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Sep 18, 2016

आपातकाल- जेल डायरी के अंश

आजादी के बाद
...तो कश्मीर का वह
हिस्सा भी हमारे पास होता
- बृजलाल वर्मा ( डॉ. रत्ना वर्मा )
सिवनी जेल १५-२-१९७६
सन् १९४५ से १९४७ तक स्वतंत्रता मिलने के दिनों में कांग्रेस नेताओं तथा अन्य पार्टियों, खास तौर से मुस्लिम लीग की नीति की गतिविधियों के बारे में मेरे कुछ विचार-
सन् १९४५ में सारे हिन्दुस्तान में आम चुनाव हुए जिसमें प्रदेश और दिल्ली के लिए भी विधानसभा तथा पार्लियामेन्ट दोनों के चुनाव एक साथ हुए। परंतु इस बार सन् १९३६ के चुनाव में जिस तरह से  कई राज्यों में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बने थे तथा कई में मिश्रित मंत्रिमंडल या मुस्लिम लीग का मंत्रिमंडल बना था वैसा इस बार नहीं हुआ। दिल्ली व अन्य प्रान्तों में जो मंत्रिमंडल बना वह कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा अकाली दल को मिलाकर मिश्रित मं मंत्रिमंडल बना था। प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू थे, उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल, तथा फाइनेन्स मिनिस्टर थे मुस्लिम लीग के लियाकत अली खाँ।
 सन् १९२६-२७ का एक समय वह भी था जब कांग्रेस में दो दल हो गए  थे। अधिक्तर कांग्रेस प्रमुख तब चुनाव लड़कर संसद या विधानसभा में जाना पसंद नहीं करते थे, या यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे सब चुनाव का बहिष्कार करने पर उतारू थे, परंतु पं. मोतीलाल नेहरू तथा सी.आर. दास आदि नेता चुनाव लडऩे के पक्ष में थे। वे वहाँ पर भी संसद के माध्यम से भी अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई उसकी सीमा के अंदर रहकर ही करना चाहते थे; परंतु सन् १९४५ के चुनाव या सन् १९४७ के चुनाव में यह बात नहीं थी। चुनाव लड़ा गया और कांग्रेस को सफलता मिली। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि सन् १९३७ से ३९ के दौर से जो कांग्रेसी सत्ता में जाकर  सत्ता का मजा ले चुके थे, वे किसी न किसी तरीके से अपने को हमेशा आगे रखते थे। इस तरह वे सत्ता में पहुँचने के ही इरादे से सारी राजनीति करते थे तथा कांग्रेस के अंदर- बाहर अपना प्रभुत्व बनाये रखने में उन्होंने बेईमानी करना शुरू कर दिया था।  इस तरह क्रांग्रेस के अंदर काफी गुटबाजी हो गई थी और गुटों के सहारे सारी राजनीति चलने लगी थी।  गाँधी जी का महत्त्व कांग्रेस में धीरे-धीरे कम होता जा रहा था। सत्ता के लिए तथा चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने गाँधीजी का उपयोग शुरू कर दिया था; लेकिन वे गाँधी जी के सिद्धांतों पर आस्था नहीं रखते थे, सिर्फ उनके व्यक्तित्त्व का ही उपयोग करना चाहते थे। जैसे १९४५ में ऑल इंडिया नेतागण ने गाँधीजी का उपयोग खुलकर किया और अपना मतलब साधा।  प्रान्तीय नेताओं ने तो सन् १९३७ से ही उनका उपयोग अपने निजी स्वार्थ तथा सत्ता में आने के लिए करना शुरू कर दिया था।
गाँधी एक युग पुरूष थे उनका निहित स्वार्थ कभी भी राजनीति में नहीं रहा, उनने जब भी और जहाँ भी जन- आंदोलन किया जनहित व राष्ट्र के सभी वर्गों को ध्यान में रखकर किया ;परंतु  कांग्रेस सिर्फ उनकी बात सुनता था और अपना मतलब साधता था, उनके विचारों पर अमल करने की उनकी नियत कभी भी नहीं रहती थी। इसी कारण से हम स्वतंत्रता के बाद उनकी रक्षा नहीं कर सके और एक वीर सेनानी की मौत अपने ही देश के आदमी द्वारा कर दी गई। उनकी मौत पर चर्चिल ने इंग्लैंड में कहा था- 'कि जितने वर्षों तक हमने गाँधी जी की रक्षा की, उतने दिनों तक भी भारतवासी अपने गाँधी की रक्षा नहीं कर सकेज्  स्वतंत्रता के पहले भी चर्चिल ने  पार्लियामेन्ट में कहा था कि भारतवासी अभी इस लायक नहीं है कि उन्हें आजादी दी जाए।
