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1986 को
रायपुर छत्तीसगढ़ के एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित इस रिपोर्ताज को जब मैं
लिख रही थी तब मेरे बाबूजी मेरे साथ थे। उनके साथ अक्सर मैं भी अपने गाँव जाया
करती थी। वे चाहते थे उनके गाँव में खुशहाली रहे, किसान प्रसन्न रहें।
इन्हीं सब बातों पर उनसे चर्चा भी होती रहती थी। मैं उनका दर्द समझती थी, वे जननेता थे, जनता के लिए काम करते थे
और परिवर्तन चाहते थे, पर
व्यवस्था के हाथों लाचार थे। भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, कामचोरी
हर दौर में रही है। आज भी हम इन सबसे लड़ रहे हैं। हम आजादी के इतने बरसो बाद भी
गाँधी जी के आदर्श गाँव को तलाश कर रहे हैं। आज 20 साल बाद भी इस गाँव की
व्यथा को पढ़ कर यही लगता है कि हालात बहुत अधिक सुधरे नहीं हैं। गाँव का किसान आज
मजदूर बन गया है। परम्परागत कारीगरी तो जैसे अब इतिहास की बात हो गई। बुनकर, कुम्हार, लुहार, बढ़ई, चर्मकार, तेली आदि सबके अपने अपने
परम्परागत व्यवसाय हुआ करते थे,
जो गाँव की अर्थव्यवस्था के अंग होते थे। अब वे सब हाथ बेकार हो
गए। उसके बाद की पीढ़ी में से अधिकतर शहरों
पहुँच गए। बाहर कारखानों में बने सामान लाकर बेच रहे हैं या मेहनत मजदूरी करके
गुजारा कर रहे हैं। जो बच गए हैं वे गाँव में किसी तरह कमा- खा रहे हैं। गाँव के
आज की व्यवस्था पर एक अलग ही चेप्टर तैयार हो सकता है, पर यह फिर कभी... आज तो
बाबूजी की यादों को सँजोने का दिन
है....
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मैं पलारी हूँ , और मैं बहुत दु:खी हूँ। आप पूछेंगे क्यों? तो एक शब्द में कहने लायक मेरा दु:ख
नहीं है। मेरी व्यथा लम्बी है। क्या आप मेरी इस लम्बी व्यथा को सुनेंगे? यदि आप नहीं सुनेंगे तो भी मैं सुनाऊँगा ; क्योंकि
मैं बहुत दु:खी
हूँ। मेरा दु:ख जान कर शायद किसी को मेरे प्रति सहानुभूति हो, तो
सुनिए-
मैं रायपुर जिले का एक ब्लाक
मुख्यालय हूँ। आप मुझे एक साधारण सा कृषि प्रधान कस्बा मत समझिए। मैं ऐतिहासिक
महत्त्व का गाँव हूँ- मेरी पवित्र भूमि पर 1500 वर्ष पूर्व एक भव्य किला था। यह किसी राज्य की राजधानी भले
ही न रहा हो, पर
किसी राजा का रजवाड़ा जरूर रहा होगा। गाँव में एक बहुत बड़ा तालाब है जो बाल समुंद
के नाम से जाना जाता है। इसके स्वच्छ जल से मैं गाँव के किसानों को खेती के लिए
पानी देता हूँ, लोगों
की प्यास बूझाता हूँ। इसी तालाब के ऊपर एक ऐतिहासिक शिव मंदिर है जो 9वीँ शताब्दी के आस-पास का बना है। ईंटों और पत्थरों
की अनोखी कारीगरी का कलात्मक नमूना है यह मंदिर। इस मंदिर का जीर्णोंद्धार मेरे
गाँव के एक जमींदार कलीराम वर्मा ने अपने पिता मोहनलाल की स्मृति में करवाया है।
तालाब की खुदाई में मिले शिवलिंग की प्राण- प्रतिष्ठा कराई। । एक वर्ष पूर्व तक इस
ऐतिहासिक मंदिर की देखरेख इस जमींदार परिवार की पीढ़ी ही करती आ रही थी, पर गत वर्ष ही सरकार ने इसे अपने संरक्षण में
ले लिया। पर जब से मेरा यह मंदिर सरकार के हाथों गया है, मैं अनाथ सा हो गया हूँ। सरकार कहती है वह
मंदिर की सुरक्षा कर रही है। उसने उसकी देखरेख के लिए एक चौकीदार भी नियुक्त किया
है, पर मुझे तो वह चौकीदार कभी
नजर ही नहीं आता। मुझे डर है कहीं मेरी ऐतिहासिकता, मेरी कलात्मकता जो इतने वर्षों तक सुरक्षित थी कहीं खो न जाए। मैं
असहाय हूँ कि मैं अपने इस भव्य शिावालय की कैसे रक्षा करूँ?
