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Feb 19, 2017

गुरुजी का सर होते जाना

गुरुजी का 
सर होते जाना
- बी. एल. आच्छा
'गुरुजीऔर 'सरमें फेब्रिक का अन्तर है। वैसे ही जैसा नवजागरण और उत्तर-आधुनिकता में। गुरुजी बड़े आत्मीय और सीधे सच्चे सांस्कारिक प्राणी लगते हैं और 'सरका प्रशासकीय तबका 'पर्सनेलिटीबनकर चौंकाता है। गुरुजी तो पुराने संस्कारों के जीवित संस्करण हैं। मगर 'सरतकनीकी दुनिया के असरदार पुरजे।
यों तो वे भी 'सर ही हैं,  मेरे पड़ोसी भी। पर उनकी सादगी का कायल होकर मैं उन्हें आत्मीयतावश 'गुरुजीही कहता हूँ। उम्र में 7-8 बरस बड़े हैं, पर आदर के साथ जरा दोस्ताना अंदाज भी मेरे उनके बीच रचा बसा है। अकसर किताबों में डूबे रहते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। पर न दिखावा, न प्रदर्शन। फिर भी न जमाने के शिक्षाशास्त्र पर भी उनसे बहसबाजी हो जाती है। एक दिन मैंने उनसे कहा -'गुरुजी, यह जमाना तो स्मार्ट मोबाइल से लेकर स्मार्ट सिटी तक स्मार्ट ही स्मार्ट है। अब तो पुराने जमाने के सम्राट को भी स्मार्ट होना पड़ता है। अब छठा वेतनमान भी खत्म होने को है, सातवाँ लागू हो जाएगा। थोड़ा आप भी तो स्मार्ट हो जाएँ।चाय पर अनौपचारिक चुहल के साथे मैंने कहा। उन्होंने ठहाका लगाया। बोले - अरे भई,  साठ का पाठ तो उम्र ही पढ़ा रही है। फिर लिखना-पढऩा तो चलता ही रहता है। किताबें भी छपी है। भाषण भी दे ही आता हूँ। अब बताओ, और कैसे स्मार्ट हुआ जाए ?
मैंने मुस्कुराते हुए कहा - एक दिखनौटी सी कार और स्मार्ट सा मोबाइल भी ले लीजिए। अच्छी सी कार से उतरेंगे तो लगेगा कि कोई प्रोफेसर आया है। दमदार है। ऐकेडमिक हैं और फु र्सत में, मोबाइल या माउस पर अँगुलियाँ चलाते रहेंगे तो भी 'लेपटॉपसरीखे टिपटॉप हो जाएँगे। फिर आप नहीं पढ़ाएँगे तब भी इम्प्रेशन तो बना ही रहेगा।
वे फिर पुराने गुरुजियों सरीखा ठहाका मारते हुए बोले - 'अरे भई मुझसे एक अखबार के संवादाता ने पूछ लिया था। यही कि नये वेतनमान से शिक्षा में क्या बदलाव आएगा? मैंने उनसे कहा कि जो बोलूँगा वह आप वह छाप नहीं पाएँगे । पत्रकार ने कहा कि जो आप बोलेंगे, वह हम जस का तस सचित्र छाप देंगे। मैंने कहा कि इतनी बड़ी बिरादरी को आप नाराज नहीं कर पाएँगे। पत्रकार ने कहा - 'चलो न सही, पर आखिर आप कहना क्या चाहते हैं ?’ मैंने कहा 'अब लोग किताब नहीं कार ही बदलेंगे।पत्रकार इस गुणात्मक अंतर की बात सुनकर चुपचाप चल दिये। अब आप हैं कि गुणवत्ता बढ़ाने के लिए मुझसे इस बुढ़ापे में कार खरीदवा रहे हो।
