बच्चे हों अथवा बड़े परिवर्तित समय में आज सभी की आकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं। यह अस्वाभाविक भी नहीं। बच्चों के संदर्भ में बड़ों को इस तथ्य को न केवल स्वीकार करना चाहिए अपितु उनके सहयोग के लिए भी तत्पर रहना चाहिए अन्यथा समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। पिछले दिनों एक मित्र महोदय का फोन आया। पौत्र-पौत्रियों के बारे में बातें करने लगे। उनकी पढ़ाई-लिखाई, प्राप्त अंक, करियर, खानपान, दिनचर्या, आदतों व उनके व्यवहार के बारे में काफी बातें कीं। बतलाया कि कई बार छुट्टियों में भी हमारे पास न आकर हॉस्टल में ही पड़े रहते हैं। बच्चों की और भी कई बातों से संतुष्ट नहीं थे। बात करते हुए बीच-बीच में उत्तेजित तक हो जाते थे। अपने किशोर अथवा युवा बच्चों अथवा पौत्र-पौत्रियों को लेकर माता-पिता अथवा घर के बुजुर्गों की चिंता स्वाभाविक है लेकिन हर चीज़ की एक सीमा होती है। अपने बच्चों अथवा पौत्र-पौत्रियों के मामलों में कितनी चिंता की जाए अथवा उनके जीवन में कितना हस्तक्षेप किया जाए। यदि हम इस सीमारेखा को समझकर उसके अनुसार व्यवहार करेंगे, तो उनसे हमारे संबंध सदैव आत्मीय व अर्थपूर्ण बने रहेंगे; अन्यथा हमेशा के लिए तनावपूर्ण हो जाएँगे; क्योंकि आजकल के किशोर अथवा युवा अपने जीवन में दूसरों का अधिक हस्तक्षेप पसंद नहीं करते।
जहाँ तक किशोरावस्था का प्रश्न है, यह अत्यंत संवेदनशील अवस्था होती है। अपने किशोर पौत्र-पौत्रियों की पढ़ाई-लिखाई अथवा उनके भविष्य को लेकर घर के बुजुर्गों की चिंता स्वाभाविक है; लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँचने के बाद इसकी मुख्य चिंता बच्चों के माता-पिता पर छोड़ देनी चाहिए और जहाँ बहुत ज़रूरी अथवा अपेक्षित हो वहीं अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए। उनकी शिक्षा-दीक्षा और करियर के विषय में उनके माता-पिता अपेक्षाकृत अधिक उचित निर्णय ले सकते हैं। उनको माँगने पर सलाह दी जा सकती है; लेकिन उनके निर्णयों को बदलने अथवा उनमें कमी निकालने का प्रयास किसी भी दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। वैसे भी आज करियर के क्षेत्र में बहुत परिवर्तन हो चुके हैं; अतः समय के अनुसार करियर के सही चयन के विषय में वे स्वयं अधिक जानते हैं। आज के ज़माने की तुलना अपने ज़माने से करना तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहरता। समय के साथ हर चीज़ बदलती है, इस बात को अच्छी तरह से जान लेना और स्वीकार कर लेना चाहिए।
समय के साथ-साथ नई पीढ़ियाँ भी बदल जाती हैं। उनकी सोच पुरानी पीढ़ियों की सोच जैसी नहीं हो सकती। होनी भी नहीं चाहिए। यदि नई पीढ़ी की सोच में समयानुसार अपेक्षित परिवर्तन नहीं होगा, तो वो आगे बढ़ने की बजाय पिछड़ जाएगी। नई पीढ़ी की सोच ही नहीं उनका खानपान, पहनावा व आदतें सब बदल जाते हैं जो अत्यंत स्वाभाविक है। उनकी दिनचर्या, खानपान व पहनावे को लेकर ज़्यादा टोकाटोकी करना अथवा हर बात में हस्तक्षेप करना, किसी भी तरह से उचित नहीं। विशेष रूप से उनके मित्रों अथवा अपने परिचितों या रिश्तेदारों की उपस्थिति में तो बिलकुल नहीं। उनके स्वास्थ्य के विषय में चिंता व्यक्त की जा सकती है; लेकिन उनकी शारीरिक बनावट अथवा देहयष्टि के विषय में नकारात्मक टिप्पणी करके नहीं। यदि हम किसी बच्चे से कहें कि ये क्या गैंडे जैसा शरीर बना रखा है; तो निश्चित रूप से वो हमसे दूर-दूर रहने और हममें कमियाँ निकालने का प्रयास करेगा। हमारी बातों से किसी भी तरह से बच्चे के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। बच्चों के मित्रों के विषय में भी ज़्यादा टीका-टिप्पणी न करके, उन्हें भी अपने बच्चों की तरह ही समझकर व्यवहार करना चाहिए।जो बच्चे घर से बाहर रहकर पढ़ाई करते हैं, वे छुट्टियों में अथवा बीच में जब कभी भी घर के सदस्यों से मिलने अथवा छुट्टियाँ बिताने के लिए घर आएँ, तो उनकी हर बात में हस्तक्षेप करने या उन्हें हर बात पर प्रवचन देने से वे घर आना-जाना कम कर देते हैं, जो दोनों के लिए ही ठीक नहीं। माना कि हम अत्यंत सात्त्विक भोजन करते हैं और हमारी दिनचर्या भी आदर्श और व्यवस्थित रहती है; लेकिन बाहर पढ़ने वाले बच्चों के लिए यह संभव नहीं हो पाता। आजकल स्टूडेंट्स पर पढ़ाई का बड़ा प्रेशर रहता है। रात-रात भर जागकर पढ़ने वाले बच्चों के लिए ब्रह्म मुहूर्त्त में उठकर स्नान-ध्यान करना कैसे संभव है? हम अपने बच्चों को डॉक्टर अथवा इंजीनियर बनाना चाहते हैं; लेकिन साथ ही ये भी चाहते हैं कि उनकी दिनचर्या गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों जैसी हो, तो ये असंभव है। बच्चों की दिनचर्या को न केवल महत्त्व ही देना चाहिए; अपितु इसके लिए उन्हें अनुकूल परिस्थितियाँ भी उपलब्ध करवाने का प्रयास करना चाहिए।