यह मेरा सौभाग्य है कि चाहे
दूसरे गाँवों भीषण अकाल पड़ा हो या मौसम की कोई विपदा आई हो ,पर
मेरे यहाँ कभी अकाल या किसी त्रासदी की छाया नहीं पड़ी है। पर फिर भी मैं सुखी
नहीं हूँ। मेरे गाँव में वे सभी आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जो कृषकों को मिलना चाहिए;पर अफसोस इन सुविधाओं का फायदा मुझे कभी नहीं
मिला । हाँ, हानि अवश्य हुई है। यहाँ पर ब्लाक स्तर के
अधिकारी हैं, जिनका
काम है सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कार्यक्रमों को ग्रामीणों तक पहुँचाना। सरकार
कहती है कि हम लघु उद्योगों को बढ़ावा दे रहे हैं, पर मेरे गाँव के बुनकरों के करघे
अब घुन खा रहे हैं। लोहार भूखों मर रहा है, तेली की घानी बंद है, ढीमर जो मछली पालकर अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करता था, उसके
जाल सड़ रहे हैं। सोनार, चर्मकार, सबके सब अपने पुश्तैनी धंधे से दूर हट चुके
हैं। भूमिहीन किसान जो कई पीढ़ियों से यहाँ जीवन बसर कर रहे हैं, अब भी भूमिहीन तथा बेघर हैं। मैंने सुना था
सरकार ऋण की सुविधा देती है, पर वह
यह ऋण किसे दे रही है?- यहाँ
अच्छी दुधारू गाय- भैंस के लिए ऋण नहीं दिया जाता, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
चारागाह खत्म हो रहे हैं।
जानवरों के लिए चारे की बात तो दूर, खड़े
रहने का स्थान भी नही है। सड़क, गली, सार्वजनिक बाजार, समय समय पर होने वाले उत्सवों के लिए खली स्थान... सबके सब
खतम हो चुके हैं। यहाँ तक कि लोक निर्माण विभाग की जो सड़क 40 फीट थी वह 20 फीट ही रह गई है। मेरे गाँव में ग्राम पंचायत है, जनपद पंचायत है, राजस्व अधिकारी है, ब्लाक अधिकारी है, पर किसके लिए? ये सब
मेरी धरती पर धरना दिए बैठे हैं। मुझे नहीं चाहिए ऐसे अधिकारी ,जो
मुझे लाभ पहुँचाने की बजाय नुकसान पहुँचा रहे हैं। मेरा बस चले तो मैं इन्हें आज
ही हकाल दूँ। मेरी धरती के लिए ये बोझ हैं....बोझ।
मेरे गाँव में दो बैंक हैं -
किसके लिए - मेरे गाँव के किसानों के लिए न ? उन्हें
ऋण की सुविधा के लिए न? मेरे
ग्रामवासी बहुत भोले हैं उनकी पहुँच ही वहाँ तक नहीं है और यदि कोई भूले भटके वहाँ
तक पहुँच भी जाता है, तो
उसे ऋण का पूरा पैसा ही नहीं मिल पाता।
वैसे मेरा गाँव काफी प्रगति
पर है... मेरे यहाँ फोन भी पहुँच गया है, पर सिर्फ देखने के लिए। कभी
उसकी घंटी सुनाई ही नहीं देती।
कहने को तो यहाँ डाकघर भी है, पर
कभी लिफाफा या टिकट यहाँ मिल जाए ,तो यह डाकघर का सौभाग्य है। मैं अपने अस्पताल
के बारे में तो बताना भूल ही रहा था- अस्पताल है भई- डॉक्टर और नर्स भी हैं ; पर इसमें से किसे फ़ुर्सत
है इलाज करने की, सब
अपने में मस्त हैं। अस्पताल का क्या दोष? हाँ यहाँ का कम्पाउडर ही यहाँ का डॉक्टर है। हाँ ,यहाँ
का कम्पाउडर ही यहाँ का डॉक्टर है। वही इलाज करता है मेरे गाँव के किसानों का।
अस्पताल में मरीजों के रहने की व्यवस्था का तो प्रश्न ही नहीं उठता । दवाइयों
के लिए उन्हें शहर की दौड़ लगानी पड़ती है। मवेशी अस्पताल भी हैं मेरे गाँव में।
...तो
जनाब आप मेरे गाँव को छोटा- मोटा मत समझो। लेकिन रोना यही है ना कि न दवाई है, न
इनको रखने के लिए जगह है। यहाँ तो इंसानों के लिए जगह नहीं है तो बेचारे इन
जानवरों के लिए जगह कहाँ से आएगी। वैसे जो थोड़ी सी जगह है, वहाँ अभी सुअर पल रहे हैं। सरकार ने वह जगह
