लोक गायन का महापर्व
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हरिहर वैष्णव
प्राय: धान की
फसल कटने के साथ ही शीत ऋतु में किसी भी समय आरम्भ हो कर अधिकतम 11 दिनों तक
चलने वाला लोक महापर्व लछमी जगार विभिन्न संस्कारों से आबद्घ अनुष्ठान है जो
यद्यपि महिलाओं द्वारा पूरे किये जाते हैं, किन्तु पूरी तरह महिलाओं द्वारा कहा जाना
समीचीन नहीं होगा। कारण, पुरुष भी इस आयोजन में सहभागी होते हैं और अपवाद स्वरूप
जगार-गायक भी। यह आयोजन यों तो सप्ताह के किसी भी दिन आरम्भ हो सकता है किन्तु
समाप्ति गुरुवार को ही होती है। इस दिन सारी रात गायन होता है। लोक महाकाव्य लछमी
जगार का गायन इस महापर्व का प्रमुख आकर्षण होता है जिसे दो गुरुमाँयें गाती
हैं।
जगार शब्द हिन्दी के जागरण (और संस्कृत के यज्ञ) शब्द से
प्रादुर्भूत है। देवताओं को निद्रा से जगाना और अन्न की उपज इसके मूलभूत अभिप्राय
हैं। यह आयोजन उत्सव-धर्मी होता है। विशेष रूप से अन्तिम दिन जब अनुष्ठान अपने चरम
पर होता है और माहालखी यानी धान (महालक्ष्मी) का विवाह नरायन राजा के साथ सम्पन्न
होता है। यह विवाह सांकेतिकता के साथ नहीं अपितु वास्तविकता के साथ सम्पन्न होता
है। नृत्य और गायन की छटा देखते ही बनती है। लछमी जगार का आयोजन किसी समुदाय अथवा
व्यक्ति विशेष के द्वारा भी हो सकता है। इसमें आयोजक अपनी पत्नी के साथ गाथा के
अनुरूप पात्रों की भूमिका भी निभाते देखे गये हैं। इसके आयोजन के विषय में लोगों
का कहना है कि यह प्राय: सुख-समृद्घि की कामना से आयोजित किया जाता है।
लछमी जगारज् का आयोजन छत्तीसगढ़ प्रान्त के अन्तर्गत
अविभाजित बस्तर जिले के जगदलपुर एवं कोंडागाँव तहसील तथा नारायणपुर, दन्तेवाड़ा
और बीजापुर तहसील के कुछ भागों में किया
जाता है। यह अनुष्ठान बस्तर की मौखिक परम्पराओं का ही एक अंग है जिसमें
अन्य चीजों के साथ ही वर्षा ऋतु में सम्पन्न होने वाला एक अन्य मौखिक लोक महाकाव्य
तीजा जगार (धनकुल) भी सम्मिलित है। इसी तरह पूर्व दिशा में, ओडि़सा
प्रान्त में, हमें
च्बाली जगारज् नामक एक मौखिक लोक महाकाव्य मिलता है जिसका आयोजन ग्रीष्म ऋ तु में
होता है। हमने इसका आयोजन नवरंगपुर में होना पाया है। नृतत्वशास्त्री टीना ओटेन कोरापुट (ओडि़सा) में प्रचलित बाली जगार के एक
भिन्न संस्करण की जानकारी देती हैं। यद्यपि इन लोक महाकाव्यों की कथा-वस्तु आदि
में पर्याप्त भिन्नता है तथापि इनकी आपस में समानता का बिन्दु है इनका गायन महिलाओं
द्वारा किया जाना,
और धनकुल नामक वाद्य, जिसका वे वादन करती हैं। इस परम्परा का विस्तार दण्डकारण्य के प्राय: उस
मैदानी भू-भाग में पाया जाता है जो इन्द्रावती नदी के तट पर है तथा जिसे
दण्डकारण्य का हृदय-स्थल कहा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि धान और अन्य गौण अनाज इस
भू-भाग की प्रमुख उपज हैं, और जैसा कि हम यहाँ देखेंगे, यह पूरा
क्षेत्र धान-उत्पादक पूर्वी भारत तथा गौण अन्न-उत्पादक पचिमी भारत की सीमा पर