 १९४६-४७ में चर्चिल प्रधानमंत्री नहीं थे लड़ाई खत्म होने पर एटली  प्राइम मिनिस्टर बन गए  थे। उस समय भारतवर्ष में जैसी परिस्थितियाँ  थी ,उसके अनुसार उन्होंने सोचा कि भारत को  स्वतंत्रता  दे दी जानी चाहिए; क्योंकि सन् १९४२ में गाँधी  जी के 'भारत छोड़ोज् आंदोलन ने चारों ओर क्रांति पैदा कर दी थी तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने सन् १९४० में ही भारत जापान से मिल कर, एक बहुत बड़ी हिंदुस्तानियों की सेना बनाकर बरमा देश पर लड़ाई छेड़ दी थी तथा उसे अपने हाथों में लेकर असाम के नजदीक के सभी इलाकों पर कब्जा कर लिया था। तब सेना में भी खलबली मच गई थी, असंतोष बढ़ गया था तथा इंग्लैंड की भी हालत द्वितीय लड़ाई में खराब हो गई थी। इस प्रकार भारत के अंदर कुछ हिस्सों पर नेताजी के आजाद हिन्द फौज का कब्जा हो गया था और उनकी शक्ति बढ़ती रही थी। ऐसी हालत में प्राइम मिनिस्टर एटली ने सोच लिया कि बिना लड़ाई के भारत को आजादी देने में ज्यादा भलाई है। यद्यपि उनका इरादा भारत को छिन्न-भिन्न करने का
था ;क्योंकि वे राजाओं तथा मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना से अपना सम्बन्ध  जोड़कर भारत को कई टुकड़ों में बाँट देना चाहते थे। जिसमें उन्हें कुछ तो सफलता मिली ,पर सरदार वल्लभ भाई पटेल के कारण पूरी सफलता नहीं मिल सकी।  राजाओं को सरदार पटेल की नीति के सामने झुकना पड़ा।  स्वतंत्रता के पहले गाँधी जी भी इस बात पर अड़े थे और कहते रहे कि 'भारत के टुकड़े करने के पहले मेरे शरीर के टुकड़े करने होंगे।' लेकिन गाँधी  जी की बात की किसी भी कांग्रेसी नेताओं, खासतौर से जवाहरलाल नेहरू ने जरा भी परवाह नहीं की। उन्हें तो किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए, चाहे देश के टुकड़े ही क्यों न हों जाएँ।  ऐसे खास मौके पर, जब वाइसराय लार्ड माउन्टबेटन के साथ गाँधी जी को पाकिस्तान हिन्दुस्तान के मामले पर बातचीत करनी थी बड़ी चालाकी से उनको (गाँधीजी को) पाकिस्तान में नोवाखाली की ओर भेज दिया गया । उनकी गैरहाजरी में कांग्रेस नेताओं ने जिन्ना के साथ मिलकर, हिन्दुस्तान के दो टुकड़े करने वाला, माउन्टबेटन का प्रस्ताव  मान लिया। सन् १९४६ का यह वह समय था जब देशभर में चारों ओर हिन्दू -मुसलमान घोर दुश्मन बनकर  एक दूसरे का गला काट रहे थे, एक दूसरे के घरों को लूट रहे थे, आगजनी कर रहे थे। नेहरू इस स्थिति को सम्हाल नहीं सके और माऊन्टबेटन से प्रार्थना करते रहे कि किसी प्रकार से इस परिस्थिति को सम्भालिए आपको हम पूर्ण अधिकार देते हैं। जिस अंग्रेज वाइसराय के शासन के विरुद्ध कांग्रेस ने स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ी थी तथा जिन अंग्रेज शासकों से लोग घृणा करते थे, गाँधी जी ने 'भारत छोड़ोज् का आंदोलन उन्हें ही भगाने के लिए छेड़ा था, आज  नेहरू उनकी ही खुशामद करते फिर रहे थे और पूरा अधिकार देकर भारत वर्ष की स्थिति को सँभालने की प्रार्थना कर रहे थे, जबकि वे खुद प्राइम मिनिस्टर थे ।
दूसरी ओर जिन्ना क्या कहते थे इसे भी इस संदर्भ में बता देना जरूरी है- उनकी कितनी हिम्मत थी और कितना साहस था- सीधी कार्यवाही की धमकी पाकिस्तान बनाने के सिलसिले में वे दे ही चुके थे, जिससे सारे मुसलमान एक होकर अपना कार्य कर रहे थे और पाकिस्तान बनाने के लिए जोर दे रहे थे । जिन्ना को जब वाइसराय पूछते थे तो वे कहते थे कि 'भारत के मुसलमान एक अलग कौम हैं, जिसकी अलग संस्कृति, अलग सभ्यता, अलग भाषा और साहित्य, अलग कला और स्थापत्य, अलग कानून, अलग आचार संहिता, अलग प्रथाएँ, अलग संवत (हिजरी) अलग इतिहास और परम्परा है, भारत कभी भी सही में एक राष्ट्र नहीं रहा है। नक्शे में सिर्फ वह वैसा  दिखाई देता है। दोनों में सिर्फ एक समानता है वह  है 'अंग्रेजों की गुलामीज्।  बाद में जब स्वतंत्रता मिल गई तो कहा- 'मिलकर लिए पाकिस्तान और लड़ के लेंगे हिन्दुस्तानज् इस प्रकार से नेहरू और जिन्ना के विचारों में अंतर था। जिन्ना ने पद पाने की जरा भी परवाह नहीं की वह निष्ठा से पाकिस्तान बनाने में लगा रहा, न केबिनेट में आया और न कभी अंग्रेजों से अपनी पाकिस्तान की व्यवस्था के लिए भीख माँगी या सलाह ली। पर भारत में नेहरू आजादी के बाद भी उन्हीं पर निर्भर रहे।
