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Dec 25, 2010

कश्मीर: अब बोलने का नहीं करने का समय आ गया है

- हुमरा कुरैशी
कश्मीर को लम्बे समय से कभी न खत्म होने वाले हिंसा चक्र के निशाने पर रखा गया है। हाल ही में सुरक्षा बलों द्वारा एक युवा प्रदर्शनकारी की मृत्यु पर जनता द्वारा सड़कों पर रोष का परिदृश्य इस लम्बे और दर्दनाक इतिहास में एक और घटना भर है, जहां कश्मीर और शेष देश के बीच का अंतर और बढ़ता जा रहा है। संघर्ष, अविश्वास और दुख के ऐसे परिदृश्य में चार महिलाएं जो अपने अलग- अलग तरीकों से क्षेत्र में कुछ बदलाव के लिए काम कर रही हैं, ने बदलाव लाने के लिए गैर हिंसात्मक तरीकों के बारे में आवाज बुलंद की है।
पिछले साल, जब दिल्ली स्थित शिक्षाविद् उमा चक्रवर्ती ने महिला समाजकर्मियों, वकीलों और एक महिला संपादक के छोटे से समूह के साथ कश्मीर की यात्रा की तो उसे स्थानीय तौर पर काफी हैरानगी हुई। वे वहां औसत सैलानियों की तरह सैर सपाटे के लिए नहीं गई थीं। वे सोफिअन, जहां कथित रूप से दो युवा महिलाओं का बलात्कार और कत्ल हुआ था, खुद अपने लिए उसके वास्तविक तथ्यों को समझना चाहती थीं। उसके बाद के महीने में समूह ने सोफिअन दुखद घटना पर संपूर्ण रिपोर्ट निकाली, जो वहां की घटनाओं पर आधिकारिक रिपार्ट से काफी विवादित थी और स्थानीय पुलिस और सीबीआई को, जानबूझ कर तथ्यों की तोड़- मरोड़ करने के लिए जिम्मेदार बताती थी। जम्मू स्थित अखबार की संपादक अनुराधा भसीन जामवाल जो उस दल का हिस्सा थीं कहती हैं, 'सोफिअन केस दर्शाता है कि यदि आरोपी कोई वर्दी वाला होगा तो सुरक्षा बल और राज्य उसे बचाने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। दुख की बात है, न्याय के लिए एक पूरी तरह अराजनीतिक और शांतिपूर्ण अभियान के बावजूद, सरकार सोफिअन लोगों को अभी भी इससे वंचित कर रही है और सार्वजनिक रोष में घी डाल रही है।'
चक्रवर्ती इस मुद्दे पर सरकार के रवैये से काफी नाराज हैं। 'सीबीआई ने इस मुद्दे पर जिस तरह से काम किया वो हमारे लिए सबसे बड़ा धक्का था। घाटी के लोग इस 'लीपापोती' को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? आज सड़कों पर रोष दिखाने का एक कारण यह व्यापक धोखेबाजी की भावना है।' ब्रिटिश लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता जस्टिन हार्डी, जो कश्मीर में स्वास्थ्य और काउंसलिंग सेंटर भी चलाती हैं मानती हैं कि बाहर के जो लोग कश्मीर के साथ संबंध बनाना चाहते हैं उन्हें स्थिति को समझने की जरूरत है। वे कहती हैं, 'बाहर के लोगों को कश्मीर से हमेशा ही प्यार होता रहा है। अपनी ओर से कश्मीरी सदियों से अतिथियों और आक्रमणकारियों का अनंत रूप स्वागत करते रहे हैं। यह उनके स्वाभाव का हिस्सा है। लेकिन पिछले 20 सालों से उनकी परिस्थिति के बाहर आराम से बैठे लोगों द्वारा उन्हें अपनी समस्याएं सुलझाने के लिए काफी बोला जा चुका है। अब 'बोलने' का नहीं 'करने' का समय आ गया है।' हार्डी अपने आप को कश्मीर के जादू से प्रभावित हुए उन बाहरी लोगों में देखती हैं जो बार- बार उस स्थान पर लौटती हैं जिसे उन्होंने तब से जाना है जब वे छोटी लड़की थीं। वे कहती हैं, 'जब मैं बड़ी हुई, मैंने वहां से पत्रकार के तौर पर रिपोर्टिंग की और फिर कश्मीरियों के साथ काम करना शुरू किया। इसने मुझे इंसानी स्थितियों के बारे में मेरी जिंदगी में किसी भी और चीज से कहीं अधिक सिखाया है।'
अनहद एक एनजीओ की संस्थापक सदस्य शबनम हाश्मी भी कश्मीर में लोकतंत्र, न्याय और शांति के मुद्दों पर काम करती हैं, वे मानती हैं कि समय आ गया है कि सरकार केवल बातें न बनाए 'क्या नि:शस्त्र, अहिंसात्मक नागरिकों से बातचीत करने का क्रूर बलप्रयोग के अलावा कोई और रास्ता नहीं है? और, वैसे भी इस नागरिक अशांति का मूल कारण क्या है? केंद्रीय और राज्य सरकारों द्वारा मानव अधिकार उल्लंघनों के प्रति शून्य सहनशीलता का बार- बार आश्वासन देने के बावजूद, सच अभी भी यही है कि जो घृणित और सकल हिंसाओं के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें सजा देने के लिए शायद ही कुछ किया गया है। लोगों के बिखरे विश्वास को वापस लाने के लिए केवल बातें बनाना काफी नहीं है।' तो आगे बढऩे