उन्हें सुअर पालने के लिए दे रखी है।
इतना बड़ा कस्बा है, तो
पुलिस थाना तो होगा ही, पर
यहाँ की स्थिति उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे जैसी है। ग्रामीण बेचारा किसी से परेशान हो
यदि रपट लिखाने जाता है , तो रपट तो
लिख ली जाती है, लेकिन
उसी के विरुद्ध जो रपट लिखवाने गया है- यह कहते हुए कि आखिर तूने
हिम्मत कैसे की रपट लिखवाने की। कभी- कभी तो गरीब को थाने में रात भर बंद कर यातना
भी दी जाती है। अब पुलिस के बारे में और ज्यादा क्या कहें, कहीं हमें ही बंद न कर दे।
पानी की व्यवस्था के नाम पर
यहाँ तालाब, कुएँ और नलकूप है ,परंतु
गर्मी में फिर भी त्राहि- त्राहि मची रहती है। तालाब- कुएँ तो सूख जाते हैं, रही नलकूप की बात तो वे कभी कभार ठीक हालत में
रहते हैं, ये गाँव की शोभा जरूर बढ़ाते
दिख जाएँगे।
मेरे गाँव में 1978 में
जल -योजना
प्रारंभ हुई थी, पर
यहाँ भी वही स्थिति है- या तो पानी बिलकुल बंद यो जगह- जगह पानी यूँ ही रिसता रहता
है। किसे चिन्ता है इसकी? जल
योजना अभी यहाँ पूरी नहीं हुई है- अधूरी पड़ी है, कहाँ गया भई सारा पैसा?
मेरी व्यथा सुनते- सुनते कहीं आप थक तो नहीं गए। अरे भई अभी तो
किस्सा आधा ही हुआ है। तो आगे चलते हैं मंडी की ओर- मंडी में बिचौलियों का बोलबाला
है, इन्हीं के जरिये यहाँ के
किसान अपनी फसल बेच पाते हैं।। सीधा बेचने की कोशिश की तो बेचामैं पलारी हूँ , और मैं बहुत दु:खी हूँ। आप पूछेंगे क्यों? तो एक शब्द में कहने लायक मेरा दु:ख नहीं है। मेरी व्यथा लम्बी है। क्या आप मेरी
इस लम्बी व्यथा को सुनेंगे? यदि
आप नहीं सुनेंगे तो भी मैं सुनाऊँगा ; क्योंकि मैं बहुत दु:खी हूँ। मेरा दु:ख जान कर शायद किसी को मेरे प्रति सहानुभूति हो, तो सुनिए-
मैं रायपुर जिले का एक ब्लाक मुख्यालय हूँ। आप
मुझे एक साधारण सा कृषि प्रधान कस्बा मत समझिए। मैं ऐतिहासिक महत्त्व का गाँव हूँ-
मेरी पवित्र भूमि पर 1500 वर्ष
पूर्व एक भव्य किला था। यह किसी राज्य की राजधानी भले ही न रहा हो, पर किसी राजा का रजवाड़ा जरूर रहा होगा। गाँव में एक बहुत
बड़ा तालाब है जो बाल समुंद के नाम से जाना जाता है। इसके स्वच्छ जल से मैं गाँव
के किसानों को खेती के लिए पानी देता हूँ, लोगों
की प्यास बूझाता हूँ। इसी तालाब के ऊपर एक ऐतिहासिक शिव मंदिर है जो 9वीँ शताब्दी के आस-पास का बना है। ईंटों और पत्थरों की
अनोखी कारीगरी का कलात्मक नमूना है यह मंदिर। इस मंदिर का जीर्णोंद्धार मेरे गाँव
के एक जमींदार कलीराम वर्मा ने अपने पिता मोहनलाल की स्मृति में करवाया है। तालाब
की खुदाई में मिले शिवलिंग की प्राण- प्रतिष्ठा कराई। । एक वर्ष पूर्व तक इस
ऐतिहासिक मंदिर की देखरेख इस जमींदार परिवार की पीढ़ी ही करती आ रही थी, पर गत वर्ष ही सरकार ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया। पर
जब से मेरा यह मंदिर सरकार के हाथों गया है, मैं
अनाथ सा हो गया हूँ। सरकार कहती है वह मंदिर की सुरक्षा कर रही है। उसने उसकी
देखरेख के लिए एक चौकीदार भी नियुक्त किया है, पर
मुझे तो वह चौकीदार कभी नजर ही नहीं आता। मुझे डर है कहीं मेरी ऐतिहासिकता, मेरी कलात्मकता जो इतने वर्षों तक सुरक्षित थी कहीं खो न जाए। मैं असहाय हूँ कि मैं अपने
इस भव्य शिावालय की कैसे रक्षा करूँ?
