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Feb 19, 2017

चुनाव का मौसम...

चुनाव का मौसम...
   - डॉ. रत्ना वर्मा
  इन दिनों देश भर की नजर पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। सभी जैसे इस बात का इंतजार कर रहे हो कि देखें वहाँ के मतदाता किसे गद्दी पर बिठाते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव, क्योंकि उत्तर प्रदेश और पंजाब में इस बार त्रिकोणीय संघर्ष है। ये चुनाव इस मायने में भी खास हैं; क्योंकि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की राजनीतिक तस्वीर इस चुनाव के परिणामों के आधार पर ही बनेगी। वादों और बड़े बड़े इरादों की इस चुनावी उठापटक के दौर में जनता अपना फैसला तो सुना ही देगी, फिलहाल इस चुनावी माहौल का जायजा लिया जाए-
चुनाव आयोग के नए नियम कायदों के अनुसार अब चुनावी माहौल शोर- शराबे वाला हंगामेदार नहीं सुकून-भरा होता है।  पर पहले ऐसा नहीं था।  एक दौर ऐसा भी था जब  सड़कों, गली मोहल्लों में चुनावी माहौल की एक अलग ही तस्वीर नजर आती थी। प्रत्याशियों के बड़े- बड़े कटऑउट और पोस्टरों से शहर और गाँव अटा पड़ा होता था। बड़ी- बड़ी जनसभाओं का आयोजन होता था। पार्टी के बेहतर वक्ता को तो भाषण देने के लिए बुलाया ही जाता था, भीड़ इकट्ठी करने के लिए फिल्मी हस्तियों को विशेष रूसे आमंत्रित किया जाता था। इतना ही नहीं दिन भर रिक्शा में लाउडस्पीकरों के जरिए पार्टी की खूबियों का बखान करते हुए मतदाताओं से अपने प्रत्याशी के लिए मतदान की अपील करते थे।
 राजनैतिक पार्टियाँ इन सबके जरिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती थीं। बेरोजगारों को इस दौरान बढ़िया रोजगार मिल जाया करता था। कुल मिलाकर किसी उत्सव का माहौल हुआ करता था। पर अब इस उत्सव के आयोजन का तरीका बदल गया है - पिछले दिनों मतदाता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी चुनाव को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव कहते हुए ट्वीट करके, 18 साल पूरा करने वाले मतदाताओं से अपना पंजीकरण कराने के साथ मतदान की अपील भी की है। कहने का तात्पर्य यह कि अब चुनाव प्रचार भी हाईटेक हो गया है। प्रत्याशी अपने पक्ष में प्रचार के लिए इंटरनेट, टीवी और मोबाइल फोन का प्रयोग करने लगे हैं।
अब ये मतदान करने वाले मतदाता ही बताएँगे कि इस हाइटेक हो चुके चुनाव में वे जिन प्रत्याशियों का चुनाव करते हैं, वे उनसे किए गए वादों पर खरे उतरते भी हैं या नहीं। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हाइटेक होना ही पर्याप्त है? अपने बहुमूल्य वोट के बदले जनता की क्या अपेक्षाएँ हैं? सोचने वाली बात यही है कि जब सब कुछ हाइटेक हो रहा है ,तो देश की समस्याओं का निपटारा भी हाईटेक तरीके से हो। क्या नोटबंदी के बाद कैशलेस होने से ही देश की सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा ?
चुनाव आयोग की बंदिशों के बाद से जिस प्रकार चुनाव प्रचार के तरीकों में बदलाव हुए हैं, उसी तरह आजकल चुनाव जीतने के लिए किए जाने वाले वादों में भी बदलाव आ गया है। प्रत्याशी अब विकास और देश की समस्याएँ सुलझाने की बात कम विरोधी पार्टी की खामियाँ गिनाकर, उनकी बुराई करके और उन पर कीचड़ उछालकर चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी अनगिनत समस्याओं को सिर्फ भ्रमित करने के लिए भाषणों में बोला जाता है, पर जीतने के बाद इन समस्याओं को भुला दिया जाता है।
एक ओर प्रत्याशी अपने चुनावी हथकंडे बदल रहे हैं तो दूसरी ओर आज का मतदाता भी कम जागरूक नहीं है वह भी अब समझदार हो गया है। वह अपनी दैनिक जीवन से जुड़ी  रोटी कपड़ा और मकान के अलावा  स्वास्थ्य, शिक्षा, कानून-व्यवस्था आदि समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए अपने मत का प्रयोग करता है। उसे अपने मत का मूल्य अब पता चल गया है। दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है कि मतदाता का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो अपना मत तुरंत मिल रहे प्रलोभन से बदल देते हैं, जिसका फायदा राजनीतिक पार्टियाँ सबसे ज्यादा उठाती हैं। एन चुनाव के वक्त कहीं लेपटॉप कहीं सायकिल तो कहीं महिलाओं को गैस कनेक्शन और सिलाई मशीन बाँटकर एक वर्ग विशेष के मतदाता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए ललचाते हैं। यह वह वर्ग होता है जो तुरंत मिल रहे फायदे को तो देखता है, पर आगे उसका भविष्य कैसा होगा यह सोचने की बुद्धि उसमें नहीं होती। उनकी इसी बुद्धि का भरपूर फायदा प्रत्याशी उठाते हैं।  और उन्हीं के वोटों के बल पर जीत और हार निश्चित होते हैं।
 एक और मुद्दा है, जो चुनाव को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं, वंशवाद धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करना।  जिस लोकतांत्रिक देश का सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला देता है कि चुनाव में धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है, उसी देश में इन्ही सब विषयों को केन्द्र में रखकर वोट बैंक तैयार किए जाते हैं। राजनीति को जितना ही परिवारवाद और जातिवाद से मुक्त करने की बात कही जाती है , ये उतना ही ज्यादा वह प्रभावशाली होते जा रहे  हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया के  सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी राजा- महाराजाओं की तरह राजनीतिक वंश को भी बचाकर रखने के लिए बेटा बेटी और पत्नी के लिए पहले से ही राजनैतिक आधार तैयार कर लिया जाता है।
 फिलहाल तो नोटबंदी इस चुनाव में सबसे बड़ा विषय है। इसके भार तले अन्य मुद्दे गौ हो गए हैं। भ्रष्टाचार, काला धन, रिश्वतखोरी, आतंकवाद जैसे बड़े मुद्दे कहीं हाशिए पर चले गए हैं। एक ओर नेता शब्दजाल में जनता को उलझाने में लगी है, उधर इनके झूठे वायदों से चोटिल मतदाता भी अपनी छापामार लड़ाई लड़ रहा है। परिणाम के दिन मतदान पेटियों से जो निर्णय निकलेगा इस चुनाव में उस पर सबकी कड़ी निगाह हैं।                                                                       

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