-डॉ. रत्ना वर्मा
मन तो था कि जाते हुए साल को अच्छी यादों के साथ बिदाई देने के
बाद आने वाले साल का खुशियों के साथ स्वागत करूँ; पर इस जाते हुए साल में दिल दहला देने वाली कुछ ऐसी
घटनाएँ घटी कि नए साल के स्वागत की सारी
खुशियों पर पानी फिर गया।
हैदराबाद में हुई
महिला पशु चिकित्सक के साथ गैंगरैप के बाद उसे जलाकर मार डालने वाली घटना और इसके
एक दिन पहले ही रांची में लॉ कॉलेज की छात्रा के साथ गैंगरेप, राजस्थान में 6
वर्षीय मासूम छात्रा के साथ बलात्कार फिर उन्नाव की युवती को गवाही से रोकने के
लिए उसे सरेआम जला डालने और फिर उसकी मौत की घटना ने फिर एक बार पूरे देश को दुःख और गुस्से से भर
दिया है। ये कैसी मानसिकता है कि अब बलात्कारियों ने सबूत मिटाने के लिए बलात्कार
के बाद महिला को जला कर मार डालने का नया तरीका निकाल लिया है। क्या उन्हें लगता
है ऐसा करके वे पकड़े नहीं जाएँगे? या कानून सबूत न मिलने पर उन्हें छोड़ देगा?
अभी निर्भया कांड
का मामला पूरी तरह से ठंडा हुआ भी नहीं है कि जाते हुए साल के अंतिम महीने में एक
के बाद एक बेटियों के साथ हो रही दरिंदगी ने बेहद निराश और दुखी कर दिया है। किसी ने कहा दोषियों को जनता के
हवाले करो, कोई कह रहा है उन्हें सरेआम
फाँसी दो, तो कोई कह रहा है उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही रखो, यहाँ तक की माबलीचिंग की बात भी की जा रही है।
वकील कह रहे हैं हम इनकी पैरवी नहीं करेंगे। जितने लोग उतनी बातें... और अन्ततः जब
हैदराबाद के चारो आरोपी पुलिस एनकाऊंटर में मारे गए , तो कई और नए प्रश्न उठ खड़े हुए। एक बहुत बड़ा वर्ग कह रहा है कि वे इसी सजा के
लायक थे, इन दरिंदों की यही सजा है, तो
दूसरा वर्ग कह रहा है कि यदि यही न्याय है तो फिर उन दोषियों का क्या, जिन्हें जेल में रखा गया है? ऐसे में न्याय व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं।
क्यों नहीं उन सबका भी एनकाउंटर करके एक बार में ही मामला समाप्त कर दिया जाए।
हमारी सरकार देश की
प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए रास्ता निकालने का प्रयास करती है, दुनिया भर में बातचीत होती हैं। परंतु हमारी आधी
आबादी की सुरक्षा के मामले में गंभीरता नहीं दिखलाई दे रही है । हम क्यों महिलाओं
को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं ? अफसोस की बात है कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर यह बातचीत सिर्फ उस
समय होती है, जब निर्भया जैसा कोई दिल दहला देने वाला मामला
सामने आता है। अब फिर लोग सड़क पर उतर आए हैं। यही नहीं एनकाउंटर के बाद तो दोषी
को तुरंत सजा देने की माँग उठ रही है। जनता कानून को अपने हाथ में लेने को तैयार
है। इसका ताजा उदाहरण बिलासपुर छत्तीसगढ़ का
है, जहाँ एक आठ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के आरोपी को
कोर्ट से जेल ले जाते समय बाहर खड़ी जनता ने पीटना शुरू कर दिया, किसी तरह पुलिस उसे छुड़ाकर ले गई।
कहने का तात्पर्य
यही है कि अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है, देश गुस्से से उबल रहा है। बलात्कारियों को
तुरंत सख्त से सख्त सजा देने की पुरजोर माँग हो रही है।
सच भी है , कुछ
महीनों से लेकर चार- छह वर्ष की नाबालिग बच्चियों के साथ आए दिन बलात्कार की खबरें सुनकर तो शर्म आती
है कि हम ये कौन से दौर में जी रहे हैं, जहाँ बच्ची के पैदा
होते ही माता- पिता के दिल में उनकी सुरक्षा को लेकर ख़ौफ का साया मँडराने लगता है। अब तक तो भारत में लड़कियाँ पैदा होते ही इसलिए मारी जाती
रही हैं क्योंकि उनके लिए दहेज इकट्ठा करना पड़ता
है , वे वंश नहीं चला सकती, वे घर के लिए बोझ होती हैं आदि- आदि... ,पर अब लगता है माता- पिता इसलिए बेटी नहीं चाहेंगे;
क्योंकि अब तो छोटी छोटी दूध पीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं हैं। बलात्कार,
हत्या, शोषण और अत्याचार जैसे मामले हर दिन बढ़ते ही चले जा रहे हैं। ऐसे में कब तक हमारी बेटियाँ और उनके माता पिता डर-डरकर
जीते रहेंगे। यह हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि पिछले साल थॉमसनरॉयटर्स
फाउंडेशन के एक सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में भारत को महिलाओं के लिए सबसे
खतरनाक और असुरक्षित देश बताया था।
ऐसा भी नहीं है कि
महिला अत्याचार के मामलों में कानून में परिवर्तन नहीं किए गए हैं, निर्भया मामले
