'कहि देबे संदेस' समाज में व्याप्त जाति- भेद को
खत्म करने पर आधारित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म थी। इस फिल्म के निर्माण को ५० वर्ष
अधिक हो चुके हैं। अफसोस तो इस बात का है कि इस ऐतिहासिक फिल्म का सही प्रिंट
उपलब्ध नहीं है। फिल्म के निर्माता निर्देशक मनु नायक ने जरूर इसकी सीडी बनाकर इसे
सहेजने का प्रयास किया है।
इस फिल्म के निर्माण को लेकर आरंभ में आई कठिनाइयों को याद करते हुए
मनु नायक १९६३-६४ के दौर में पहुँच गए ...कि कैसे उन्हें रास्ते में बृजलाल वर्मा मिल गए और कैसे वे उनके गाँव
पलारी शूटिंग के लिए पहुँच गए। इस फिल्म में पलारी के सिद्धेश्वर मंदिर तथा बालसमुंद
तालाब के कई दृश्य फिल्माएँ गए हैं साथ ही गाँव के गली- चौबारे,,घर- आंगन, खेत- खलिहानों का बड़ी खूबसूरती के साथ फिल्मांकन किया गया है। मनु
नायक की यूनिट ने पलारी में २२ दिनों तक
शूटिंग की थी।
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म को छत्तीसगढ़ अंचल में ही फिल्माया जाएगा, यह पहले से ही तय था इसके लिए
पंडरिया और आस-पास के कुछ स्थानों का चुनाव कर लिया गया था। फिल्म निर्माण के
भागीदारों नारायण चंद्राकर और तारेंद्र द्विवेदी के साथ मेरा अनुबंध हुआ था, जिसके अनुसार मुझे पूरी यूनिट के
साथ रायपुर पहुँचना था और पूर्व निर्धारित स्थान पर सीधे शूटिंग के लिए पहुँचना
था। इसका पूरा खर्च भी भागीदार उठाएंगे यह तय था। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर
था। जब मैं अपनी टीम लेकर १२ नवंबर १९६४ को मुंबई से रायपुर पहुँचा तो दुर्ग
रेल्वे स्टेशन पर नारायण चंद्राकर मिले और बताया कि रायपुर में द्विवेदी ने शूटिंग
की कोई तैयारी नहीं की है। मैं तो जैसे होश ही खो बैठा। मेरे साथ मेरी पूरी टीम
थी। पर मेरे ही भागीदारों ने मुझे धोखा दे दिया था। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे
कि मैं अपनी टीम की वापसी के टिकिट का इंतजाम कर पाता। खैर रायपुर में बुनकर संघ
के सामने खपरा भट्ठी के पास अपने खास मित्र रामाधार चंद्रवंशी के निवास पर मैंने
अपनी पूरी टीम को ठहराया और कुछ इंतजाम करने के उद्देश्य से बाहर निकल पड़ा। टहलते
हुए कुछ सोचता सा मैं बस स्टैंड की तरफ निकला- संयोग देखिए रास्ते में मेरी
मुलाकात पलारी के विधायक बृजलाल वर्मा जी (बाद में १९७७ के जनता शासन में वे केंद्रीय
संचार और उद्योग मंत्री भी बने ) से हो गई। मुझे इस तरह सर झुकाए चिंता में पैदल
जाते हुए देख कर उन्होंने पीछे से आवाज लगाई और मेरा हालचाल पूछने लगे। वर्मा जी
को समाचारों के माध्यम से मालूम हो गया था कि मैं छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म बनाने
जा रहा हूँ।
मैंने साथ चलते हुए वर्मा जी
को अपनी परेशानियों से अवगत कराया। वर्मा जी ने गंभीरता से मेरी सारी परेशानी सुनी
और कहा- मनु जी आपने मेरा गाँव देखा है?
मैंने कहा कि आपका गाँव? कौन सा गाँव?
