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Dec 25, 2010

चमत्कार भी होते हैं !

चमत्कार भी होते हैं !
- डॉ. रत्ना वर्मा
वर्ष के अंतिम माह में वर्ष भर का लोखा- जोखा किया जाना स्वाभाविक है। कि 2010 का वर्ष कैसा रहा? क्या कहेंगे आप? अपनी किस विशिष्टता के लिए याद किया जाएगा भारत के इतिहास में इक्कीसवीं शताब्दी का इस वर्ष समाप्त हो रहा यह प्रथम दशक?
हमारे देश में भ्रष्टाचार जो छह दशक पूर्व एक नाली की तरह था वह इस दशक में बढ़कर एक अथाह महासागर का रूप ले चुका है। बड़ी संख्या में नेता, नौकरशाह और व्यापारी भ्रष्टाचार के इस महासागर में खूंखार सफेद शार्क मछलियों की तरह किलोल करते पनप रहे हैं। इस वर्ष भ्रष्टाचार के इस महासागर में से कुछ भयंकर ज्वालामुखी फटे यथा 70 हजार करोड़ का राष्ट्रकुल खेलों का घोटाला, 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कारगिल युद्ध के शहीदों के नाम से आदर्श सोसायटी घोटाला और कर्नाटक में खानों तथा सरकारी जमीन के आवंटन का घोटाला।
पिछले दो दशकों में घोटालों में हजार गुना, लाख गुना वृद्धि होने का एक प्रमुख कारण राजकीय कोष में सेंध लगाकर अपनी जेबें भरने को अपना कत्र्तव्य मानने वाले नेताओं और नौकरशाहों की पहले से ही मौजूद बड़ी संख्या थी। लाइसेंस, कोटा राज से मुक्ति पाए व्यापारी भी नियम कानूनों की धता बताते हुए पैसा बनाने में पहले से ही सिद्धहस्त थे। जैसे ही भ्रष्ट नेताओं और सरकारी कर्मचारियों को कानून पर धूल डालते हुए पैसा बनाने में माहिर व्यापारियों की सेवाएं प्राप्त हुईं कि दमघोंटू महंगाई से त्रस्त जनता को भ्रष्टाचार की सुनामी को भी झेलना पड़ रहा है।
दरअसल वैश्वीकरण के नाम पर हमारी नैतिक मूल्यों पर आधारित पारंपरिक संस्कृति को विस्थापित करके पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित मूल्य विहीन व्यापारिक संस्कृति को थोपा गया है। इस आयातित व्यापारिक संस्कृति के अनुसार इसका एकमात्र उद्देश्य धनोपार्जन है और धनोपार्जन के तरीकों के संदर्भ में कुछ भी नाजायज नहीं होता! अधिकांश नेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और व्यापारियों ने इस प्रकार के धनोपार्जन को पूर्ण आस्था से अपना कत्र्तव्य मान लिया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि भ्रष्टाचार का तमगा पाये हुए लोग अब शर्म और लिहाज को कायरता मानते हुए शान से सीना फुलाए बेफिक्र मौज करते हैं। भ्रष्टाचारी आम जनता का धन और सम्पत्ति बेखौफ होकर इसलिए लूटते रहते हैं क्योंकि हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था इन्हें संरक्षण देती है। राजनीतिक दंड संहिता के अनुसार पद से त्यागपत्र दे देना किसी भी अपराध के लिए समुचित दंड माना जाता है। (जैसे मुख्यमंत्री के रूप में जानवारों के चारे के नाम पर हजारों करोड़ के घोटाले के अपराध से इस्तीफा देकर केंद्र में कैबिनेट मंत्री बन जाना)। जहां तक सरकारी अफसरों का सवाल है पहले तो उनके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार (वरिष्ठ अफसरों) से अनुमति लेनी पड़ती है जो अधिकांशत: मिलती ही नहीं है। और अगर मामला अदालत में चला भी गया तो उन्हें मालूम है कि हमारी न्यायप्रणाली में उनके जीवन काल में तो फैसला आएगा नहीं।