स्थित है। न केवल यह अपितु दण्डकारण्य का यह विस्तृत पठार द्रविड़ भाषा-भाषी
दक्षिण भारत एवं भारोपीय भाषा-भाषी उत्तर भारत की भी सीमा पर स्थित है, किन्तु
सांस्कृतिक रूप से यह उतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं दिखलायी पड़ता क्योंकि बाली जगार
भारोपीय भाषाओं (ओडि़या एवं देसया) तथा द्रविड़ भाषा-परिवार की लोक-भाषा (पेंगो या
जानी) में भी गाया जाता है।
बहरहाल, लछमी जगार लोक महापर्व में गाये जाने वाले
लोक महाकाव्य लछमी जगार का गायन प्रमुखत: महिलाओं द्वारा किया जाता है। प्रमुख
गायिका पाट गुरुमाँय कहलाती है। उसकी एक या दो सहायिकाएँ होती हैं, जिन्हें
चेली गुरुमाँय कहा जाता है। प्राय: पाट गुरुमाँयें दादी या नानी की उम्र की होती
हैं जबकि चेली गुरुमाँयें माँ की उम्र की। ये गुरुमायें प्राय: 30 वर्ष की
आयु से, जब
उनके बच्चे बड़े हो चुकते हैं तथा घर-गृहस्थी के उनके उत्तरदायित्व प्राय: कम हो
जाया करते हैं, गायन
सीखना आरम्भ करती हैं। यहां यह उल्लेख अनिवार्य होगा कि जगार-गायन किसी समुदाय या
जाति विशेष की विशेषज्ञता नहीं होती। ये गायिकाएँ किसी भी समुदाय या जाति से हो
सकती हैं। उदाहरण के तौर पर: जगदलपुर क्षेत्र में धाकड़, मरार, केंवट, बैरागी और
कलार, कोंडागाँव
क्षेत्र में गांडा, घड़वा, बैरागी, मरार, कलार आदि जातियों की गुरुमाँयें जगार गायन करती
दिखलायी पड़ती हैं। इन गुरुमाँओं को उनके गायन के लिये कोई धनराशि नहीं दी जाती
अपितु उसकी जगह आयोजक द्वारा जगार की समाप्ति पर सामथ्र्यानुसार ससम्मान भेंट दी
जाती है। यह भेंट कपड़ों एवं चावल-दाल आदि की शक्ल में होती है।
प्रमुख जगार गायिकाओं में से एक सुकदई गुरुमाँय
संगीतकार/ ग्राम प्रहरी (कोटवार) समुदाय से सम्बद्घ हैं और कोंडागांव कस्बे के
सरगीपालपारा नामक मोहल्ले में रहती हैं। यह समुदाय यहां का मूल निवासी है।
संगीत-साधना (वादन) इस समुदाय के पुरुषों को विरासत में मिली है और उन्हीं तक
सीमित भी है। वे तीन से पांच के समूह में होते हैं तथा विवाह और अन्य धामिर्क
अनुष्ठानों के अवसर पर वादन करते हैं। पहला व्यक्ति मोहरी (शहनाईनुमा वाद्य), दूसरा
निसान या नगाड़ा,
तीसरा टुड़बुड़ी (ताल वाद्य), चौथा ढोल तथा पाँचवां ढपरा (ढपली) बजाता है।
इस समुदाय के लोग,
जैसा कि ऊपर कहा गया है, कोटवार तथा चरवाहे के रूप में भी अपनी
सेवाएं समाज को देते आ रहे हैं। इस समुदाय के लोगों के पास अपनी कृषि-भूमि थी
किन्तु धीरे-धीरे इनमें से अधिकांश लोगों ने अपनी भूमि बाहर से यहाँ आ बसे लोगों
के हाथों बेच डाली। यह स्थिति प्राय: गाँव से कस्बे और शहरों में परिवर्तित होते
स्थानों में, उदाहरण
के तौर पर, कोंडागाँव
(सरगीपालपारा), जगदलपुर, नारायणपुर
आदि में बनती गयी है। आज इनकी आजीविका का साधन दैनिक मजदूरी रह गयी है। जहां तक
जगार गायन से जुडऩे का सवाल है, अपवाद स्वरूप ही सुकदई जैसी महिलाएँ गायिकाएँ