लेकिन सरदार पटेल (वल्लभ भाई) ने, राजाओं को भड़काने की जो चाल अंग्रेजों ने चली थी उसे पूरा होने नहीं दिया।  एक लौह पुरुष की भांति इसका दिलेरी से सामना किया और सभी राजाओं को अपनी तरफ मिला लिया, जो समझदारी से माना उसे समझदारी से मनवाया । जिसने समझदारी नहीं दिखाई, जैसे निजाम और जूनागढ़ के राजा उसे बल प्रयोग करके मनवा लिया। अगर कश्मीर भी पटेल के हाथ में होता, जिसे जवाहरलाल ने अपने पास रख लिया था ,तो वह भी आज हमारे लिए सिर दर्द नहीं रहता, जो हिस्सा पाकिस्तान ने लिया है वह भी आज अपने पास ही होता।
सिवनी जेल ता. १६-२-७६
हमने अपना राष्ट्रपिता को खो दिया
स्वतंत्रता के बाद ३० जनवरी को  हमने अपने राष्ट्रपिता को खो दिया। गाँधी रामराज्य के उपासक थे। वे भारतवर्ष की संस्कृति पर ज्यादा विश्वास रखते थे। वे ग्राम स्वराज्य, सत्ता के विकेन्द्रीकरण, ग्राम उद्योग, हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने  तथा शराबबंदी पर जोर देते थे। दूसरा सवाल था शासन का था। गाँधी जी दूसरे नंबर के कार्यकर्ताओं के हाथ में शासन की बागडोर देना चाहते थे तथा पहले नंबर के नेताओं का उन पर सिर्फ  नियंत्रण रहे, वे दिशा देने वाले रहें जिससे शासन सुचारु रूप से चले, भ्रष्टïचार न हो, ऐसा वे चाहते थे।
तीसरा महत्त्वपूर्ण सवाल था- जो कांग्रेस संस्था, स्वतंत्रता  संग्राम के लिए बनी थी, उसे वे स्वतंत्रता के बाद खत्म कर देना चाहते थेक्योंकि इस संस्था में सभी वर्ग, विचार तथा अलग-अलग सिद्धांतों के लोग थे, राष्ट्र की स्वतंत्रता में सब एक थेउनने 'लोक सेवक दलज् का सुझाव भी दिया। पर कांग्रेस की जो धाक जनता में थी, उसका प्रचार था, उसके कार्य करने वाले थे, वे इस ट्रेडमार्क को अपने  स्वार्थ के लिए  छोडऩा नहीं चाहते थे। और आज स्थिति यह है कि कांग्रेस आजादी के आंदोलन के इस ट्रेडमार्क का फायदा आज भी उठा रही है। पहले नेहरू ने यही किया अब उनकी बेटी इंदिरा गाँधी  कर रही हैं। दिल्ली की गद्दी को वे अपना पुस्तैनी व पारिवारिक पद बनाकर एक बादशाह के समान भारत पर राज्य करना चाहती हैं। आज आपातकालीन स्थिति कामय करके पूरा अधिकार अपने हाथों में लेकर तानाशाह बन गर्इं हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को भी निर्बल बना दिया है। लोग गुलामी की जिंदगी बिता रहे हैं। नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को खत्म कर दिया गया है  एक पार्टी का शासन लागू कर तानाशाही राज कायम हो गया है।
इसी संदर्भ में मैं यह कहने में जरा भी संकोच नहीं करता कि जवाहरलाल जी के देहान्त के बाद १८ माह तक एक महान व्यक्ति श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को इस देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था, जिनने हमें पाकिस्तान से मुक्ति दिलाई, देश को बचायादुनिया के सामने एक शक्तिशाली देश के रूप में साबित किया, वे एक साजिश के शिकार हुए और उनकी मौत हो गई।  उसके बाद इंदिरा जी रूस के ही रास्ते पर चलते हुए उसी के सहयोग से अपना सारा काम कर रही हैं।  रूस में जिस तरह एक पार्टी का ही शासन रहता है, वैसा ही वे भारत में भी कर रही हैं।
अब देखें आगे वे क्या करती हैं। ईश्वर इस देश के जनता को सदबुद्धि दे। गुलाम भारत को हजारों लाखों लोगों ने अपना बलिदान देकर आजाद किया, उनकी त्याग, तपस्या, बलिदान आज कहीं बेकार न चला जाय। अत: जरूरी है कि हम अब भी चेत जाएं और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए प्रजातंत्र को कायम रख सकें।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के अंश)

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