मित्रता की
अनूठी परम्परा
- डॉ. कौशलेन्द्र
आज जिसे आप
छत्तीसगढ़ राज्य के नाम से जानते हैं, पहले वह
मध्यप्रदेश का एक भाग हुआ करता था, और उससे
भी पहले, त्रेतायुग में यही राज्य दक्षिणकोशल
के नाम से विख्यात था। राज्यों की सीमाएँ तो बनती-मिटती रहती हैं किंतु उस भूभाग
पर रहने वाले समाज की भाषा और संस्कृति अमिट होती है। उथल-पुथल करने वाली विविध
घटनाओं से भरे इस परिवर्तनशील जगत में समाज ने न जाने कितने चोले बदले हैं किंतु
समाज है कि हर बार अपनी परम्पराओं के सहारे उठकर खड़ा हो जाता है आगे... और आगे की
यात्रा के लिये। पुराने परिधानों का स्थान नये परिधान ले लेते हैं,
आत्मा वही बनी रहती है।
लम्बे समय तक अक्षुण्ण बनी रहने वाली परम्पराओं का सीधा
संबन्ध मानव समाज की उन कोमल भावनाओं से होता है जो पुष्प की तरह अपनी सुगंध
दूर-दूर तक बिखेरती रहती हैं। हमारी आस्थाएँ इन परम्पराओं को कालजयी दृढ़ता प्रदान
करती हैं। परम्पराएँ न होतीं तो समाज कब का बिखर गया होता। ये परम्पराएँ ही हैं जो
सात समन्दर पार भी देश की माटी के सोंधेपन से हमें बाँधे रखती हैं। जीवन में सुख
हो या दु:ख विविध रंग अपने में समेटे ये परम्पराएँ हमारे जीवन को ऊर्जा से भर देती
हैं और नाना व्यवधानों के बाद भी जीवन को आगे बढ़ाती रहती हैं।
मर्यादा
पुरुषोत्तम श्रीराम की माँ कौशल्या की जन्मस्थली होने केर श्रेय से गौरवान्वित इस
छत्तीसगढ़ में सदियों से प्रचलित एक ऐसी परम्परा भी है जो पूरे विश्व में अपने तरह
की अनूठी, अद्भुत और अतुलनीय है। विश्व
मानवसमाज के इतिहास में ऐसी श्रेष्ठ परम्परा का उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। दक्षिण
कोशल की यह सनातन धरोहर है जो जातिभेद, धर्मभेद
और वर्गभेद को भेदती हुयी अनेक अवरोधों को धराशायी करती हुयी हृदय को हृदय से
जोड़ती है। आर्य समूह के राम की वनवासी समूह के सुग्रीव के साथ मित्रता इसका
उत्कृष्ट उदाहरण है। समाजवाद का इससे अच्छा स्वरूप देखने को अन्यत्र कहाँ
मिलेगा! पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेम और सद्भाव
की पवित्र गंगा बहाने वाली यह वही श्रेष्ठतम परम्परा है जिसे 'मितान
बधई' के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ की यह परम्परा यहाँ
के ग्राम्य एवं वनांचलाश्रित उस सच्चे सीधे समाज की व्यवस्था है जिसे लोग अत्यंत
पिछड़े समाज के रूप में जानते हैं किंतु आश्चर्य है कि इस पिछड़े समाज की अनेक परम्पराएँ
सभ्य समाज की परम्पराओं से कहीं अधिक उत्कृष्ट, व्यावहारिक,
पवित्र और वैज्ञानिक हैं। विश्व के सभ्य समाज को अभी इस
पिछड़े समाज से बहुत कुछ सीखना होगा।
संवत 2064... यांत्रिक उपलब्धियों एवं चमत्कारों की
पराकाष्ठा की ओर बढ़ते कलियुग के चरण का एक और काल। दिक् और काल को अपने नियंत्रण
में करता सा प्रतीत होता मनुष्य अपने विजय अभियान की ओर अग्रसर है। आर्थिक समृद्धि
ने विलासिता के विभिन्न द्वार खोल दिये हैं। तीव्रगति वाहनों के कारण सिमटती
दूरियों ने सुदूर देशों को भी पास-पास ला खड़ा किया है। आदान-प्रदान और भी सुगम हो
गया है। आपसी स्पर्धाएँ एक प्रकार के युद्ध में परिणित होती जा रही हैं। यह युद्ध
भारत की प्राचीन संस्कृति पर अपसंस्कृति के दुष्प्रभाव का ही परिणाम है। इस युद्ध
में सांस्कृतिक मूल्यों की बलि चढ़ती है, मानवता पर
यांत्रिक दानवता प्रभावी हो जाती है और विलासिता में डूबा समाज पतन की ओर अग्रसर
होने लगता है। आज हम इसी के प्रभाव में आकर अपने आध्यात्मिक,
सांस्कृतिक, नैतिक और
सामाजिक मूल्यों को खोते जा रहे हैं। वैचारिक युद्ध घमासान हो उठा है और हमें अपने