बन पाती हैं। कारण, पितृसत्तात्मक समाज में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कि महिलाएँ
अपने किसी ज्ञान या विज्ञान को धरोहर के रूप में आगे ले जा सकें। हाँ, विवाह में
महिलाएँ अपने पति के कौटुम्बिक क्रिया-कलापों में अवश्य सहभागी होती हैं। सुकदई के
परिवार में उनके पिता की बहिन दुआरी के
पहले कोई भी जगार गायिका नहीं हुई थी। दुआरी ने जगार-गायन निकटस्थ गाँव बम्हनी की
पनका जाति की एक महिला से सीखा था। सुकदई और उनकी तीन चचेरी बहिनों ने दुआरी से।
सुकदई की चाची आयती ने भी दुआरी से ही जगार-गायन की शिक्षा ली तथा अपनी बहिन की
तीन बेटियों को सिखाया। इस तरह सुकदई और उनकी निकट सम्बंधी जगार गायिका बनीं।
गुरुमाँय सुकदई लछमी जगार एवं तीजा जगार (धनकुल) दोनों ही लोक महाकाव्यों का गायन
करती हैं; साथ
ही अनेकों लोक गीत और लोक गाथाएँ भी गाती हैं, जिनका सम्बन्ध पूरी तरह मनोरंजन से है। वे
कोंडागाँव की शीर्षस्थ जगार-गायिकाओं में गिनी जाती हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से
कोंडागाँव की दर्जन भर से अधिक गुरुमाँओं को जानता हूं, किन्तु
संभवत: इनकी सही गणना कर पाना बहुत ही कठिन होगा। कारण, बस्तर के
जन-जीवन में लोक गीत का गायन सहज एवं स्वाभाविक है और प्राय: प्रत्येक महिला किसी
न किसी स्तर पर लोक गायिका है।
कोंडागाँव एवं
इसके आसपास धनकुल नामक इस वाद्य-यन्त्र के विभिन्न उपकरणों यथा, धनुष को
धनकुल डांडी, डोरी
को झिकन डोरी, बाँस
की कमची को छिरनी काड़ी, हण्डी को घुमरा हांडी, हण्डी के मुँह पर ढंके जाने वाले सूपा को
ढाकन सुपा, हण्डी
के आसन को आंयरा या बेंडरी तथा मचिया को माची कहा जाता है। घुमरा हांडी आंयरा या
बेंडरी के ऊपर तिरछी रखी जाती है। आंयरा या बेंडरी धान के पैरा (पुआल) से बनी होती
है। तिरछी रखी घुमरा हांडी के मुँह को ढाकन सुपा से ढंक दिया जाता है। इसी ढाकन
सुपा के ऊपर धनकुल डांडी का एक सिरा टिका होता है तथा दूसरा सिरा जमीन पर। धनकुल
डांडी की लम्बाई लगभग 2 मीटर होती है। इस के दाहिने भाग में लगभग 1. 5 मीटर पर 8 इंच की
लम्बाई में हल्के खांचे बने होते हैं। गुरुमाँयें दाहिने हाथ में छिरनी काड़ी से
धनकुल डांडी के इसी खांचे वाले भाग में घर्षण करती हैं तथा बायें हाथ से झिकन डोरी
को हल्के-हल्के खींचती हैं। घर्षण से जहां छर-छर-छर-छर की ध्वनि नि:सृत होती है
वहीं डोरी को खींचने पर घुम्म-घुम्म की ध्वनि घुमरा हांडी से निकलती है। इस तरह
ताल वाद्य और तत वाद्य का सम्मिलित संगीत इस अद्भुत लोक वाद्य से प्रादुर्भूत होता
है। यद्यपि इसके विपरीत ओडि़सा के नवरंगपुर जिले में प्रयुक्त धनकुल वाद्य का धनुष
अपेक्षाकृत बड़ा होता है तथा इसके वादन में भी भिन्नता है, किन्तु यह
अतिरंजित नहीं कि दण्डकारण्य के पठार में प्रचलित यह वाद्य अपने आप में मौलिक एवं
अनूठा है।
दक्षिण तमिलनाडु में भी यद्यपि धनुर्संगीत का प्रचलन
पाया जाता है किन्तु वहाँ इसका स्वरूप भिन्न है। भारत में धनुर्संगीत के अन्य
