अनुवाद- सुकेश साहनी
तूफानी दिन था। एक औरत गिरजाघर में पादरी के
सम्मुख आकर बोली, 'मैं ईसाई
नहीं हूँ, क्या मेरे लिए जीवन की नारकीय
यातनाओं से मुक्ति का कोई मार्ग है?’
पादरी ने उस औरत की ओर देखते हुए उत्तर दिया, 'नहीं, मुक्ति
मार्ग के विषय में मैं उन्हीं को बता सकता हूँ, जिन्होंने
विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा ली हो।’
पादरी के मुँह से यह शब्द निकले ही थे कि तेज
गडगड़़ाहट के साथ बिजली वहाँ आ गिरी और पूरा क्षेत्र आग की लपटों से घिर गया।
नगरवासी दौड़े- दौड़े आए और उन्होंने उस औरत को
तो बचा लिया, लेकिन तब तक पादरी अग्नि का ग्रास
बन चुका था।
मेरे गाँव में एक औरत और उसकी बेटी रहते थे, जिनको
नींद में चलने की बीमारी थी। एक शांत रात में, जब
बाग में घना कोहरा छाया हुआ था, नींद में
चलते हुए माँ बेटी का आमना- सामना हो गया।
माँ उसकी ओर देखकर बोली, 'तू? मेरी
दुश्मन, मेरी जवानी तुझे पालने- पोसने में
ही बर्बाद हो गई। तूने बेल बनकर मेरी उमंगों के वृक्ष को ही सुखा डाला। काश! मैंने
तुझे जन्मते ही मार दिया होता।’
इस पर बेटी ने कहा, 'ऐ
स्वार्थी बुढिय़ा! तू मेरे सुखों के रास्ते के बीच दीवार की तरह खड़ी है! मेरे
जीवन को भी अपने जैसा पतझड़ी बना देना चाहती है! काश तू मर गई होती!’
तभी मुर्गे ने बांग दी और वे दोनों जाग पड़ीं।
माँ ने चकित होकर बेटी से कहा, 'अरे, मेरी
प्यारी बेटी, तुम!’
बेटी ने भी आदर से कहा, 'हाँ, मेरी प्यारी माँ !’
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