आपको तथा अपनी पीढ़ी को बचाना है।
वृहत्तर भारत की
भौगोलिक सीमाएँ बीसवीं शताब्दी में देश की स्वतंत्रता के साथ ही सिमट गयीं और
सीमांत प्रदेशों का अस्तित्व संकटों से घिर गया। इससे भी अधिक संकट हमारी प्राचीन
संस्कृति, सभ्यता और भाषा पर छाया हुआ है।
पिछले साठ वर्षों में भारतीय समाज को अपने सांस्कृतिक मूल्यों,
सभ्यता और भाषा की भारी क्षति उठानी पड़ी है। विश्व में ऐसे
अनेक मानव समुदाय रहे हैं जो अपनी संस्कृति और भाषा की रक्षा नहीं कर सके और इस
धरती से सदा-सदा के लिये लुप्त हो गए। हमें इनके दूरगामी परिणामों पर गम्भीर मनन
करना होगा। अस्तित्व की रक्षा के इस प्रयास में हमें पीछे लौटना होगा ..अपने अतीत
की ओर। उन सांस्कृतिक मूल्यों को अपना कर पुनर्जीवित करना होगा जिनके कारण हमारा
अतीत गौरवशाली रहा है और हम श्रेष्ठ कहलाने के अधिकारी बन सके। हमारे अतीत में 'वसुधैव
कुटुम्बकम्' का सन्देश है,
'अतिथि देवो भव' का संदेश
है, 'यत्र पूज्यते नारी, रमंते
तत्र देवता' का संदेश है,
'सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवाव है'...
का सन्देश है।
इसी वसुधैव
कुटुम्बकम् की भावना से ओतप्रोत है छत्तीसगढ़ की 'मितान बधई'
परम्परा। आज इसकी प्रासंगिकता और उपादेयता और भी महत्तवपूर्ण
हो गयी है। आधुनिक फ्रेंडशिप-डे और वैलेंटाइन-डे ने मितान परम्परा का कलेवर लेने
का असफल प्रयास किया है किंतु उसके पवित्र भाव को, उसकी
आत्मिक सुगन्ध की व्यापकता को अपने में समाहित नहीं कर सके। मितान बधई का कोई एक
निश्चित दिन नहीं होता, यह तो पूरे वर्ष भर चलने वाला पर्व
है जिसमें निरंतर बहने वाली नदी के प्रवाह जैसा भाव है,
जिसके निर्मल जल को पीकर कभी भी तृप्त हुआ जा सकता है।
'मितान' शब्द
प्रेम के छलकते प्याले सा प्रतीत होता है जिसका आकर्षण ही अपने आप में विशिष्ट है।
आज के युग में सच्चा मित्र मिलना दुर्लभ है किंतु मितान तो सदा-सदा के लिये आपका
घनिष्ठ सम्बन्धी हो जाता है, यही इस
परम्परा की दुर्लभ विशिष्टता है। यदि आप द्वापरयुग के कृष्ण और सुदामा की मित्रता
की खुश्बू का अनुभव करना चाहते हैं तो एक बार छत्तीसगढ़ आकर किसी को अपना 'मितान'
बना लीजिये और पीढिय़ों तक निश्ंिचत होकर इस दुर्लभ खुश्बू से
सराबोर होते रहिये। ग्राम्य संस्कृति की यही देन कालांतर में पूरे छत्तीसगढ़ समाज
की सांस्कृतिक धरोहर बन गयी। आवश्यकता तो इस बात की है कि अब यह पूरे विश्व मानव
की सांस्कृतिक धरोहर बन जाये।
कलियुग के वर्तमान कालखण्ड में भौतिक प्रगति के साथ-साथ
स्वार्थपरता ने मानव समाज को न जाने कितने खण्डों में बाँट रखा है। सहजता का स्थान
कृत्रिमता ने और सुकोमल भावनाओं का स्थान भावशून्य औपचारिकताओं ने ले लिया है।
दुर्भाग्य से देवस्थान हिमालय से उद्गमित पवित्र नदियों के अस्तित्व पर घिर आये
संकट की तरह हमारी मितान परंपरा पर भी लुप्त होने का संकट घिर आया है। हमें इस
प्रेमासिक्त धरोहर को किसी भी तरह बचाना ही होगा। आज पूरा विश्व आतंकवाद के साये
में जीने को विवश है। कब कोई मानव बम हमारे प्राण ले लेगा,
कब कोई भयानक विस्फोट हमारी निजी और राष्ट्रीय संपत्तियों को
नष्ट कर धूल-धूसरित कर देगा, हममें से
कोई नहीं जानता। हम सब कितनी दु:खद त्रासदी में जीने के लिये बाध्य हो गये हैं।
विभिन्न सुख-सुविधायें और विलासिता के साधन कितने अर्थहीन हो जाते हैं जब अनायास
किसी भयानक विस्फोट में यात्रियों से भरी किसी ट्रेन के वीभत्स और कारुणिक दृश्य
पूरी मानवता को हिलाकर रख देते हैं। बड़ी-बड़ी सरकारें आतंकवाद के सामने असहाय सी