हँसी तो मुझे भी आई। हँसा भी। पर मैंने कहा - 'गुरुजी यह ज़माना जितने दिखने का है उतना होने का नहीं।कपड़े-लत्ते तो क्या आपकी शर्ट ही एकेडेमिक दिखनी चाहिए, नये जमाने की स्मार्टनेस से पुरानेपन को धता बताती हुई। चलो न सही नये फैशन। पर पुराने सांसारिक टीचर भी धोती-कुर्ते के साथ एक उत्तरीय कंधे पर लटकाकर कार से आते हैं। पुराने बाबा लोग भी कितने नये फेशियल के साथ कार से उतरते हैं और अध्यक्षता की खास जगह बना लेते हैं। आखिर पुरानेपन को भी नये जमाने के रंगरोगन और टीम-टाम तो चाहिए ही न ? फिर मुद्राएँ भी ऐसी हों, तो भीतर के खालीपन को भी चुस्त अंदाज़ दे जाएँ। नये जमाने के नये छापा-तिलक तो सघने ही चाहिए न ?’ वे बोले- 'गुरुजी करके तो देखिए। कितने डायनेमिक और रैंक में ए-प्लस हो जाएँगे।वे हँसते-हँसते चुप हो ग
एक दिन उन्होंने मुझे कहा- 'देखो, हमारा शोध पत्र 'एकलव्यपत्रिका में छपा है।मैंनें कहा - 'गुरुजी यह तो बहुत अच्छा है। काफी छपे होंगे अब तक।वे बोले- बारह तो प्रकाशित पुस्तकें हैं। कई सारे शोध पत्र हैं। मैंने कहा - 'इन्हें पढ़ने वाले भी होते होंगे या अपने को ही बताना पड़ता है कि मेरा शोध पत्र छपा हैं।  वे बोले - अकसर बताना पड़ता है और इसकी सांख्यिकी भी नम्बर देती हैं। मैंने यों ही पूछ लिया - अच्छा गुरुजी यह बताइए कि आपने एक दो प्लॉट-मकान भी ले लिये हैं या...। वे बोले- 'यही तो हमारी दिक्कत हैं, लिखने-छपने के चक्कर में यह कोना तो सूना ही रह गया।  मैंने कहा- गुरुजी, ले लेते तो साठ-सत्तर लाख के आसामी तो हो ही जाते। हाँ,  पर इतना तो छपने-छपाने से मिल ही गया होगा?’ वे आक्रोश में बोले- 'अरे प्रकाशक कुछ देता है क्या? कई बार तो गाँठ का चन्दन घिसना पड़ता है।मैंने कहा - 'यह तो सरस्वती के प्रति ज्यादती है। चलो प्लॉट न सही, मकान न सही, कुछ शेयर वगैरह तो हैंडल करते ही होंगे।वे बोले - 'अरे किस पराये मुहल्ले की बात करते हो। यह तो अजनबी दुनिया है।मैंने कहा - 'गुरुजी फिर ग्रोथ कैसे होगी ?’ वे बोले -'ग्रोथ क्यों नहीं हुई ? देखो, मैं कोई आत्ममुग्ध तो हूँ नहीं, योग्यताएँ तो मेरे पास हैं ही।
            मैंने कहा- गुरुजी आपकी योग्यता पर तो जरा भी संदेह नहीं है। पर आज के जमाने में लोग योग्यता से ज्यादा योग्यता के लक्षणों से ही काम चला लेते हैं और बाकी समय 'ग्रोथमें लगा देते हैं। जिनके पास और कोई तरीका न हो तो वे अध्यक्षताओं से ही अखबारों में अपनी 'ग्रोथउपजा लेते हैं। शिक्षा तो लक्षण माँगती हैं और डिग्रियाँ उनको मानक बना ही देती हैं। पर पुराने खाँटी विद्वानों जैसा स्वाद अब कहाँ खो गया है ? पहले सब्जी मण्डी जाते थे तो देशी धनिये की गंध दूर से ही आती थी और अब धनिये की ढेरी को हिलाते हैं;  फिर भी नाक जस की तस रह जाती है। पर चलो वह न सही, पर नये जमाने के तेवर तो चाहिए ही न ?’ वे बोले - 'पता नहीं मुझे क्या समझाना चाहते हो ?’ मैंने कहा - गुरुजी आप में पुराना स्वाद तो हैं, पर नये जमाने की स्टाइल...। अब आप किसी समाज या कार्यक्रम में जाएँगे तो स्कूटर और कार का अंतर तो समझ में आ ही जाएगा। फिर समाज यह थोड़े ही पूछेगा कि आपके बायोडाटा में कितनी किताबें हैं और कितने शोध पत्र। न क्लास में ही ये सब बताने पड़ते हैं।