आज देश की समूची प्रशासनिक व्यवस्था का एक भी अंग भ्रष्टाचार से अछूता नहीं बचा है। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय को भी देश के सबसे बड़े उच्च न्यायालय में फैले भ्रष्टाचार के बारे में तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी है। नैतिक पतन के चरम स्थिति पर पहुंचने का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा?
9 दिसंबर अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के अवसर पर अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा भी है कि भारत में 54 प्रतिशत लोगों का कहना है कि बिना रिश्वत के उनका कोई काम नहीं होता। जबकि हमारा मानना है ऐसा मानने वालों का प्रतिशत 85 प्रतिशत से भी अधिक होना चाहिए।
देश की वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था की स्थिति तो उस थाने जैसी है जहां उसके मातहत तो धड़ल्ले से लूटने में लगे है और पारर्दशी रूप से ईमानदार थानेदार आंखें मूंदे मौनी बाबा बना बैठा रहता है! इसी को कहते हैं 'अंधेर नगरी चौपट राजा।' स्वाभाविक ही है कि इस माहौल में हमारा देश आतंकवादियों के नृशंस खूनी खेल के लिए सबसे सुविधाजनक क्रीड़ास्थली बन गया है। क्या ताज्जुब की अंधेर नगरी की सरकार को केंद्रीय सर्तकता आयोग की अध्यक्षता के लिए सबसे उपयुक्त ऐसा अधिकारी ही मिला जिसके खिलाफ वर्षों से भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है!!
निश्चय ही घट- घट व्यापी भ्रष्टाचार इस दशक में हमारे देश की विशिष्टता है, परंतु मानव जीवन का यह भी यथार्थ है कि चमत्कार भी होते रहते हैं। जैसे 1977 में आपातकाल की सरकारी बेडिय़ों में जकड़े देश को जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रायोजित चमत्कार ने अवसाद से मुक्ति दिलाई थी वैसे ही पिछले माह बिहार के चुनाव परिणामों ने कमरतोड़ महंगाई और भ्रष्टाचार के अंधकार से त्रस्त आम आदमी को आशा की ज्योति दिखाई है। लालू- राबड़ी के 15 वर्ष के कुशासन ने बिहार को भ्रष्टाचार और अराजकता के लिए पूरे विश्व में कुख्यात कर दिया था। उसी बिहार को पुरस्कार के रूप में मतदाताओं ने नीतिश कुमार और सुशील मोदी के ईमानदार नेतृत्व को अभूतपूर्व सफलता दिलाते हुए देश को यह भी स्पष्ट संदेश दिया है कि आज का जागरुक मतदाता जातिवाद से ऊपर उठ कर विकास के कार्य कर रहे नेताओं के हाथ मजबूत करेगा और झूठे वादों की आड़ में भ्रष्टाचार करने वाले नेताओं को कूड़ेदान में फेंक देगा। इसका तुरंत परिणाम भी मिला- पहला सबसे बड़ा कार्य नीतिश कुमार ने यह किया कि विधायकों को प्रति वर्ष मिलने वाले 'स्थानीय क्षेत्र विकास निधी' की एक करोड़ राशि (सभी जानते हैं कि इस धन का दुरूपयोग ही होता है) को समाप्त कर दिया है। इसके साथ एक ऐसा कानून पास किया जिसमें भ्रष्टाचार में पकड़े गए सरकारी कर्मचारी की संपत्ति जब्त कर उसका उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जाएगा।
ऐसा ही एक और चमत्कार हुआ- नोएडा जमीन घोटाले में उत्तर प्रदेश की पूर्व प्रधान सचिव और रिटायर्ड आईएएस अफसर नीरा यादव को गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत द्वारा दोषी करार देते हुए 4 साल की सजा सुनाना। नीरा यादव के खिलाफ फ्लेक्स ग्रुप को गलत तरीके से सात एकड़ जमीन अलॉट करने का मामला था।
हमें विश्वास है कि हमारे सुधी पाठक भी हमारी भांति कामना करते हैं कि देश के सभी नेता और मतदाता बिहार के इस चमत्कारिक आदेश को नववर्ष के लिए सार्थक संदेश मानते हुए हार्दिक स्वागत करेंगे।
आपका नववर्ष मंगलमय हो।

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