सुबह एक सब्जी वाली ने दरवाजे पर
दस्तक दी। माँ ने दरवाजा खोला।
आते ही बोली 'अम्मा
लाव चाय पियाव... आज मैं चाय नहीं पिए हौं’
माँ ने उसे चाय पिलाई... चाय के प्रति उसकी
तन्मयता देख मैं ताज्जुब में थी, अत: मैंने
उसे नजरअंदाज किया कहीं वह संकुचित न हो जाए मगर कप रखते हुए बोली-दीदी कबे आये
रहौ... मैंने उस अपरिचिता के मुख से अपने लिए दीदी सम्बोधन सुन समझ न पाई क्या कहूँ ?
कल ही तो। बोली तुम हमें नहीं जनतियु मैं तुम
पंचन को जानथों।
अच्छा ..!
मेरे अच्छा बस सुनकर जब वह चली गई।
माँ से पूछा 'वह
मुझे कैसे जानती है। मैं तो उसे नहीं जानती’
सब्जी वाली थी पहले हरपालपुर से आती थी अब यहीं
रहती है। तुमने पहचाना नहीं ?
नहीं माँ।
बहुत पुरानी सब्जी वाली है ...जब तुम लोग बहुत
छोटे थे तबसे ठाकुर जी की दुकान के सामने सब्जी लगाती थी।
माँ ने मेरी याद को खंगालना शुरू किया... तुम
लोग जब ठाकुर जी के यहाँ खेलने जाती थी, तो
परेशान होकर चिल्लाती थी कि मेरी सब्जियों की टोकरी में छिपकर ये लोग सारी
सब्जियाँ बर्बाद कर देती हैं।
माँ की बातों ने मेरी स्मृति में कौंध डाल
दी... मुझे बचपन की वह रामप्यारी याद आ गई...कसे बदन पर कसा फुल बाहों का
ब्लाउज... लम्बे काले घने बालों का कसा हुआ जूड़ा ... रंगबिरंगी बाँह -भरी
चूडिय़ाँ और उज्ज्वल पैरों में एड़ी भर आलता... जिसे देख लगता कि वह अभी कल ही
ब्याह कर आई है और जालिम पति ने काम पर भेज दिया है। थी तो वह अहीरिन... मगर लगती
किसी ठकुराइन से कम नहीं... मेरी याद का वह हिस्सा मेरे और माँ के बीच दो घंटे तक
चर्चा का विषय बना रहा।
माँ बोली 'अरे
ठाकुर जी की हवेली के सामने बैठती थी और उन्हीं का घर बर्बाद कर गई
कैसे ?
उनके बेटे को बर्बाद कर गई।
माँ
साफ़ बताओ क्या हुआ ?
ठाकुरजी के बेटे जगत सिंह की पत्नी का निधन हो
गया ..भरी जवानी में वह अकेला हो गया... यह दूकान के सामने बैठती थी। थी तो सुन्दर
फिर क्या... ठाकुर जी ने एक दिन दोनों को एक साथ देख लिया और जगत सिंह को कुछ पैसा
देकर बेदखल कर दिया। घर से बाहर कर दिया।
फिर क्या हुआ?
जगत ने इसके नाम घर खरीद लिया और यह हरपालपुर
छोड़ इसी के साथ रहने लगी।
मगर अब... अब जगत सिंह को छोड़ दिया है वह
बेचारा मारा- मारा घूमता है। कहीं भी सो जाता हैं कहीं भी खा लेता है।
क्यों ?
पता
नहीं... कहकर माँ चुप हो गई।
मगर मेरी उत्सुकता ने मुझे बेचैन कर
दिया...दूसरे दिन वह पालक साग लेकर आ
गई... लो अम्मा ताजी है। कहकर डलिया में डाल जाने लगी...
जगत चाचा की बेकद्री की कहानी रात में माँ से सुनी
तो आँसू आ गए थे...मेरी उत्सुकता जो रात भर सो न सकी थी ने उसे रोका और पूछा चाची एक बात पूछूँ।
हाँ पूछो दीदी...
तुमने जगत चाचा को क्यों छोड़ा...जबकि उसने
अपना घर छोडक़र तुम्हे अपनाया था ?
उसने इधर-उधर देखा और बोली वैसे दीदी तुम हमरे बच्चा जैसे हो, लेकिन
अब बड़े हो गए हो तो सुनो -
दीदी
वा रहे ठाकुर और मैं अहीरिन ..जबे नहीं तबे मोही धमकावत रहे और कहे देखा अहीरिन
जैसे रहे... मोर आदमी कबहूँ मोहि अहीरिन नहीं कहे रहिस दीदी... मगर वा बात-बात माँ
अहीरिन कही के गरिआवत रहे... ठाकुर रहे दीदी... ठकुरन की बात औरे होत है... और
और क्या? धीरे
धीरे मोही वही के पास से बदबू आवें लाग.
कैसी
बदबू ? '’
ठकुरैसी की बदबू ..इतना कहकर वह चली गई।
मैं अवाक् थी... एक अहीरिन को अभिजात की बू !
चेतना ने जोर पकड़ा एक अहीरिन ने अभिजात को पटक
दिया।
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