रूपों की भी थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है किन्तु उदाहरण कम ही देखने में आये हैं।
प्रत्येक गायिका की अपनी अलग गायन-शैली है जिससे वे अलग
से ही पहचानी जाती हैं। ऑस्ट्रेलियन नेानल यूनिवर्सिटी में संगीत विलेषक डॉ. पीटर
टोनर सुकदई गुरुमायं के गायन की अलग-अलग दो पंक्तियों में चार प्रकार की लय पाते हैं।
लम्बी लय-युक्त पंक्तियों में 40 थाप की समयावधि से युक्त लय तथा छोटी
लय-युक्त पंक्तियों में 20 थाप की समयावधि से युक्त लय। एक अन्य
प्रकार की पंक्ति में वे अन्तिम चार थापों को सुसुप्त पाते हैं। ये गीत-पंक्तियाँ
सुनियोजित हैं। प्रत्येक 20 थाप से युक्त पंक्ति सुनियोजित छंद के एक
चरण का आभास देती है जबकि 40 थाप-युक्त पंक्ति दो का। काव्यत्व की
दृष्टि से इस लोक महाकाव्य में अनेक रुझानों की सहज ही पहचान की जा सकती है यथा : खिला
कमल का फूल बाबा/ खिला कमल का फूल में सामान्य पुनरावृत्ति; जलराशि
में है ओ बाबा/ क्षीर-समुद्र में है में समतुल्यता तथा दोनों भाई हैं ओ बाबा/
दोनों को बाढ़ बहा ले जातीज में प्रस्तुति अथवा कल्पना वैविध्य। इस गीत की
काव्यात्मकता और संगीतात्मकता के कारण कथा का विकास अत्यंत मन्थर किन्तु रसमय गति
से होता है।
अन्य मौखिक महाकाव्यों की बुनावट में जहाँ हम घटनात्मकता
पाते हैं वहीं लछमी जगार की बुनावट में अनूठी विवरणात्मकता और इतिवृत्तात्मकता।
गुरुमाँय सुकदई द्वारा गाया गया च्लछमी जगारज् चार स्पष्ट खण्डों में संयोजित है।
पहला खण्ड आरम्भिक है (अध्याय 1) जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा है। अन्य
दो खण्ड कथा-वस्तु को सामने रखते हैं। इन दोनों खण्डों में मूल कथा प्रवाहित एवं
व्याख्यायित होती है। खण्ड 2 (अध्याय 2 से 12) में मेंगइन रानी की कथा है जबकि खण्ड
3 (अध्याय
13
से 16) में
पारबती रानी की। अन्तिम खण्ड (खण्ड 4: अध्याय 17 से 36) में कथा-वस्तु का विकास, चरमोत्कर्ष, निर्गति
तथा परिणाम या फलागम सम्मिलित हैं। इन्हें संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है:
1.
व्याख्या : मेंगराजा (शाब्दिक अर्थ मेघ) अपनी
पत्नी मेंगइन रानी के हठ के कारण मेंगइन रानी के साथ अपने लोक उपरपुर (ऊर्ध्व लोक)
से मंजपुर (मर्त्य लोक) अर्थात् धरती पर आते हैं। यहाँ आने पर धरती के लोग न केवल
उनका सम्मान करते हैं अपितु उन्हें अपना राजा-रानी भी बनाते और उनके लिये प्रासाद
का भी निर्माण करते हैं। इसी समय कैलासपुर नामक एक अन्य नगर में माहादेव (महादेव, शिव) अपनी
पत्नी पारबती (पार्वती) के हठ के वाशीभूत हो कृषि-कार्य में संलग्न होते हैं और
धान बोते हैं। किन्तु एक भ्रान्ति के कारण वे सारी की सारी फसल में आग लगा देते
हैं। फसल में लगी आग का धुआँ जब ऊपर उठ कर ऊर्ध्व लोक तक जा पहुंचता है तब देव गण
आ कर उसे बुझाते हैं। आग बुझाने पर जो धान बचा रह जाता है उसी से धान की अनेक
किस्में बन जाती हैं।
2.