उन्होंने बताया पलारी गाँव।
जब मैंने कहा कि मैं तो
खरोरा से आगे कहीं गया ही नहीं हूँ ।
तब मेरी बात सुनकर वर्मा जी ने जो कहा उसकी
तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी- उन्होंने कहा- च्अगर आप मेरे गाँव में अपनी फिल्म
की शूटिंग करेंगे ,तो मैं सारा बंदोबस्त कर दूँगा । आपकी टीम के रहने के लिए रेस्ट हाउस
बुक करा देता हूँ , भोजन के लिए बर्तन आदि की व्यवस्था करा देता हूँ... और...ज् वे न जाने आगे और क्या-क्या कहते पर इतना
सुनते ही मैं तो भाव- विभोर हो गया। मैंने और कुछ सोचे बिना तुरंत कहा- वर्मा जी
मैंने आपका गाँव तो नहीं देखा है पर मैं अपनी फिल्म की शूटिंग अब तो आपके ही गाँव
में करूँगा।
यह सुनते ही उन्होंने कहा- 'तो ठीक है मैं गाँव एक चिट्ठी लिख देता हूँ क्योंकि मैं तो आज भोपाल जा रहा हूँ ।च् उनके
भोपाल जाने की बात सुनकर मैं फिर घबरा गया। तुरंत बोल पड़ा आप यहाँ नहीं रहेंगे तो
मैं शूटिंग कैसे कर पाऊँगा। वे मुस्कुराए और उसी सहजता से कहा- 'सारी व्यवस्था हो जाएगी आप चिंता
मत करो।च् फिर उन्होंने वहीं खड़े- खड़े बस
स्टैंड में ही अपने चचेरे भाई तिलकराम वर्मा के नाम चिट्ठी लिखी और ड्राइवर को दे
दी। इसके बाद मुझसे कहा जाइए आपका काम हो जाएगा।
इसी दौरान बातों-बातों में जब मैं वर्मा जी को अपनी अपनी अन्य आर्थिक परेशानियों से अवगत करा रहा था तो उनने तुरंत ही एक और प्रस्ताव रख दिया कि 'पूरी फिल्म की शूटिंग तो पलारी में होगी ही साथ ही फिल्म में महिला पात्रों के लिए उनके घर के पुश्तैनी गहने भी पहनने के लिए दे दिए जाएँगे। यह बात उन दिनों वर्मा जी के लिए भले ही सहज रही होगी लेकिन आज जब सोचता हूँ, तो लगता है कितनी बड़ी बात उन्होंने कह दी। आपसी प्यार और दोस्ती में विश्वास का एक ऐसा रिश्ता तब होता था जब डर या धोखे की बात मन में उपजती ही नहीं थी। मेरे लिए तो यह गर्व की बात थी कि उन्होंने मुझे यह सम्मान दिया।
छत्तीसगढ़ में पहने जाने वाले जितने भी गहने फिल्म में नायिकाओं और
अन्य महिला पात्रों ने पहने हैं विशेष कर बिदाई के समय सुरेखा द्वारा पहने गए सोने
के गहने जिसमें गले में पहनी गई ककनी, काले धागे से बँधी सोने की पुतरी, कान के कर्णफूल, नाक के लौंग तथा हाथ में चाँदी
का कटवा सभी वर्मा जी के घर के असली पुश्तैनी गहने हैं। सुरेखा तो उन गहनों को
देखकर रोने लगी थी कि ये सारे गहने मैं ही पहनूँगी । दुलारी बाई ने भी गले में जो
गोल कंठहार पहना है वह तथा फिल्म में अन्य महिला पात्रों द्वारा पहने गए गहने भी
छत्तीसगढ़ के पारंपरिक गहने हैं।
मेरी फिल्म में अधिकतर कलाकार छत्तीसगढ़ से हैं। पलारी गाँव के लोगों ने भी कई छोटी- छोटी
भूमिकाएँ निभाई हैं। वर्मा जी के भाई विष्णुदत्त ने तो नायक के पिता की
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिल्म में चूँकि सहकारिता पर बात की गई है तो
बृजलाल जी का एक भाषण भी हमने फिल्म में रखा है। उन्हें हमने संवाद लिख कर दिया
गया था पर उन्होंने अपने मन से ही सहकारिता पर संवाद बोल दिए। अत: उन्होंने जो
बोला वही हमने फिल्म में रखा है। उनके साथ इस दृश्य में पलारी के बीडीओ ए. पी.
