शहर में बड़ा पार्क बना था। समाचार पत्र उद्घाटन की तस्वीरों से भरा हुआ था। रेडियो पर, टेलीविज़न के हर चैनल पर पार्क की चर्चा थी। मुनिया नहीं जानती थी 700 करोड़ कितना होता है ;लेकिन जब माँ ने नुक्कड़ की दुकान पर डबलरोटी लाने भेजा तो वहाँ कुछ सुन आई थी और इतना समझ गयी थी कि बहुत बढ़िया पार्क बना है! अपनी कालोनी के सूखी मिट्टी वाले रेलिंग टूटे व गायों के गोबर से भरे पार्क में बहुत दिन से जाना छोड़ दिया था। वहाँ के सभी झूले भी तो टूट चुके थे। बहुत जिद करने पर और माँ के मनाने पर पिताजी रविवार को नए पार्क ले जाने को मान गए। आलू पूड़ी, थर्मस, चिप्स, छोटे अन्नू का बैट-बॉल लिये पार्क पहुँचे तो दरबान ने गेट पर ही सारा खाना रखवा दिया, "अंदर खाना पीना मना है! जाते समय वापस मिल जाएगा; लेकिन बाहर का रास्ता दो नंबर गेट से है। यहाँ तक चलना कर आना होगा!"
अंदर अन्नू ने बॉल उछाली तो तुरंत एक गार्ड दौड़ा आया। - " अरे-अरे-रे ,बोर्ड नहीं देखते,क्या लिखा है - घास पर खेलना मना है!"
ताज़ा खिले गुलाब ने मुनिया की आँखों में चमक भर दी । उसने हौले से पंखुड़ी छुई तो माली चिल्लाया -‘अए लड़की ! फूल क्यों तोड़ रही है!”
वह रुआँसी हो उठी - ‘‘ पापा , मैं तो फूल छू रही थी !”
सुंदरता की फंकी लगा कर ट्रैक पर चलते बाहर निकलने को थे कि एकाएक मुनिया पूछ बैठी – " माँ झूले कितने के आते हैं?"
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मर्मस्पर्शी लघुकथा। सुदर्शन रत्नाकर
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