विकास : मेंगइन रानी सन्तान-प्राप्ति के
लिये आतुर हो कर अपने पति मेंगराजा को माहादेव के पास आम के लिये भेजती हैं।
माहादेव मेंगराजा को इस शर्त के साथ कि यदि उनके यहाँ पुत्री का जन्म होता है तो
वे उसका विवाह उनके छोटे भाई नरायन के साथ करेंगे, मेंगराजा को आम का फल देते हैं। मेंगराजा
उनकी शर्त मान कर घर वापस होते हैं और फल रोप देते हैं। कालान्तर में फल अंकुरित
हो कर पेड़ होता है और यथा समय उसमें फल आता है। मेंगइन रानी उस फल का सेवन करती
हैं और इसके फलस्वरूप उन्हें गर्भाधान होता है। यथा समय एक कन्या का जन्म होता है, जिसे
माहालखी (लछमी, लखी
और हिन्दी में लक्ष्मी या महालक्ष्मी) नाम दिया जाता है। माहालखी युवावस्था को
प्राप्त होने पर मंजपुर से गोपपुर चली जाती हैं और वहीं रहने लगती हैं।
3.चरमोत्कर्ष:
नरायन, जिनकी
पहले से ही इक्कीस रानियाँ हैं, माहालखी से विवाह करने की जिद ठान बैठते
हैं। माहालखी नरायन से विवाह करने की इच्छुक नहीं होतीं। कारण, उन्हें भय
है कि नरायन राजा की इक्कीस रानियाँ उन्हें दु:ख देंगी। किन्तु मेंगराजा माहालखी
को विवाह के लिये सहमत करते हैं और यह निश्चित होता है कि विवाह के बाद नरायन राजा
और माहालखी इक्कीस रानियों से अलग माहादेव और पारबती के साथ कैलासपुर में रहेंगे।
4.
निर्गति : नरायन अपनी नयी पत्नी माहालखी के
साथ अपने बड़े भाई माहादेव के घर (कैलासपुर) में रहने लगते हैं किन्तु कुछ ही समय
बाद वे अपनी शेष पत्नियों का अभाव महसूस करने लगते हैं। तब वे उनके पास वापस लौट
आते हैं किन्तु पुन: उन्हें माहालखी का अभाव खटकता है और वे एक रात उन्हें उठा कर
ले आते हैं। वे उन्हें अपनी आँखों से एक पल के लिये भी ओझल नहीं होने देते। इस
प्रकार वे सभी सुख पूर्वक रहने लगते हैं। कुछ ही समय पश्चात् जब नरायन को इस बात
का निश्चय हो जाता है कि अब उनकी इक्कीस रानियां माहालखी को किसी प्रकार का कष्ट
नहीं देंगी, वे
अपने राज-काज की ओर ध्यान देने लगते हैं। किन्तु थोड़े ही समय बाद इक्कीस रानियां
माहालखी को तरह-तरह के कठिन कार्य करने को कह कष्ट देने लगती हैं। माहालखी उन कठिन
कार्यों को पशु-पक्षियों की सहायता से पूरा करती हैं। फिर उन्हें भोजन पकाने का
काम सौंपा जाता है। जब वे भोजन तैयार कर रही होती हैं तब उनकी सौतनें भोजन में
तरह-तरह के अखाद्य डाल देती हैं, जिससे नरायन माहालखी पर कुपित हो जाते हैं
और उन्हें प्रताडि़त करते हैं। माहालखी उन प्रताडऩाओं को सहन कर लेती हैं किन्तु
जब नरायन उन पर पाद-प्रहार करने लगते हैं तब माहालखी बहुत अधिक दुखी और अपमानित
महसूस करती हैं और चूहे द्वारा खोदी गयी सुरंग के रास्ते नरायन राजा का घर छोड़ कर
इन्दरपुर चली जाती हैं।
5.
