जूते सिलने का काम मोची
ही करेगा,
धोबी नहीं। नाई ही हजामत बनाएगा, हलवाई नहीं।
यही बात ट्यूशन के सम्बन्ध में भी है। घोड़ा-ताँगा हाँकने वाला, बंदर-भालू नचाने वाला, लौकी और कद्दू बेचने वाला तो
ट्यूशन पढ़ाने से रहा। इस कलियुगी निंदास्पद कार्य को अध्यापक ही सम्पन्न कर सकता
है। यदि ऐसा न होता तो तम्बाकू और शीरा बेचने वाले भी ट्यूशन ही पढ़ाया करते। लोग
अध्यापक से न जाने क्यों जलते हैं? जो अपनी ही आग में जला जा
रहा है उस बेचारे से क्या जलना? राम तो विष्णु के अवतार थे,
उन्हें भी गुरु के घर जाना पड़ा। यही कारण था कि अल्पकाल में ही
उन्होंने सारी विद्याएँ प्राप्त कर लीं थीं। तुलसी बाबा ने भी इस बात की पुष्टि की-
‘‘गुरु-गृह गए पढ़न रघुराई। अल्पकाल विद्या सब पाई।’’ जब भगवान का यह
हाल था, तब आज के छात्र की क्या औकात।
भारत जैसे शास्त्र
प्रधान देश में ट्यूशन-शास्त्र पर अभी तक एक भी ग्रंथ नहीं है। शास्त्रों की बखिया
उधेड़ने वालों के लिए यह डूब मरने की बात है। इस प्रक्रिया के कुछ सोपान निश्चित
किए जा सकते हैं।
विद्वत्ता से प्रभावित
होकर ट्यूशन पढ़ने वाले छात्रों को उच्च श्रेणी में रखा जा सकता है। इनका शास्त्रीय
विवेचन करना व्यर्थ है। इनके अतिरिक्त ट्यूशन घेरने के लिए छात्रों पर फंदा डालना
पड़ता है। इसके कई तरीके हैं- कक्षा में देर से आना, कक्षा में पहुँचकर माथा पकड़कर बैठ जाना। एकाध सवाल समझाकर सारे कठिन सवाल
गृह-कार्य के रूप में देना। यदि छात्र कक्षा में कुछ पूछे तो- ‘कक्षा के बाद पूछ लेना’ कह देना। कक्षा के बाद पूछे, तो ‘घर आओ तब ही ढंग से बताया जा सकता है।’ दूसरी विधि-छमाही परीक्षा में
चार-पाँच को छोड़ बाकी छात्रों को फ़ेल कर देना। फिर देखिए सुबह-शाम छात्रों की भीड़
गुरु-गृह में दृष्टिगोचर होने लगेगी।
इस प्रकार जब दूकान चल
निकलती है,
तो दो शिफ्ट सुबह में वास्तविक पढ़ाई शुरू हो जाती है। गुरु जी पढ़ाते
समय विभिन्न दैनिक एवं पारिवारिक कार्यों को भी सम्पन्न करते रहते हैं- एक पंथ दो काज। विनाशक जी छुटके की रुलाई रोकने के लिए सिंहासन छोड़कर कई
बार घर के अंदर जाते हैं। इसी बीच बाथरूम में जाकर नहाना, नहाने
के बाद अगरबत्ती जलाकर पूजा करना और बीच-बीच में दिशा-निर्देश भी करते जाते हैं-
महेश तुम गुणनखंड के आठ प्रश्न अभी हल करो।’ श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ संतन की सेवा’ और
सोहन तुम वृत्त के सभी प्रश्न कर जाओ। इस प्रकार कार्यरत रहने से ये गुरु-शिष्य
विद्यालय में देर से पहुँच कर गौरव प्राप्त करते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि
छात्रों के हृदय से सेवा-भावना का लोप हो रहा है। इन गैर सरकारी ‘कुटीर शिक्षा
केन्द्रों’ का निरीक्षण करें, तो उन्हें अपनी विचारधारा बदल देनी पड़ेगी।
सुबह के समय एक छात्र डेरी से दूध ला रहा है। दूसरा गुरु-पुत्र को विद्यालय पहुँचा
रहा है। तीसरा गुरु पत्नी की सेवा में जुटा हैं और सिल पर मसाला पीस रहा है,
चौथा अँगीठी लगाने में सहायता कर रहा है। चक्की से गेहूँ पिसवाकर
लाना, सब्जी मंडी से सब्जी लाना, धोबी
के यहाँ मैले कपड़े भिजवाना, गुरु जी के लिए दूकान से
बीड़ी-पान ख़रीदकर लाना, इन सभी कार्यों को छात्र ही सम्पन्न
करते हैं। इस प्रकार शिक्षा में श्रम अनायास ही जुड़ जाता है।