प्रतीत होती हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि संप्रभुता संपन्न बड़ी-बड़ी
सरकारों को अपने प्रचार माध्यमों से अपने नागरिकों को आते-जाते,
उठते-बैठते संभावित अनिष्ट से बचने के लिये सतर्क रहने का
आग्रह करना पड़ रहा है। लोग अपने ही देश की धरती पर भयमुक्त होकर जी पाने से वंचित
हो गये हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि अपने नागरिकों के प्राणों और संपत्तियों
की रक्षा का जो स्वाभाविक दायित्व शासन का होता है वह अब स्वयं हमें ही उठाना
होगा। अराजकता और असहायता की यह अत्यंत भयावह स्थिति है जो समाज को किसी अनिष्ट की
दिशा में भी मोड़ सकती है। सरकारी उपाय सफेद हाथी बनकर रह जाते हैं और आतंकी
घटनायें मानवता को तार-तार करती रहती हैं। इस सब चीत्कार के मध्य जब हम सहायता के
लिये इधर-उधर ताकते हैं तो आशा की एक सशक्त किरणपुंज के रूप में छत्तीसगढ़ की
मितान परंपरा समाधान के रूप में प्रस्तुत हो हमें अभिभूत कर जाती है। यह वह उदार
परंपरा है जो जाति नहीं देखती, धर्म नहीं
देखती, छोटा-बड़ा नहीं देखती... देखती है तो बस कोमल अंतस का
सहज प्रेम जो निर्झर सा बहते रहने को भरा बैठा है। प्रेम की यह धार अनेक सामाजिक
बंधनों को तोड़ती हुयी, अनेक अन्य संबन्धों को जोड़ती हुयी
पीढिय़ों तक बहती रहती है। एक बार मितान बंधन में बंध जाने के बाद फिर कोई पराया
नहीं रह जाता। मितान संबन्ध इतने घनिष्ठ होते हैं कि एक पक्ष के संबन्धी भी दूसरे
पक्ष के संबन्धी बन जाते हैं। यह व्यष्टि से समष्टि की प्रेमपूर्ण यात्रा है।
आश्चर्य जनक रूप से रक्त संबन्धों से भी अधिक घनिष्ठ होते हैं मितान संबन्ध। दो
मितान कई पारिवारिक संबन्धों को प्रेमसूत्र में पिरोकर उत्कृष्ट मानवीय संबन्धों
का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यहाँ कोई साक्षी नहीं होता,
कोई वचन लिपिबद्ध नहीं होते, कोई
बाध्यता नहीं होती फिर भी निष्छल प्रेम की ऊर्जा सामाजिक संबन्धों को घनिष्ठतम्
एवं सुदृढ़तम् बना देने के लिये पर्याप्त होती है। ये संबन्ध ब्रिटेन के अलिखित
संविधान की तरह सहज भाव से चलते रहते हैं। न्यायालयों में साक्षियों की उपस्थिति
में बनने वाले संबन्ध न्यायिक बाध्यताओं के बाद भी प्रेम के स्थायित्व को
सुनिश्चित नहीं करते, किंतु मितान संबन्ध किसी भी बाध्यता
के बंधनों से मुक्त केवल प्रेम की अजस्र धारा बहाते रहने के लिये चिरप्रतिज्ञ है।
आधुनिक संबन्धों के खोखलेपन और अस्थिरता के इस युग में छत्तीसगढ़ की यह सांस्कृतिक
धरोहर और भी प्रासंगिक हो गयी है।
आइये,
माता कौशल्या की इस जन्मभूमि को कोटि-कोटि प्रणाम करते हुये
हम उसी प्राचीन सांस्कृतिक-सामाजिक धरोहर को संरक्षित करने का संकल्प लेकर मितान
परंपरा को पुनर्जीवित करने के साथ ही यह संदेश देकर पूरे विश्व का आह्वान करें कि
आतंकवाद से जूझने का उपाय छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत में है। वे यहाँ आयें,
स्वयं इससे अभिभूत हो जायें और यदि पायें कि हृदय में कोई
स्पन्दन उठने लगा है तो विश्व के कोने-कोने में फैला दें इस पवित्र संदेश को।
छत्तीसगढ़ की धरोहर पूरे विश्व में मानवता की पवित्र धरोहर बन जाये और आतंकवाद
अतीत का दु:स्वप्न बनकर किसी कृष्णविवर में खो जाये। हमें अपने अतीत को स्मरण करते
हुये वर्तमान को गढऩा है ताकि भविष्य के भय से मुक्त हो अपनी जीवन यात्रा सफल बना
सकें।
सम्पर्क: शासकीय कोमलदेव जिला चिकित्सालय
कांकेर उत्तर-बस्तर छ.ग. 494334,
Email-
kaushalblog@gmail.com
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