फलागम : माहालखी द्वारा घर छोड़ जाने के बाद
नरायन के परिवार पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे और उनकी इक्कीस रानियां भूख
से व्याकुल हो जाती हैं। तब राजा माहालखी की खोज में जाते हैं और अनेक प्रयासों के
बाद माहालखी को खोज कर घर वापस लाते हैं। इक्कीस रानियाँ अपनी भूल पर पश्चात्ताप
करती हुई माहालखी की सेवा करती हैं। माहालखी अपने पति और इक्कीस सौतनों के साथ
सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है।
चूंकि कथा की भाव-भूमि का सम्बन्ध धान उत्पादन-प्रक्रिया
के विस्तारित प्रसंग से है अत: इसका गठन उसी के अनुरूप अद्भुत है। मेंग का अर्थ
वर्षा है तो माहालखी हैं धान और इक्कीस रानियां हैं कोदो, कोसरा, उड़द, मूंग, अरहर, चना, मटर, सरसों, तिल, राई, बदई, कांदुल, मंडिया
आदि विभिन्न दलहनी-तिलहनी और अन्य गौण अनाज। इस कथा के नायक नरायन की तुल्यता
सूर्य से की जा सकती है जबकि माहादेव (शिव) को बीज-पुरुष के रूप में देखना चाहिये।
यहां यह जानना भी आवश्यक होगा कि दण्डकारण्य का पठार धान
उत्पादक पूर्व एवं गौण अन्न उत्पादक पश्चिम की सीमा पर स्थित है। गौण अन्न का
उत्पादन पहाड़ी भूमि पर तो किया जा सकता है किन्तु धान के उत्पादन के लिये सम एवं
सिंचित भू-भाग का होना आवयक है। इसलिये धान उत्पादन ने अपने आप को मुख्य भूमि में
स्थापित किया जबकि गौण अन्न गांव की सीमा पर चले गये। नरायन का विवाह पहले गौण
खाद्यान्नों (इक्कीस रानियों) के साथ हुआ और उसके बाद धान (माहालखी) के साथ। मिथकीय
दृष्टि से यह कथा इस क्षेत्र का जनपदीय इतिहास सिद्घ होती है। और जैसे ही हम कथा
के इस बिन्दु को आत्मसात् कर लेते हैं वैसे ही इस कथा में आये पत्नी-पीड़क
प्रसंगों और धान की मिजाई के प्रसंग के बीच के अन्तर्सम्बन्धों को भी पकडऩे में
सफल हो सकते हैं।
यह कथा इस की गायिकाओं के जीवन-मूल्यों का उद्घोष करती
है किन्तु इन मूल्यों को उनकी सम्पूर्णता में जानने के लिये मूल संस्करण का
विश्लेषण अत्यन्त आवश्यक है। इस महाकाव्य में स्त्री एवं भूमि की फलदायकता
(उत्पादकता) एवं फलहीनता या अनुत्पादकता (बांझपन) के बीच का संघर्ष केन्द्रीय
मूल्य के रूप में उभर कर सामने आया है। ये
मूल्य कुछ एक स्थितियों में अखिल भारतीय परिदृश्य पर देवी लक्ष्मी के साथ जुड़े
मूल्यों से भिन्न प्रतीत होते हैं। प्रमुख भिन्नता तो यही है कि इस महाकाव्य का
आकार ही असाधारण रूप से बड़ा है तथा दूसरा यह कि इसे महिलाओं द्वारा गाया जाता है।
यह जानना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा कि इस महाकाव्य का
आयोजन बस्तर की महिलाओं के लिये एक पवित्र अनुष्ठान है। वस्तुत: लछमी जगार चर्चा
की नहीं अपितु महसूस करने की ची$ज है। यह महसूसना इसके भीतर के विभिन्न
संस्कारों और उनसे जुड़े विश्वास; जो विभिन्न संस्कारों में सन्निहित
भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में देखे जा सकते हैं, के साथ एकात्म हो कर सहभागी होने में है।
कथा में वणिर्त कुछ एक घटनाओं का सजीव चित्रण उनकी साभिनय प्रस्तुति के साथ किया
जाता है, जिन
की मुख्य भूमिकाओं में स्वयं आयोजक ही होते हैं। इन अनुष्ठानों/ संस्कारों को