श्रीवास्तव भी बैठे हुए दिखाई देते हैं। जिनका बहुत अधिक सहयोग हमें मिला।
सच बात तो यह है कि पलारी
गाँव के निवासियों का जैसा सहयोग मुझे मिला है वह भुलाए नहीं भूलता। जिसे अपना समझ
कर भरोसे से शूटिंग करने आया था उन्होंने तो दगा किया ,पर असली अपने तो यहाँ मिले जिन्होंने
बिना किसी स्वार्थ के भरपूर प्रेम लुटाया। शूटिंग के लिए वर्मा जी के चाचा बलिराम
दाऊ का पूरा घर मुझे मिल गया था। जिसे जमींदार के घर के रूप में दिखाया गया है।
बहुत बड़े आँगन वाले इसी घर में विवाह और बिदाई का दृश्य भी फिल्माया गया। दाऊ जी
का मैं हमेशा आभारी रहूँगा।
हमने पलारी में २२ दिन बिताए। इस दौरान पलारी में कई स्थानों पर
लगातार शूटिंग हुई। सारे कलाकार लगातार वहीं रहे। उन्होंने गाँव के जीवन को पूरी
तरह जीया। गाँव में सादा खाना बनता था सब वही प्रेम से खाते थे। चूंकि फिल्म की
सभी महिला पात्र गाँव की पृष्ठभूमि से आईं थीं ,इसलिए लगातार इतने लंबे अरसे तक
गाँव में रहने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इतना ही नहीं दुलारी बाई, उमा, सुरेखा सब खुद ही चावल चुनकर
देती थीं और खाना बनाने में सहयोग करती थीं।
फिल्म के किसी भी दृश्य में
कोई अतिरिक्त सेट नहीं लगाया गया था। घर, खेत, आँगन, मंदिर, तालाब, गाँव की गलियाँ सब कुछ बिल्कुल
प्राकृतिक और वास्तविक रूप में ही रखे गए थे। जैसे स्कूल में जो शिक्षक पढ़ाते हुए
नजर आते हैं वे वहाँ वास्तविक जीवन में भी
शिक्षक थे। इसी तरह सतनामी गुरु के प्रवचन के लिए असली गुरु को बुलाया था। उन्हें
कबीर के दोहे के साथ एक संवाद बोलना था- 'कुम्हार किसिम किसिम के हँड़िया बनाथे पर सब्बेच माटी एकेच्च हे। गाय
मन रंग रंग के होते पर सब्बो के दूध एके
होते। अइसने ये दुनिया म रंग- रंग के चोला हम देखथन ...एकर सेती भइया मैं
तुंहर मन से बिनती करत हवं एकता से राहव छूआछूत, ऊंच -नीच सब ल मिटावव उहीं म
तुंहार,
हमार, समाज सबके कल्याण हे।च् लेकिन इस
संवाद को गुरू बोल नहीं पाए, हमारे पास फिल्म कम थी अत: मैंने बचे हुए रील में संवाद को छोटा कर
खुद ही डब किया।
इसके बाद भी फिल्म के कई दृश्य व गाने फिल्माने बाकी थे। सुवा गीत
-तरी हरी नहना मोर नहना री...और झमकत
नदिया... की शूटिंग हम पलारी में ही करना चाहते थे पर अफसोस फिल्म की रील खत्म
होने के कारण ऐसे कई महत्त्वपूर्ण दृश्यों को हमें मुम्बई में सेट लगाकर फिल्माना
पड़ा। सबसे अधिक अफसोस तब हुआ जब दो दिन के लिए बस्तर महाराज महाराज प्रवीरचंद्र
भंजदेव पलारी आए थे। उन्हें भी मैं अपनी फिल्म के लिए कैद करना चाहता था। वह दिन
मुझे आज भी याद है जब बस्तर महाराज ने हमारे साथ बैठकर कढ़ी भात खाई थी।
वह यादगार दिन
शूटिंग के आखिरी दिन वर्मा जी ने हमें चाय के लिए बुलाया। चाय के साथ
उन्होंने सबको छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध व्यंजन चावल के आटे का चीला खिलाया। वह दिन हम
पूरी यूनिट के लिए यादगार दिन था। एक साथ कई चूल्हें चल रहे थे और तवे पर एक के
बाद एक चीला बनते जाता था। पताल (टमाटर) की चटनी के साथ गरम गरम परोसे जा रहे उस
दिन के चीले के स्वाद को मैं इतने बरसों बाद भी भूल नहीं पाता। पलारी से विदाई के
दिन बीडीओ ए पी श्रीवास्तव ने भी पूरी यूनिट को खाने पर बुलाया।
श्रीवास्तव जी ने पूरी शूटिंग के दौरान भरपूर सहयोग दिया। मैं उनका, वर्मा जी का और पूरे पलारी गाँव का आभारी हूँ । उन सबके सहयोग और
प्रेम के बगैर मैं यह फिल्म नहीं बना सकता था। लेकिन आज कहाँ हैं वैसे लोग और वैसा विश्वास कि जिन्होंने
अपने सोने चांदी के पुश्तैनी गहने तिजौरी से निकाल कर शूटिंग के लिए बड़ी सहजता से
दे दिए। धन्य है पलारी गाँव और पलारी के लोग। (उदंती फीचर्स)
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