- डॉ.
रत्ना वर्मा
उदंती का यह
अंक तैयार करते समय मन में यही विचार था कि छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक पर्व, लोक
परम्पराओं, लोक
आस्था और लोक विश्वास को एक जगह संजोने का प्रयास किया जाए... पुरातन काल से ही
हमारी लोक- परम्पराएँ और लोक विश्वास इस आधार पर अनदेखा कर दिए जाते हैं कि ये सब
गाँव- गँवई के पुरातनपंथी ढकोसले हैं। लेकिन हम अपनी परम्पराओं को सिर्फ यह कह कर अनदेखी
नहीं कर सकते कि ये सब पुरातन काल से चली आ रही हैं और आज इनके कोई मायने नहीं है।
समय के अनुसार बदलाव जरूरी है; परंतु हम यह भी जानते हैं हमारे पूर्वजों ने जिन
परम्पराओं को पीढ़ी- दर पीढ़ी
चलाया है उसके पीछे कुछ तो निहितार्थ छिपा है।
इस संदंर्भ में हम कुछ ऐसी परम्पराओं को ले सकते हैं; जिनके महत्त्व को वैज्ञानिक भी नकार नहीं सकते।
जैसे पेड़ों की पूजा- जिसमें तुलसी, आँवला, वट, पीपल आदि। इन सबकी पूजा के पीछे भले ही
धार्मिक आस्था और व्रत उपवास को जोड़ दिया गया हो; पर इनकी पूजा के पीछे का कारण
एकमात्र यही रहा है कि वृक्षों का जीवित रहाना हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं और
इनको बचाया जाना जरूरी है। पेड़ों को बचाने के लिए जरूर इनके साथ कुछ अंधविश्वास
जुड़ गए कि इन पुराने पेड़ों में भूत प्रेत का निवास होता है, ऐसा मैंने
अपने गाँव में भी देखा-सुना है। मैं
अपने जन्म से लेकर आज तक उस वृक्ष को हरा-भरा देख रही हूँ शायद उस विशाल वृक्ष की उम्र सौ
साल से भी ज्यादा होगी। इस वृक्ष के साथ
अंधविश्वास कब और कैसे जुड़ गया मैं नहीं जानती लेकिन जब हम बच्चे खेलते हुए उस
वृक्ष के पास जाते थे; तो वहाँ
चढ़ावे के रूप में चूड़ी,सिंदूर बाँस की छोटी -छोटी टोकनी
आदि रखी रहती थीं,
तब हमें भी उस पीपल पेड़ के पास जाने में डर लगता था। खासकर
जब अँधेरा छाने लगता था, तो उधर
जाकर खेलने पर मनाही भी होती थी। शायद मनुष्य की बढ़ती लालची प्रवृत्ति को देखते हुए हमारे पूर्वजों ने ऐसा डर पैदा करके
पेड़ों की रक्षा की होगी यह कहकर कि यदि उनकी पूजा न की गई,
तो वे उनको नुकसान पँहुचा सकते हैं। या इन पेड़ों पर भूत
प्रेतों का वास होता है ,यदि इन्हें काटोगे या इनकी उपेक्षा करोगे तो इनमें रहने
वाली प्रेतात्माएँ तुम्हें परेशान करेंगी। नतीजा सामने है कि तब डर से ही सही ,पर आदि
कालसे ही मनुष्यों
ने इन वृक्षों की पूजा करके इनकी अंधाधुंध कटाई तो रोकी ही है?