मुख्य एवं गौण, दो
श्रेणियों में बांट कर देखा जा सकता है। भिमा-विवाह (अध्याय 14), आम-विवाह
(अध्याय 19) एवं
माहालखी का विवाह (अध्याय 30) इस महाकाव्य की प्रमुख घटनाएं हैं जो विपुल
जन समुदाय को आकर्षित करती हैं। परवर्ती एवं अन्तिम अनुष्ठान होता है माहालखी का
विवाह, जो
इस सम्पूर्ण अनुष्ठान का चरम है। यह अनुष्ठान सर्वान्तिम दिन होता है, जो सदैव
गुरुवार होता है। अन्य घटनाओं में माहादेव द्वारा भूमि की सफाई (अध्याय 13) और
माहालखी के जन्म (अध्याय 22) को रखा जा सकता है। ये घटनाएँ भी कुछ लोगों
द्वारा अभिनीत की जाती हैं। उदाहरण के लिये, माहादेव द्वारा काटे जाने वाले वृक्ष के
प्रतीक-स्वरूप एक छोटी सी लकड़ी तथा नवजात माहालखी के प्रतीक के रूप में केला का
उपयोग किया जाता है।
चरित्र के अनुरूप उनकी पहचान हो, इसके लिये
अभिनेता/ अभिनेत्री के पहचान-माध्यम अलग-अलग होते हैं। जहाँ कुछ संस्कारों में लोग
सामान्यत: आनन्द लेते हैं वहीं कुछ चरित्रों की भूमिकाओं में अभिनेता/ अभिनेत्री
पर सम्बन्धित चरित्र की आत्मा का प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है। उदाहरणार्थ, जब
गायिकाएँ गुरुमाँओं के आगमन का प्रसंग (अध्याय 11) गा रही होती हैं तब प्रमुख गायिका
एवं कई बार उसकी सहायिकाओं पर भी उन गुरुमांओं की आत्मा का प्रभाव होने लगता है, जिनका वे
आह्वान कर रही होती हैं। एक अन्य उदाहरण मेंगइन रानी और माहालखी का भी देखने में
आता है। जगार-गायन की अवधि में कुछ महिलाएँ ऐसे प्रभाव में दिखलायी पड़ती हैं
किन्तु माहालखी के विवाह के दिन तो यह प्रभाव विभिन्न आयु-वर्ग की बहुत सी महिलाओं
पर दिखलायी पड़ता है।
इस आयोजन के सभी संस्कारों में प्राय: महिलाएँ ही सहभागी
होती हैं। पुरुष संगीतकार, पुजारी और केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले पात्रों
के रूप में सहभागी होते हैं। इनमें से कुछ विवाह- संस्कार के समय देवी के प्रभाव
में आते देखे जाते हैं।
बस्तर के धनकुल गीत
हरिहर वैष्णव की पुस्तक बस्तर के धनकुल गीतज् का प्रकाशन
संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार के नागपुर स्थित दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक
केन्द्र द्वारा किया गया है। यह पुस्तक बस्तर के लोक चित्रकार तथा छायाकार खेम
वैष्णव के 32 रंगीन
छायाचित्रों से सुसज्जित है। पुस्तक में धनकुल लोक वाद्य एवं इसकी संगत में गाये
जाने वाले विभिन्न गीतों के बारे में भी विस्तृत जानकारी है। उल्लेखनीय है कि
धनकुल नामक लोक वाद्य की संगत में बस्तर में चार महाकाव्यों का गायन किया जाता है।
लछमी जगार, आठे
जगार, बाली
जगार और तीजा जगार। उल्लेखनीय है कि हरिहर वैष्णव बस्तर अंचल की सांस्कृतिक एवं
साहित्यिक विरासत के संरक्षण, उन्नयन की दिशा में पिछले कई वर्षों से प्रयासरत
हैं तथा इस संदर्भ में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
सम्पर्क:
सरगीपालपारा, कोंडागाँव
494226, बस्तर- छत्तीसगढ़,
दूरभाष : 07786- 242693, 243406, 242907
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in
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