तुरतुरिया
छत्तीसगढ़ अपनी पुरातात्त्विक सम्पदा के कारण आज भारत ही नही विश्व में
भी अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। यहाँ के १५००० गाँवों में से १००० ग्रामों में
कहींीं न कहीं प्राचीन इतिहास के साक्ष्य आज भी विध्यमान हैं, जो कि छत्तीसगढ़ के लिये एक गौरव
की बात है।
इसी प्रकार का एक प्राकृतिक एवं धार्मिक स्थल रायपुर जिला से ८४ किमी
एवं बलौदाबाजार जिला से २९ किमी दूर कसडोल तहसील से १२ किमी दूर प.ह.न. ४ बोरसी से
५ किमी दूर और सिरपुर से २३ किमी की दूरी पर स्थित है जिसे तुरतुरिया के नाम से
जाना जाता है। उक्त स्थल को सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थल
प्राकृतिक दृश्यों से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है जो कि पहाडिय़ों से घिरा हुआ है।
इसके समीप ही बारनवापारा अभ्यारण भी स्थित है।
तुरतुरिया बहरिया नामक गाँव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है।
जनश्रुति है कि त्रेतायुग मे महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और लवकुश का
जन्मस्थली यही है।
इस स्थल का नाम तुरतुरिया पडऩे का कारण यह है कि बलभद्री नाले का
जलप्रवाह चट्टानों के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलों के
कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। (छत्तीसगढ़ी में कहते है तुरतुर- तुरतुर पानी
बोहावत हे) जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है। इसका जलप्रवाह एक लम्बी
संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड मे गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन
ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड मे यह जल गिरता है वहाँ पर एक गाय
का मुख बना
दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के
दोनों ओर दो प्राचीन प्रस्तर की विष्णु जी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं । इनमें से एक
प्रतिमा खड़ी हुई स्थिति मे है तथा दूसरी प्रतिमा मे विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे
हुए दिखाया गया है। कुंड के समीप ही दो वीरों की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएँ बनी हुई
है,जिनमे क्रमश: एक वीर एक सिंह को
तलवार से मारते हुए प्रदर्शित किया गया है तथा दूसरी प्रतिमा मे एक अन्य वीर को एक
जानवर की गर्दन मरोड़ते हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग काफी संख्या में
पाए गए है। इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण
स्तंभ भी सर्वत्र बिखरे पड़े हैं, जिनमें कलात्मक खुदाई कि गई है। इसके अतिरिक्त कुछ शिलालेख भी एवं
कुछ प्राचीन बुद्ध की प्रतिमाएँ भी यहाँ स्थापित है। यहाँ भग्न मंदिरों के अवशेष भी मिलते हैं। इस स्थल
पर बौद्ध,
वैष्णव तथा
शैव धर्म से सम्बन्धित मूर्तियों का पाया जाना भी इस तथ्य को बल देता है कि यहाँ
कभी इन तीनों सम्प्रदायो की मिलीजुली संस्कृति रही होगी। ऐसा माना जाता है कि यहाँ
बौद्ध विहार थे जिनमे बौद्ध भिक्षुणियों का निवास था। सिरपुर के समीप होने के कारण
इस बात को अधिक बल मिलता है कि यह स्थल कभी बौद्ध संस्कृति का केन्द्र रहा होगा।
यहाँ से प्राप्त शिलालेखों की लिपि से ऐसा अनुमान लगाया गया है कि यहाँ से प्राप्त
प्रतिमाओं का समय ८-९ वी शताब्दी है। आज भी यहाँ स्त्री पुजारिनों की नियुक्ति
होती है,
जो कि प्राचीन
काल से चली आ रही परम्परा है। पूष माह में यहाँ तीन दिवसीय मेला लगता है तथा बड़ी
संख्या मे श्रद्धालु आते है। धार्मिक एवं पुरातात्त्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी
प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
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