इसी तरह अन्य वृक्षों को बचाकर रखने के लिए न जाने कब से
हम पीढ़ी दर पीढ़ी पर्यावरण का पाठ अपने बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं। अब तो स्कूलों में यह पाठ इसलिए पढ़ाया जाना
जरूरी हो गया है ;क्योंकि हम अपनी धरती को धीरे धीरे वृक्ष विहिन करते चले जा रहे
हैं। परिणाम सब देख ही रहे हैं एक के बाद एक कभी भूंकप ,कभी बाढ़ तो कभी सूखा।
यहाँ मैं इस अंक में शामिल पंकज अवधिया जी के एक लेख का उल्लेख करना चाहूँगी जो हरेली पर्वको ध्यान में रखकर
हमारी आस्था परम्परा और विश्वास के आधार पर लिखा गया है । इस आलेख
को जब आप पढ़ेंगे, तो आपको पता चलेगा कि किस तरह एक पर्व के बहाने हम रोग- निरोधक
नीम की टहनियाँ घर -घर लगाते हैं और कई
रोगों से अपना बचाव करते हैं। इस पर्व में भले ही यह कहते हुए कि- नीम की
टहनी लगाने से हमारे घर परिवर को किसी बुरी आत्मा की नजर नहीं लगेगी,हम अपने
आस-पास के वातावरण को नीरोगी
बनाते है।अवधिया जी ने सत्य ही तो कहा है बीमारी बुरी आत्मा ही तो है।
सेहत की बात
करें तो आज हम फिर अपनी उसी चिकित्सा पद्धति की ओर लौट रहे हैं ,जिसमें जड़ी-
बूटियों से ही हर
मर्ज की दवा की जाती थी, हमारे देश में ऐसे हजारों पेड़- पौधे हैं जिनसे अनेक
बीमारियों का इलाज होता है, पर आज हम उन सबको भूल चुके हैं और बहुत सारे
पेड़ पौधों को तो नष्ट भी कर चुके हैं। शुद्ध पर्यावरण, शुद्ध हवा
और बेहतर स्वास्थ्य के लिए हमें अपनी पुरानी परम्पराओं पर फिर से विश्वास करना
होगा और लोगों में इसके लिए आस्था जगानी होगी।
यहाँ कहना मैं यही चाह रही हूँ, कि हमारे
सभी लोक विश्वास अंधविश्वास नहीं होते और न ही सभी लोक परम्पराओं को पुरातनपंथी
कहते हुए नकार सकते। जब कोई मनुष्य अपने फायदे के लिए लोगों के डर का फायदा उठाते
हुए अंधविश्वास फैलाए, तो उसका
पुरजोर विरोध होना ही चाहिए। जैसे किसी स्त्री को टोनही बताते हुए उसे गाँव से
बाहर कर देना या उसके साथ अत्याचार करना।
कहीं भी एक पत्थर रखकर उसे गेरू रंग से रंग कर लोगों को पूजा के लिए बाध्य
करना फिर यह कहते हुए कि यह सिद्ध देवी है या देवता, यहाँ आपकी सभी मान्यताएँ पूरी
होंगी, पुत्र की प्राप्ति होगी जैसी अपवाह फैलाकर धीरे- धीरे उस पत्थर के चारो ओर
घेर लेते हैं और वहाँ विशाल मंदिर भी खड़ा कर लेते हैं फिर कुछ ही सालों में वहाँ
नवरात्रि जैसे पर्व त्योहार के समय मेला भी भरने लगता है।यह सब काम हमारी शासन और
प्रशासन की नाक के नीचे होता है पर वह समय रहते कुछ नहीं करती। बरसो पहले मैंने
अपने गाँव जाने वाले रास्ते में एक ऐसे ही पत्थर को गेरूए रंग से रंगकर उसे पूजा
स्थल बनाकर उस स्थान पर विशाल मंदिर खड़ा होते देखा है, अब वह
मंदिर फोरलेन सड़क बनने के रास्ते में आएगा और बस फिर वहाँ भी विभिन्न राजनीतिक दल
वोट बटोरने के लिए अपनी सियासी चाल चलेंगे, लेकिन समय रहते शुरू में उसका विरोध करने
कोई नहीं आता। आपने अपने शहर में भी ऐसे कई धार्मिक स्थलों को पनपते जरुर देखा
होगा। जनता इसका विरोध करना चाहती है; पर मामला जहाँ धर्म का होता है ,वहाँ सब
पीछे हट जाते हैं ; क्योंकि धर्म के नाम पर बड़े–बड़े कांड होते सबने देखा है।
यहाँ आशय किसी की भावनाओं को, किसी की
धार्मिक आस्था को ठेस पँहुचाने का नहीं है। कहना सिर्फ इतना ही है कि जीवन के
प्रति आस्था और विश्वास कायम रहे।इस संसार को चलाने वाले के प्रति जब तक हम
श्रद्धा भक्ति का भाव नहीं रखेंगे ,तो जीवन चल नहीं पाएगा। पर अंध श्रद्धा- अंध
भक्ति किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। विरोध इन सब बुराइयों का होना चाहिए। इतना
ही नहीं आजकल तो हमारे देश में ऐसे कई ढोंगी साधु महात्मा बने बैठे , जो अपने
हजारों अनुयायी बनाकर जनता को लूट रहे है, ऐसे कई आज जेल की हवा खा रहे हैं ;पर हमारी भोली जनता फिर भी ऐसे लोगों की चपेट में क्यों और किस
तरह आती है यह आश्चर्यजनक है। ऐसे ही अंधविश्वास को मिटाना है और जीवन में उत्साह
और उमंग का संचार हो ऐसी आस्था लोगों के मन में जगाना है।
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