का रास्ता है क्या? हाश्मी का मानना है कि जरूरी है केंद्र और राज्य प्राधिकरण इस क्रूर हिंसा के लिए जो जिम्मेदार हैं उनके खिलाफ सख्त और दर्शनीय कार्यवाही करें। वे कहती हैं, 'किसी भी तरह की देर लोगों के आक्रोश और अलगाव को केवल बढ़ाएगी और घाटी में शांति प्रक्रिया को ठीक न हो सकने वाला नुकसान पहुंचाएगी।' हार्डी साफ कहती हैं, 'कश्मीर की स्थिति के लिए काफी सफाईयां दी जा चुकी हैं। एक बात जिसके बारे में ज्यादा लिखा या बोला नहीं गया है, वह यह कि हिंसा से केवल और अधिक हिंसा पैदा होती है। जब तक संयम, प्रदर्शन नियंत्रण, प्रतिविद्रोहता और विद्रोह के उन्ही तरीकों का प्रयोग जारी रहेगा बदलाव असंभव है।
एक पूरी पीढ़ी इसी धधक और वास्तविक हिंसा की निरंतर अवस्था से पैदा हुई है। अगर घाटी से कभी बाहर न जाने वाले युवाओं के लिए इकलौती वास्तविकता का उदाहरण यही है, तो वे स्वयं इससे हट कर अलग कुछ क्यों करेंगें?' हाश्मी कहती हैं कि बंदूक की नोक पर लोगों को जीता या दबाया नहीं जा सकता। वे कहती हैं, 'जम्मू और कश्मीर के लोग निश्चित रूप से भारतीय राज्य से अधिक तर्कसंगत, मानवीय, दूरदर्शी और संवेदनशील प्रतिक्रिया के हकदार हैं। शुरुआत के लिए भारत सरकार के प्रतिनिधियों को घाटी में आना आम लोगों से बात करना, सुुनना कि वो क्या कहना चाहते हैं जमीन पर वास्तविक तथ्यों को जानना शुरू करना चाहिए।'
ऐसा पहले भी किया जा चुका है और महिलाओं द्वारा ही। चक्रवर्ती इंगित करती हैं कि बहुत पहले 1950 में महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजकर्मी मृदुला साराभाई, नृत्यांगना मल्लिका साराभाई की दादी थीं जिन्होंने आम कश्मीरी के मुद्दे को उठाया। चक्रवर्ती कहती हैं 'वो पहली गैर कश्मीरी भारतीय महिला थीं जिन्होंने शेख अब्दुल्ला जिन्हें उस समय कारावास दिया गया था के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लडऩे की हिम्मत की। उन्होंने इतने जोरदार तरीके से विरोध किया कि स्वयं उन्हें उस समय की स्थापित सत्ता द्वारा 14 वर्षों के लिए घर में नजरबंद कर दिया गया।' और हाल में 1990 में जब कश्मीर जल रहा था और सारी घाटी में हिंसा फैली हुई थी, तीन पूर्णत: महिला तथ्य- खोजी समूहों ने मुश्किल क्षेत्रों की यात्रा की। बल्कि 2001 में चक्रवर्ती स्वयं ऐसे एक समूह का हिस्सा थीं, जिसने देश को आम माता- पिता की यातना से सावधान करने में सहायता की जिनके जवान लड़के 'गायब' हो गए थे जिनमें से कईयों को सुरक्षा बलों द्वारा कथित लड़ाई के लिए पकड़ लिया गया था।
जामवाल के अनुसार, 'आज का गुस्सा मानव अधिकार दुव्र्यवहार और कश्मीर के दर्जे पर बुनियादी राजनीतिक विवाद से भरे कई सदियों के इतिहास से पैदा होता है। थोड़ा सा उकसाने से व्यापक विरोध, पत्थर फेंकना और हाथों से मारपीट शुरू हो जाती है।' उन्हें लगता है कि मुख्यधारा की राष्ट्रीय मीडिया ने राय पर नियंत्रण और केंद्र तथा राज्य सरकारों की खराब छवि को छिपा कर, कश्मीरियों और बाकी देश के बीच परिप्रेक्ष्य के अंतर को बढ़ाने में योगदान दिया है। वे कहती हैं, 'इस प्रक्रिया में जमीन की वास्तविकता खो गई और श्रोताओं तथा दर्शकों को एकतरफा गलत सूचना वाली तस्वीर मिलती है।' जामवाल का मानना है कि संघर्ष को खत्म करने का एक ही तरीका है, वह है दो स्तरीय रणनीति अपनाना। एक स्तर पर, राज्य आर्थिक पैकेजों की घोषणा, जो भ्रष्टाचार में खो जाते हैं करने की बजाय राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत करें। दूसरे छोर पर गंभीरता से वर्दी में मानव अधिकारों का उल्लंघन करने वाले दोषियों को उचित, पारदर्शी और संस्थागत प्रक्रिया के माध्यम से सजा दें।
चक्रवर्ती सहमत हैं कि पहला काम कश्मीर के लोगों तक पहुंचना और उन्हें न्याय देना है। 'मुझे याद है, 2001 में मैं घाटी में कुछ कश्मीरी महिलाओं से बातचीत कर रही थी। मैंने उनसे पूछा कि उन्हें क्या लगता है कि स्थिति कब बेहतर होगी। एक महिला ने तुरंत जवाब दिया, 'जब तुम लोग हालात बदलोगे...'।
उसका मतलब था कि जब सारा देश खड़ा होगा और मांग करेगा कि कश्मीरियों को न्याय मिलना चाहिए, संघर्ष केवल तभी खत्म होगा'। (विमेन्स फीचर सर्विस)

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