यह मेरा सौभाग्य है कि चाहे दूसरे गाँवों भीषण
अकाल पड़ा हो या मौसम की कोई विपदा आई हो ,पर मेरे यहाँ कभी अकाल या किसी त्रासदी की छाया नहीं पड़ी
है। पर फिर भी मैं सुखी नहीं हूँ। मेरे गाँव में वे सभी आधुनिक सुविधाएँ
उपलब्ध हैं,
जो कृषकों को मिलना चाहिए;पर अफसोस इन सुविधाओं का फायदा मुझे कभी नहीं
मिला । हाँ, हानि अवश्य हुई है। यहाँ पर ब्लाक स्तर के अधिकारी हैं, जिनका काम है सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कार्यक्रमों को
ग्रामीणों तक पहुँचाना। सरकार कहती है कि हम लघु उद्योगों को बढ़ावा दे रहे हैं, पर मेरे गाँव के बुनकरों के करघे अब घुन खा रहे हैं। लोहार भूखों मर रहा
है, तेली की घानी बंद है, ढीमर
जो मछली पालकर अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करता था, उसके जाल सड़ रहे हैं। सोनार, चर्मकार, सबके
सब अपने पुश्तैनी धंधे से दूर हट चुके हैं। भूमिहीन किसान जो कई पीढ़ियों से
यहाँ जीवन बसर कर रहे हैं, अब भी
भूमिहीन तथा बेघर हैं। मैंने सुना था सरकार ऋण की सुविधा देती है, पर वह यह ऋण किसे दे रही है?- यहाँ अच्छी दुधारू गाय- भैंस के लिए ऋण नहीं दिया जाता, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
चारागाह खत्म हो रहे हैं। जानवरों के लिए चारे
की बात तो दूर, खड़े रहने का स्थान भी नही है। सड़क, गली, सार्वजनिक
बाजार, समय समय पर होने वाले उत्सवों के लिए खली स्थान... सबके सब
खतम हो चुके हैं। यहाँ तक कि लोक निर्माण विभाग की जो सड़क 40 फीट थी वह 20 फीट
ही रह गई है। मेरे गाँव में ग्राम पंचायत है, जनपद पंचायत
है, राजस्व अधिकारी है, ब्लाक
अधिकारी है,
पर किसके लिए? ये सब मेरी धरती पर धरना दिए बैठे हैं। मुझे नहीं चाहिए ऐसे
अधिकारी ,जो
मुझे लाभ पहुँचाने की बजाय नुकसान पहुँचा रहे हैं। मेरा बस चले तो मैं इन्हें आज
ही हकाल दूँ। मेरी धरती के लिए ये बोझ हैं....बोझ।
मेरे गाँव में दो बैंक हैं - किसके लिए - मेरे
गाँव के किसानों के लिए न ? उन्हें ऋण की सुविधा के लिए न? मेरे ग्रामवासी बहुत भोले हैं उनकी पहुँच ही वहाँ तक नहीं
है और यदि कोई भूले भटके वहाँ तक पहुँच भी जाता है, तो उसे ऋण का पूरा पैसा ही नहीं मिल पाता।
वैसे मेरा गाँव काफी प्रगति पर है... मेरे यहाँ
फोन भी पहुँच गया है, पर सिर्फ देखने के लिए। कभी उसकी घंटी सुनाई ही
नहीं देती। कहने को तो यहाँ डाकघर भी है, पर
कभी लिफाफा या टिकट यहाँ मिल जाए ,तो यह डाकघर का सौभाग्य है। मैं अपने अस्पताल के बारे में
तो बताना भूल ही रहा था- अस्पताल है भई- डॉक्टर और नर्स भी हैं ; पर इसमें से किसे फ़ुर्सत है इलाज करने की, सब
अपने में मस्त हैं। अस्पताल का क्या दोष? हाँ
यहाँ का कम्पाउडर ही यहाँ का डॉक्टर है। हाँ ,यहाँ का कम्पाउडर ही यहाँ का डॉक्टर है। वही इलाज करता है
मेरे गाँव के किसानों का। अस्पताल में मरीजों के रहने की व्यवस्था का तो प्रश्न ही
नहीं उठता। दवाइयों
के लिए उन्हें शहर की दौड़ लगानी पड़ती है। मवेशी अस्पताल भी हैं मेरे गाँव में।
...तो जनाब आप मेरे गाँव को छोटा- मोटा मत समझो।
लेकिन रोना यही है ना कि न दवाई है, न इनको रखने के लिए जगह है। यहाँ तो इंसानों के लिए जगह