गुरुजी थोड़े कसमसा गये। बोले - 'भई तुम्हारी बातें मुझे आउट ऑफ  कोर्स लगती हैं। मैंने कहा - 'गुरुजी, इस पुरानेपन के चलते लोग ही अपने को आउटडेटेड किए जाते हैं। देखिए न स्मार्ट लोग लक्षणों के सहारे ही हर कहीं ठस जाते हैं और आप हैं कि योग्यताओं को छिपाते हुए दरकिनार होते जाते हैं। उन्होंने थका-सा जवाब देते हुए कहा - 'अरे भई अब जिन्दगी इतनी बेरंग निकल गई हैं। न प्लाट, न शेयर न कार। अब ये कारोबार कभी समझ में नहीं आए। लोगों को देखता हूँ तो लगता है कि लक्षण ही उगा लेने चाहिए । पर करें क्या, बचपन में गुरुजी ने डंडा बरसाया और त्याग के संस्कार डाल दि। समझ में ही नहीं आया कि कॅरियर और पर्सनेलिटी क्या होते हैं? पर अब जले पर नमक क्यों छिडक़ रहे हो। चुप भी करो।
मैंने कहा - 'गुरुजी अब तक तो पावर ही था। अब 'पावर-पाइण्टमें पावर है। जमाना नयी टेकनीक में उतर आया है। कमाई भी किताबों से निकलकर नए अंदाज पकड़ रही है। वे बोले- 'अरे भई हमने तो धोती वाले गुरुजी को देखा था। अलबत्ता हम पतलून में आ गए। अब तुम्हारी नयी फैशन टेक्नालॉजी हमसे सने से रही।मैंने भी हार नहीं मानी। बोलो- 'गुरुजी, अस्सी साल का बूढ़ा बरमूडा पहनकर नए जमाने में फिट हो रहा है। आप भी सारे लक्षण उगाते हुए 'कॅरियरकी राह पर पर्सनेलेलिटी में हो जाइए।वे बोले- 'अरे भई, तुमने कैसा तनाव पैदा कर दिया है। मेरा शोध पत्र छपता है, तो लगता है कि सुन्दर- सा गुलाब इस पत्रिका के प्लॉट में खिल गया है। पर तुम्हारे लुभावने कीमती प्लॉट खरीदने या इधर उधर करने का कौशल तो तनाव पैदा कर रहा है। लगता है कि मैंने जिन्दगी अकारथ कर दी है।
मैंने कहा - 'गुरुजी मेरा मकसद तनाव देना नहीं हैं।वे बोले- 'फिर मुझे क्यों उस मायावी दुनिया में उलझा रहे हो ?’ मैंने कहा- 'गुरुजी, मैं तो आपके भाषण को सुनकर ही यह बात कह रहा हूँ। आपने कहा था कि जो नए के अनुसार नहीं चल पाता वह खत्म होता जाता है। जो वर्तमान को देखकर नयी गति पकड़ लेता है, वो बाद नदी के पानी की तरह नयी गति से बहने लगता है।इस बार गुरुजी ने कुछ नहीं कहा। पर उनके चेहरे से लग रहा था कि किताबें भी खरीदते रहेंगे, पर कार तो प्रायोरिटी से खरीदेंगे, गुणवत्ता के विकास के लिए। और गुरुजी नवजागरण की सांस्कारिकता से निकलकर भूमंडलीकृत हो जाएँगे।
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