हमें परिवर्तित समय में परिस्थितियों के अनुसार होने वाले परिवर्तनों को स्वीकार कर लेना चाहिए; अन्यथा ये हमारे लिए ठीक नहीं होगा। बच्चों के पहनावे अथवा कपड़ों को लेकर भी ज़्यादा परेशान रहना ठीक नहीं। यदि हम बच्चों पर अपनी पसंद थोप देंगे, तो इसकी संभावना अधिक है कि वे अपने पीयर ग्रुप में उपहास के पात्र बन जाएँ। इससे उनके व्यक्तित्व का विकास बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है, जो हर तरह से उनकी उन्नति में बाधक होगा। बच्चों को उपहार के रूप में देने के लिए अपनी पसंद की नहीं; अपितु उनकी पसंद और उपयोगिता की चीज़ें लानी या मँगवानी चाहिए। खानपान के संबंध में भी ऐसा ही करना चाहिए। यदि बच्चे गलतियाँ करते हैं, तो भी निराश होने की ज़रूरत नहीं; क्योंकि गलतियों से भी वे अधिकाधिक सीखते हैं। यदि बच्चों की गलतियों से परेशान होकर उन्हें टोकते व कुछ नया करने से रोकते रहेंगे, तो उनकी रचनात्मकता समाप्त हो जाएगी और वे बहुत अधिक नया नहीं सीख पाएँगे। इससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है। हमें चाहिए कि बच्चों को स्वयं निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करें।
प्रश्न उठता है कि बच्चों के मामले में माता-पिता अथवा बुजुर्गों की भूमिका क्या हो? वे किस सीमा तक उनके जीवन में हस्तक्षेप करें। बच्चों से यहाँ तात्पर्य किशोरों और युवाओं से है। बेटे-बेटियाँ अथवा पौत्र-पौत्रियाँ चाहे वे स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे हों अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रशिक्षण ले रहे हों या किसी व्यवसाय अथवा सेवा में जा रहे हों, उनके जीवन में बुजुर्गों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता; लेकिन उनकी भूमिका फिलर की तरह होनी चाहिए। पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं अथवा आलेखों के अंत में कई बार कुछ जगह बच जाती है। संपादक उन स्थानों पर छोटी-छोटी रचनाएँ, प्रेरक प्रसंग, दोहे अथवा शेर आदि डाल देते हैं। मज़े की बात तो ये है कि कई बार ये संक्षिप्त प्रस्तुतियाँ मुख्य रचनाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी ही नहीं, रोचक भी होती हैं। मुझे याद है कि मैं प्रारंभ से ही जब भी किसी पत्रिका को पढ़ने के लिए खोलता था, तो सबसे पहले इन फिलर्स को ही पढ़ता था। मैंने इन्हें हमेशा ही रोचक व ज्ञानवर्धक पाया। यदि हम बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप के मामले में अपनी भूमिका फिलर्स की रखें और अच्छे फिलर्स की रखें, तो बच्चे न केवल हमारी ओर ध्यान देंगे अपितु हमारी बातों से लाभांवित भी होंगे।
हम उनके जीवन के उन हिस्सों को प्रभावित करें, जिनका पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं अथवा जो अन्य किसी कारण से उपेक्षित रह जाते हैं। जब वे चलते हुए किसी दोराहे पर आकर भ्रमित होकर रुक जाएँ अथवा कोई ग़लती कर बैठें तब उनका मार्गदर्शन करें व उन्हें सही मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। बच्चों की पसंद को महत्त्व दें और उनकी पसंद में अपनी पसंद जोड़ दें; लेकिन आटे में नमक के समान। बच्चों की आलोचना करने की बजाय उनकी अच्छी आदतों को रेखांकित करके इनके लिए उनकी प्रशंसा करें। आज बच्चे ऐसा बहुत कुछ जानते हैं, जो हम बिलकुल नहीं जानते। उनकी नई-नई जानकारियों और ज्ञान को न केवल महत्त्व दें; अपितु उनसे कुछ नया सीखने का प्रयास करें। इससे उन्हें अच्छा लगेगा और वे हमारे और अधिक निकट आने लगेंगे। इससे हमारे आपसी संबंधों में तनाव की अपेक्षा प्रगाढ़ता उत्पन्न होगी। यदि किशोरों से हमारे संबंधों में आत्मीयता होगी तो वे हम पर न केवल पूर्ण विश्वास करेंगे अपितु हमारी बातों को भी अवश्य महत्त्व देंगे और ऐसी अवस्था में उनको समझाना अथवा उनका सही मार्गदर्शन करना सरल हो जाएगा। एक विज्ञापन कहता है कि पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें। इसी प्रकार से पहले बच्चों की परिवर्तित परिस्थितियों को स्वीकार करें, तदुपरांत यदि उनमें कुछ परिवर्तन अपेक्षित व संभव है तो उसके लिए प्रयास करें।
सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतम पुरा,, दिल्ली - 110034, मो. नं. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in
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