एक शख़्स
हिमांशु जोशी
- सुदर्शन रत्नाकर
अति सँकरी
गली से निकलते हुए जिसके शरीर का कोई अंग दीवार से न टकराए, दलगत
राजनीति के कीचड़ के छींटें जिसके शुभ्र
वस्त्रों पर न पड़ें, जो प्रतिस्पर्धा की भागदौड़ का
हिस्सा न बने फिर भी चर्चित हो। जिसके चेहरे पर सौम्यता, स्मित की
पतली रेखा सदैव विद्यमान रहती हो, वाणी
में गम्भीरता नपे -तुले
शब्द, जो कुछ भीतर है वही बाहर है, कहीं
कृत्रिमता नहीं, कहीं अहं नहीं, सिर्फ़ सादगी। शिष्टाचार की प्रतिमूति, जो
अपनी जन्मभूमि से दूर महानगर में रहकर भी अपनी मिट्टी को नहीं भूलता, ऊँचे
शिखरों की ठंडी हवाओं के झोंके अब भी उसकी साँसों में बसते हैं, जो
अपनी संस्कृति और अपनी परम्पराओं में बँधा है। संतुलित जीवन जीने वाला, संवेदनशील, आकर्षक
व्यक्तित्व, जो भीड़ में भी अलग दिखाई देता है
उस वरिष्ठ, अग्रणी, सशक्त
रचनाकार, पत्रकार, विचारक
का नाम है हिमांशु जोशी जिसके जीवन के गुण सहजता, सरलता, स्वाभाविकता, वैचारिक
गहनता उनके साहित्य में भी प्रतिफलित हैं। इन विशेषताओं ने मेरे अंतर्तम को गहनता
से प्रभावित किया है।
हिमांशु जोशी जी का चर्चित उपन्यास ' तुम्हारे
लिए ' साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका में
धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था ,जिसे
पढ़ कर मेरे भीतर का लेखक जागा था ।मुझे लगा जैसे अप्रत्यक्ष रूप में मुझे लिखने
की प्रेरणा दे दी हो। अठ्ठारह-बीस वर्ष की आयु में मैनें लगभग पुराने सभी लेखकों
को पढ़ लिया था । प्रेमचंद और जैनेन्द्र कुमार मेरे मन पंसंद लेखक रहे । नए रचनाकारों
की रचनाएँ ढ़ूँढ- ढ़ूँढकर
पढ़ती; लेकिन
जो ठंडी बयार के झोंके की तरह मेरे
अंतर्मन को छूती रहीं वह थीं हिमांशु जोशी की रचनाएँ। उनकी सशक्त लेखनी का प्रभाव
मुझ पर आज भी है।
हिमांशु जी से मिलने की लालसा थी; पर
यह सुअवसर मुझे अस्सी के दशक में मिला। हरियाणा साहित्य अकादमी से प्रकाशित
कथायात्रा के विमोचन समारोह में। हिमांशु जोशी विशिष्ट अतिथि के रूप में विद्यमान
थे। मेरी कहानी कथायात्रा में सम्मिलित थी, मैं
भी वहाँ उपस्थित थी। समारोह के समापन के उपरांत मैं उनसे मिली। उन्हें अपना परिचय
-दिया। मेरी कहानियाँ पत्रिकाओं में छपती
थीं। पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकीं थीं। मेरे नाम से वह थोड़ा-थोड़ा परिचित थे। मुझे प्रसन्नता
हुई कि जिन्हें पढ़कर मैंने लिखना आरम्भ किया था, वे मुझे नाम से
जानते हैं।
यात्रा की वापसी पर उनसे लम्बे समय तक बातचीत
करने का सुअवसर मिला। उनके लेखन ने तो मुझे प्रेरणा दी थी, उनका
जीवन के प्रति दृष्टिकोण, व्यावहारिक ज्ञान, स्पष्टवादिता, विशेष तौर
पर महिलावर्ग के प्रति सम्मान
ने प्रभावित किया। वह रिश्तों को निभाना भली -भाँति जानते हैं। उन तीन घंटों की
बातचीत में पता चला कि बदलते पर्यावरण, रहन
सहन के प्रति वे
कितने चिंतित हैं और कितने सचेत भी। उनका मानना है कि भौतिकवाद के कारण हम जाने- अनजाने पर्यावरण को दूषित करते
हैं। छोटी -छोटी
बातों का ध्यान रखकर खान पान में शुद्धता ला सकते हैं,वातावरण
स्वच्छ रख सकते हैं। मशीनीकरण के दुष्परिणामों को दूर कर सकते हैं जैसे अशुद्ध हवा
को हटाने के लिए शुद्ध वायु का प्रवेश आवश्यक होता है। हम अपने उत्तरदायित्वों को
समझें तो कुछ भी कठिन नहीं। बूँद-
बूँद से ही घट भरता है।
उनका
जन्म अल्मोड़ा जि़ले के जोसयूड़ा गाँव में हुआ। बचपन खेतीखान में बीता और शिक्षा
नैनीताल के मनोरम वातावरण में। यह शायद उसी का प्रभाव है कि उनका शरीर तो महानगर
में है ; लेकिन
आत्मा अभी भी वहीं है, जो पहाड़ों की शीतल, शुद्ध
हवाके लिए ललचाती है।
हिमांशु जी कठिनाइयों से कभी नहीं घबराते। जीवन की कई
चुनौतियों को स्वीकारा है, पर निराश नहीं हुए। उनका मूलमंत्र
है जो वह स्वयं के जीवन में भी अपनाते हैं और सम्पर्क में आने वाले को भी कहते
हैं। 'जो हो गया, वह
भी अच्छा था, जो हो रहा है, वह
भी अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छ होगा। जो मिल
गया वह ठीक, जो नहीं मिला वह भी ठीक। जो अच्छा
नहीं हुआ वह भी ठीक। इसी में कोई भलाई छिपी होगी।’ उनकी
ये बातें शक्ति देती हैं। जो इनको जीवन में उतार ले वह कभी दुखी नहीं हो सकता। यही
कारण है कि
उनके जीवन में भागदौड़ नहीं, स्थिरता है।
आत्मतुष्टि झलकती है।
हिमांशु जोशी जी की कहानियों, उपन्यासों में आम आदमी है उसका जिया हुआ यथार्थ है। वह आम आदमी जो हमारे बीच है, जो अपना सा लगता है। उनके दुख दर्द, समस्याएँ उसके खुशी ग़म जैसे हमारे अपने है। हिमांशु जोशी जी का साहित्य के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान है, जो अपनी विशिष्ट रचनाधर्मिता के कारण अलग दिखाई देते हैं लेकिन उससे पहले वह एक आम शख़्स हैं जो आम लोगों की भीड़ में अपने से लगते हैं ।
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