नहीं है तो बेचारे इन जानवरों के लिए जगह कहाँ से आएगी। वैसे जो थोड़ी सी जगह है, वहाँ अभी सुअर पल रहे हैं। सरकार ने वह जगह उन्हें सुअर
पालने के लिए दे रखी है।
इतना बड़ा कस्बा है, तो पुलिस थाना तो होगा ही, पर यहाँ की स्थिति उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे
जैसी है। ग्रामीण बेचारा किसी से परेशान हो यदि रपट लिखाने जाता है , तो रपट तो
लिख ली जाती है, लेकिन
उसी के विरुद्ध जो
रपट लिखवाने गया है- यह कहते हुए कि आखिर तूने हिम्मत कैसे की रपट लिखवाने की।
कभी- कभी तो गरीब को थाने में रात भर बंद कर यातना भी दी जाती है। अब पुलिस के
बारे में और ज्यादा क्या कहें, कहीं
हमें ही बंद न कर दे।
पानी की व्यवस्था के नाम पर यहाँ तालाब, कुएँ और नलकूप है ,परंतु गर्मी में फिर भी त्राहि- त्राहि मची रहती है। तालाब-
कुएँ तो सूख जाते हैं, रही
नलकूप की बात तो वे कभी कभार ठीक हालत में रहते हैं, ये गाँव की शोभा जरूर बढ़ाते दिख जाएँगे। मेरे गाँव में 1978 में जल -योजना प्रारंभ हुई थी, पर
यहाँ भी वही स्थिति है- या तो पानी बिलकुल बंद यो जगह- जगह पानी यूँ ही रिसता रहता
है। किसे चिन्ता है इसकी? जल
योजना अभी यहाँ पूरी नहीं हुई है- अधूरी पड़ी है, कहाँ गया भई सारा पैसा?
मेरी व्यथा सुनते-
सुनते कहीं आप थक तो नहीं गए। अरे भई अभी तो किस्सा आधा ही हुआ है। तो आगे चलते
हैं मंडी की ओर- मंडी में बिचौलियों का बोलबाला है, इन्हीं के जरिये यहाँ के किसान अपनी फसल बेच पाते हैं।।
सीधा बेचने की कोशिश की तो बेचारे लुट जाते हैं। ...तो जनाब मिली- भगत का जमाना है- क्या करें? सहकारी विपणन संस्था है, सहकारी
राइस मिल भी है पर ये संस्थाएँ हमेशा घाटे में चलती हैं, क्यों घाटे में चलती है इसकी जवाब अधिकारियों के पास नहीं
है। फिर कोई पूछने वाला भी तो नहीं है ; जो वे हिसाब रखें। खाओ- पीओ और मस्त रहो, यही उनकी नीति है। ...बात
थोड़ी गड़बड़ हो गई, मुझे
अपनी सड़कों से बात प्रारंभ करना चाहिए था। खैर कोई बात नहीं, नीचे की ओर नजर जरा देर से पड़ी। मेरी गलियाँ दिन- ब- दिन
सिकुड़ती जा रही हैं। जगह जगह दो- दो फीट के गड्ढे बन गए हैं, न जाने कितने साल हो गए मेरी गलियों की मरम्मत हुए। सरकार
पैसा तो देती है सड़क के लिए, पैसा
विभाग तक पहुँचता भी है पर यहाँ से कहाँ चला जाता है? यदि वहाँ जाकर आप ही पता लगा दो, तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।
मैं प्रकाशमान हूँ अर्थात मैं विद्युत बल्बों
से जगमगा रहा हूँ। ऐसा मैं नहीं सरकारी आँकड़े कहते हैं, पर मेरे अंदर की जो स्थिति है वह आँकड़े नहीं, मैं ही बता सकता हूँ। सरकार हमें और कोई खेल तो खिलवा नहीं
सकती, सो उसने एक तरीका निकाल ही लिया- विद्युत से आँख- मिचौनी
खेलने का। मैं रोज ही विद्युत से आँख -मिचौनी खेलता हूँ। गाँव वाले भी इसमें मेरा साथ देते हैं, पर वे गाली देते हैं... कोसते हैं, कहते है- अच्छा होता ये लट्टू न आया होता, दीया और कंदिल कम से कम घरों को उजियारा तो देता ही था।
जंगल विभाग का डिपो भी है यहाँ- पर न तो इमरती
लकड़ी मिलती , न बाँस और न ही जलाऊ लकड़ी। बहुत कुछ है मेरे यहाँ...