यदि सेवा- भावना से गुरु प्रसन्न है, तब भगवान भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गुरु जी अगर नाराज हैं, तो भगवान भी सहायता नहीं कर सकते। कबीर अनपढ़ भले ही रहे हों; परन्तु नासमझ नहीं थे। वे जानते थे कि शिष्य को व्यावहारिक होना चाहिए। इसलिए वे सबसे पहले गुरु के चरण छूने की सलाह देते हैं। गुरु और भगवान की मिली-भगत से वे अच्छी तरह परिचित थे। यही जानकर उन्होंने इशारा किया था- ‘कह कबीर गुरु रूठते हरि नहिं होत सहाय।’ ज्ञान, ध्यान, स्नान के लिए एकांत होना आवश्यक है। कक्षा की भीड़-भाड़ में ज्ञान-चर्चा करना व्यर्थ है। आज हमारी सरकार शिक्षा-नीति के परिवर्तन पर बहुत दे रही हैं। मेरी सलाह कोई माने तो ‘हींग लगे न फिटकारी रंग चोखा चढ़े।’ सब विद्यालय बंद करा दिए जाएँ। भवन-निर्माण, फर्नीचर, वेतन सभी खर्च समाप्त। कुटीर शिक्षा-केन्द्र चलाने के लिए धाकड़ अध्यापकों को प्रोत्साहित किया जाए।
ट्यूशन धौंकने वाले
अध्यापक से लाभ ही लाभ है। अपने प्रिय छात्र के लिए अध्यापक को कम पापड़ नहीं बेलने
पड़ते हैं। परीक्षा-कक्ष में नकल की विशेष छूट देना, पेपर आउट करना, कॉपी में नंबर बढ़ाना या घर जाकर कॉपी में लिखवाना। लिखित परीक्षा में दस
प्रतिशत नंबर लाने वाले छात्र को प्रयोगात्मक परीक्षा में नब्बे प्रतिशत अंक
दिलवाना आदि बहुत-सी सेवाएँ सम्मिलित हो जाती हैं। बाहर से आने वाले परीक्षक को
अपने घर से दूर रखना; लेकिन किसी जाल में फँसे शिष्य के घर
ले जाकर द्राक्षासव के साथ मुर्ग-मुसल्लम का भोग कराना भी आवश्यक हो जाता है।
विद्यालय की दीवारें
इनको काटने के लिए दौड़ती हैं। जिस प्रकार चोर को चाँदनी रात अच्छी नहीं लगती, इसी
प्रकार हरामखोरी न करने वाले शिक्षक इन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते; अतः यह अजन्मा लोगों के अज्ञात नामों के शिकायती पत्र लिखने का पुण्य भी
लूटते रहते हैं। अपने मन- बहलाव के लिए यह छात्रों के भविष्य को उजाड़ने वाले पुण्य
पुरुषों का लीडर बनकर अपने हीनभाव ग्रस्त मन को सांत्वना देते हैं। इनकी ‘राणा की
पुतली फिरी नहीं, चेतक तब मुड़ जाता था’ वाली हालत रहती हैं।
दूर से यदि प्राचार्य की परछाई भी दिखाई दे गई, तो ये चुपचाप
कक्षा में पदार्पण कर जाते हैं। वैसे कक्षा में इनके रहने या न रहने से कोई अन्तर
नहीं आता है; क्योंकि ‘जैसे कंता घर रहें तैसे रहें बिदेस।’
यदि कोई सनकी अध्यापक इनके धंधे-पानी में बाधा बनता है, तो ये करैत साँप बनकर उसे डसने का मौका ढूँढते रहते हैं। मुँह का जायका बदलने के लिए ये चुगली का भी सहारा लेते हैं; लेकिन इनकी हालत भुस-भरे कटड़े से आगे नहीं बढ़ पाती है, जिसको दूध निकालने के लिए भैंस के आगे रख दिया जाता है। भला हो शिक्षा बोर्ड वालों का यदि अर्ध- वार्षिक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को बोर्ड की परीक्षा से वंचित करने का नियम बनाया है। इससे ट्यूशन के कुटीर उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा तथा धंधे की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बल मिलेगा।
7 comments:
बहुत करारा और चुटीला व्यंग्य है। मेरी हार्दिक बधाई आदरणीय काम्बोज जी को
वाह,वाह,बड़ा चुटीला व्यंग्य,चुन चुन कर शब्द वाण चलाए है आपने।मेरी बधाई स्वीकार करें।
वाहह बहुत बढ़िया कटाक्ष... आजकल की हकीकत है.
बहुत ही बढ़िया व्यंग्य...
हार्दिक बधाई
गुरुवर को नमन
बहुत ही चुटीला व्यंग्य मगर ट्यूशनव्यशनियों पर कड़ा प्रहार। बहुत ही प्रभावशाली
करारा एवं सटीक व्यंग्य। हार्दिक बधाई
वास्तवता का चित्रण किया है आपने सर....यथार्थ तिर्यक.... बधाई सर 🌹🙏
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