अपना बना लिया
- आशीष दशोत्तर
उतर के सबके दिलों में उसने सभी को अपना बना लिया
है
लबों पे जिसने अगर मुहब्बत का कोई नग़मा सजा लिया
है।
हमारा रूतबा,
हमारी रौनक,
हमारी चाहत नहीं मिटीं है
भले ही पानी में घुल के हमने वजूद अपना मिटा लिया
है।
मिटे हैं दुनिया के ग़म हज़ारों नकार में आए सभी
नज़ारे
नक़ाब जितने पड़े हुए थे सभी को जब से हटा लिया
है।
बना वो हमदम भी, हमसफर भी,
बनाई उसने ही रहगुज़र भी
हमारे सपनों को उसने देखो हमीं से कैसे चुरा लिया
है।
नहीं किसी को बचा सका है, वो नाखुदा भी, या कोई कश्ती
किसी को तिनकों के ही सहारों ने डूबने से बचा
लिया है।
उसी पे बरसा है नूर बेशक़, उसी पे रब की हुई
इनायत
घने अंधेरों में गर किसी ने ज़रा सा दीपक जला लिया है।
जहाँ पे रिश्ते ही छूट जाएँ- जहाँ से गिरकर सँभल न पाएँ
मुझे तो आशीष उसने ऐसी बुलन्दियों से बचा लिया
है।
कभी मुस्कुराता है
कभी ख़ामोश रहता है, कभी
वो मुस्कुराता है
इसी अंदाज़ ही से वो सदा मिलता-मिलाता है।
यहाँ खुद को भुलाकर जो किसी में डूब जाता है
समन्दर से वही इक दिन खज़ाने ढूँढ़ लाता है।
मेरी उम्मीद उजली है मेरे सब रास्ते रोशन
मेरे क़िरदार
का सूरज तभी तो जगमगाता है।
हमें ईमान का ऐजाज़ हासिल हो गया जब से
तभी तो झूठ हमको देख कर यूँ तिलमिलाता है।
नहीं मिलने के यूँ तो हैं बहाने दोस्तों, लेकिन
हमें जो चाहता है वो हमारे पास आता है।
भला आशीष क्यूँ कोई करे उम्मीद क़ातिल
से
कभी ज़ालिम भी क्या
अम्नो-अमा के गीत गाता है?
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