के बाद तो महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नियम- कानून बनाए गए थे। जैसे- पेट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तरीकों तथा
ट्रैफिक व्यवस्था में बदलाव। 2013 के केन्द्रीय बजट में निर्भयाफंड नाम से
100 करोड़ रुपये का प्रावधान, जो आज 300 करोड़ तक हो गया
है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर देश में ऐसे 600 केन्द्र
खोले जाने थे, जहाँ एक ही छत के नीचे पीड़ित महिला को चिकित्सा,
कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श हासिल हो सके। सार्वजनिक स्थानों पर
सीसीटीवी कैमरे लगाने, महिला थानों की संख्या बढ़ाने और हेल्पलाइन सेवा शुरू करने
की बातें भी कही गई थीं। पर इनमें से कौन-कौन से काम शुरू हुए हैं और वे कितने
सक्रिय हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है ; क्योंकि यदि ये सुविधाएँ शुरू हो गईं हैं, तो फिर आए
दिन महिलाओं पर अत्याचार के इतने ज्यादा वीभत्स और क्रूर मामले क्यों बढ़ते जा रहे
हैं? दिसम्बर 2012में निर्भया गैंगरेप के बाद आज 2019 तक महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की संख्या में वृद्धि ही हुई है। यदि
कानून व्यवस्था सख्त हुए हैं और सुरक्षा के इंतजाम बढ़ें हैं तो फिर बलात्कार की
घटनाओं में कमी क्यों नहीं आई, उल्टे महिलाएँ अब अकेले आने जाने में डरने लगी हैं
कि न जाने किस मोड़ पर दरिंदे छिप कर बैठे हों।
पहला सवाल उठता है
- न्याय व्यवस्था पर, कानून पर, कानून के रखवालों पर, सरकार पर। दिन प्रति दिन बढ़
रहे ऐसे मामलों को देखते हुए तो यही कहना पड़ेगा कि कानून-व्यवस्था और सख्त हों,
दोषी को सजा शीघ्र मिले, माफ़ी का तो प्रश्न ही नहीं उठता चाहे वह नाबालिग ही क्यों
न हो। दूसरा सवाल उठता है – हमारे समाज पर, परिवार पर पालन पोषण के तरीकों पर और
सबसे अहम् शिक्षा व्यवस्था पर। कहाँ कमी रह गई है उसपर चिंतन का समय आ गया है। तीसरा सबसे जरूरी सवाल उठता है आज के बदलते
परिवेश में बच्चों से लेकर
बड़ों तक, सबके हाथ में मोबाइल। इससे पहले टीवी को दोषी
ठहराया जाता था कि टीवी बच्चो को बिगाड़ रहा है। परंतु अब
मोबाइल की लत ने तो क्या बच्चे और क्या बड़े सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक
घर में यदि चार लोग चार कोने में बैठे हैं , कोई चेटिंग कर रहा है , कोई गूगल में सर्चिंग कर रहा
है , तो कोई अपनी पसंद की फिल्म देख रहा है। तो कोई गेम खेलने में व्यसत है। नतीजा समाज और परिवार के बीच दूरी बढ़ रही है,
बच्चों में डिप्रेशन बढ़ रहा है , बच्चे अकेले होते जा रहे हैं या गलत संगत में
पड़कर अपराधी बनते जा रहे हैं।
इन सबका जवाब
तलाशने की जरूरत है। साल को
बिदा करते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज की इस घृणित विकृति को दूर करने के
लिए सब मिलकर कोई सही रास्ता निकालेंगे, ऐसा सख्त कानून बनाएँगे और सुरक्षा की ऐसी
व्यवस्था करेंगे कि कोई भी किसी लड़की की तरफ गलत नज़रों से देखने की हिम्मत भी न
करे। जब समुचित
व्यवस्था में बदलाव आएगा, तभी हमारी बेटियाँ
बेखौफ होकर कहीं भी आ -जा सकेंगी। तथा सरकार का यह नारा- ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ मात्र नारा नहीं रहेगा।
अंत में एक और दुःखद खबर.... दिल्ली में एक फैक्ट्री में
हुए अग्निकांड ने लिखने तक 43 मजदूरों की जान ले ली है। फैक्ट्री का दरवाजा बाहर से बंद
था और वहाँ सो रहे मजदूरों के निकलने का और कोई रास्ता नहीं था। मरने वालों में
ज्यादातर युवा थे। बताया जा रहा है कि
बिल्डिंग में फैक्ट्री अवैध रूप चल रही थी तथा सुरक्षा के नियमों का भी पालन नहीं
किया गया था। दरअसल इस तरह के न जाने कितने
काम वोट बैंक के नाम पर सँकरी गलियों के बंद कमरों
में नियम कानून को ताक में रखकर किए जाते हैं। कोई गंभीर दुर्घटना हो जाने के बाद
ही इन सबका खुलासा होता है। स्वार्थ चाहे राजनैतिक हो चाहे आर्थिक किसी की जान की
कीमत पर यह सब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
1 comment:
हर बार की तरह उदंती का सुंदर अंक बधाई ।और कब तक सम्पादकीय आलेख मन को झकझोर गया।हमारा समाज कहाँ जा रहा है? सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक कहानियाँ,कविताएँ_,व्यंग्य,बाल कथाएँ,क्षणिकाएँ अति सुंदरहैं। सभी रचनाकारों को बधाई ।मेरी लघुकथाओं को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
सुदर्शन रत्नाकर
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