मैं आम गाँवों जैसा नहीं हूँ। मेरी धरती पर
स्वतंत्रता सेनानियों का निवास रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में यहाँ के कई व्यक्ति
जुड़े रहे हैं । मैं एक मामले में भाग्यशाली रहा कि मेरे गाँव का एक किसान राज्य
और फिर केन्द्र में मंत्री बना। उसके रहते
मेरे गाँव में अवश्य कुछ उजाले की किरण दिखाई दी, पर
बाद में यह किरण धूमिल
पड़ती गई। सरकार बदलती रही, अधिकारीगण
बदलते रहे। विकास की योजनाएँ बनती रही और फिर उस पर कार्य होता रहा पर शून्य ही
हासिल हुआ।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो मेरे क्षेत्र से
हमेशा ही कांग्रेस का प्रत्यशी जीतता रहा है। विडम्बना यह कि 1977 में जनता लहर में भी कांग्रेस का ही प्रत्याशी जीता, पर उसने मेरे लिए क्या किया अब तक? मेरे लिए कॉलेज का सपना देखना तो दूर की बात है, पर जो स्कूल हैं उसकी ही हालत चिन्ताजनक है। 100 वर्ष पूर्व बना यहाँ का प्रथमिक शाला भवन खंडहर दिखने लगा
है; परन्तु बच्चे यहीं पढ़ने को मजबूर
हैं। थोड़ी ज्यादा वर्षा हुई नहीं कि स्कूल की छुट्टी।
एक स्कूल लड़कियों का भी है, उसकी
भी हालत ऐसी ही है। जो मिडिल स्कूल है ,वहाँ विद्यर्थियों की संख्या इतनी है कि कमरे छोटे पड़ते
हैं। गाँव में लोग पढ़ाई में रुचि नहीं लेते । यह कहना अपनी कमजोरी को छिपाना है। यहाँ पढ़ाई के लिए अच्छा वातावरण, अच्छी सुविधा कहाँ होती है। फिर शिक्षक भी गाँव में रहकर
पढ़ाना नहीं चाहते, कारण गाँव में उनके लिए कोई सुविधा मुहैया नहीं
कराई जाती। न रहने को घर, न
स्कूल में पढ़ाई के पर्याप्त साधन। कोई चाह कर भी ऐसी स्थिति मैं कैसे पढ़ाएगा और
पढ़ेगा। मेरे गाँव में एक हाईस्कूल भी है, पर
इसका अपना भवन नहीं है। ऐसा भी नहीं कि हाईस्कूल अभी हाल में ही खुला हो 20-25 वर्ष हो गए इसे
खुले, पर किसे फुर्सत है इसके भवन के लिए कुछ करने की। चुनाव तो
हर बार जीत ही जाते हैं, फिर
क्या करना है फालतू दौड़-धूप करके। यह मेरे गाँव का एक खाका है, ऊपरी
हिस्सा है। आप कल्पना कर सकते हैं कि क्षेत्र के मुख्यालय की जब यह स्थिति है, तो पूरे क्षेत्र का क्या हाल होगा। आप ही सोचिए क्या मेरे
जैसे गाँव 21वीं सदी में प्रवेश करने लायक हैं।
व्यथा बहुत लम्बी है, पर आज के लिए इतना ही काफी है। यदि मेरी इस व्यथा को सुनकर
कहीं थोड़ी बहुत भी हलचल हो तो मैं समझूँगा अभी हमारे देश में एक दूसरे के लिए
संवेदना बाकी है और हम मनुष्य कहलाने लायक हैं।
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