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Aug 1, 2024

साहित्यः सूरसागर में डूबते हुए

  - विनोद साव

भक्तिकालीन कवियों में कबीरदास और तुलसीदास को पढ़ने के अवसर पर्याप्त मिले पर दो प्रमुख कवि सूरदास और मीराबाई रह गए थे। इनमें मीरा को छुटपुट पढ़ पाया था; पर सूरदास के मामले में तो अध्ययन लगभग शून्य ही रहा। जबकि सूरदास के ईष्ट कृष्ण और राम दोनों, मिथकों के सर्वप्रिय महानायक रहे। कभी मथुरा वृन्दावन की यात्रा के बाद मैंने यात्रा-वृत्तांत लिखा था ‘कृष्ण पक्ष के श्याम रंग’ उसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ ने छापा था। यात्रा तो अयोध्या की भी हुई थी बाबरी मस्जिद कांड के तुरंत बाद, पर वहाँ से आकर व्यंग्य रचना ही बनी थी ‘तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे।’ बात वैसे ही नहीं जमी जैसे सूरदास की रामभक्ति लेखन पर नहीं जमी और तुलसीदास की कृष्ण भक्ति पर नहीं जमी थी। सूरदास के मुख्य आराध्य कृष्ण रहे जिन्हें उन्होंने अपनी भक्ति का आलम्बन बनाया था। ईश्वर के कई अवतारों का स्मरण करते हुए उन्होंने अपनी पदावलियाँ उन्हें समर्पित की हैं पर कृष्णलीला सम्बन्धी पदों में उनकी रचनाशीलता खूब पल्लवित हुई है और उन्हीं में कवि कल्पना उत्कृष्ट काव्य की सृष्टि में सफल हुई है।  

यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सूरसागर में रामकथा पर भी सूरदास ने बड़े विस्तार से लिखा है। राम जन्म से लेकर रावण के अंत तक और अयोध्या प्रवेश तक की सारी कथा है। बड़े कवि कितने व्यापक होते थे। इस कृति में सूरदास ने जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और गौतम बुद्ध को भी सम्मिलित किया है। उन पर भी अपनी पदावलियाँ समर्पित की हैं। ऋषभदेव जब श्रावक (जैन) होने गए, तब उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपा था जो ‘जड़ भरत’ कहलाए। सूर ने कृष्ण की सुन्दरता का चरम प्रस्तुत करते हुए उनकी राम से भी तुलना की है- ‘कृष्ण कमल लोचन... रामचन्द्र राजीव नैन बर (कमल-नयन कृष्ण तुम्हारी ऑंखें रामजी के राजीव लोचन के समान हैं)। पदसंख्या-९८१ राग भैरव।

उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर के वृत्तान्त मुझे रुचिकर लगा करते थे। विशेषकर मिथक, इतिहास या आधुनिक सन्दर्भों में भी उनके प्रख्यात कथा लेखन को लेकर। उन्होंने तुलसीदास और सूरदास दोनों पर प्रामाणिक ग्रंथ लेखन किया है। तुलसी के जीवन पर प्रामाणिक उनका उपन्यास ‘मानस का हंस’ तो उनकी एक ‘माइलस्टोन’ कृति रही जो एम.ए.(हिंदी) के लिए महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती थी। इस हिसाब से उनका सूरदास पर लिखा ‘खंजन नयन’ भले ही कमतर माना गया हो, पर वह भी उल्लेखनीय कृति रही और सूरदास के जीवन पर एक आवश्यक प्रामाणिक कथा भी बनी। खंजन का हिंदी अर्थ है- काले-मटमैले रंग की एक चिड़िया जो बहुत चंचल होती है। खंजन नयन यानी चंचल आँखें। नागर जी के उपन्यास में या अन्यत्र कहीं ऐसा कुछ पढ़ा है कि बालक सूर तेरह बरस की उम्र में चेचक से ग्रस्त हुए तब उनकी आँखों पर चेचक का प्रभाव पड़ा था। द्विवेदी युग के महत्त्वपूर्ण समालोचक बाबू श्यामसुन्दर दास कहते भी हैं कि "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ के सूत्रधार एक नेत्रहीन व्यक्ति है, जिसे सूरदास कहा जाता है। यह क्रान्तिकारी सूरदास उपन्यास में कारखाने के लिए बनने वाले गोदाम में पशुओं की चारागाह युक्त जमीन के छिन जाने पर छिड़े आन्दोलन में आगे आकर नेत्रवानों में अलख जगाता है।

पिछली बार मुझे सूरदास की मुख्य कृति ‘सूरसागर सटीक’ पढ़ने को मिली। इसके दो भाग हैं। दोनों भागों में एक एक हजार के लगभग पदावलियाँ हैं। लोक भाषाओँ की व्याख्या बड़ी कठिन होती है। इनके कई अर्थ निकलते हैं। विशेषकर यह जटिलता कबीर और मीरा में और अधिक दिखाई देती है.. और कुछ सूरदास में भी। इस मायने में तुलसी बाजी मार ले गए हैं। उनकी अवधी बोली अपनी सरलता के कारण हिंदी क्षेत्रों में सर्वाधिक सुगम हुई और इसलिए जन में सबसे अधिक ग्राह्य एवं प्रिय भी हो गई। तुलसी के रामचरित मानस का हिंदी में भावानुवाद भी बड़ा सरल है और बिलकुल सामान्य भाषा में है जबकि ‘सूरसागर’ में ब्रज बोली से हिन्दी भाषा में अनुवाद अपने पूरे सामर्थ्य और वैभव के साथ उपस्थित हुई है। इनका संपादन तथा अनुवाद करने वाले हरदेव बाहरी और राजेंद्र कुमार ने इस ग्रंथ का उत्कृष्ट प्रवाहमय अनुवाद किया है। यह भाषा संगीतमयी है सूर की पदावलियों की तरह। वैसे भी सूर की रचनाओं को क्लासिकल संगीत के लिए बड़ा मुफ़ीद माना गया है। सूर के पिता भी प्रसिद्ध गायक थे। फिर ग्रंथ के केन्द्रीय पात्र कृष्ण हैं जिन्हें अवतारों में सर्वाधिक कलायुक्त माना गया है। जिनके पास बँसुरी वादन और नृत्य- कौशल भी है और इसलिए वे रस, माधुर्य से भरे संगीतमय महाचारित्र हैं। उनके इसी रस और माधुर्य भरे व्यक्तित्व ने सूर को आसक्त किया है। यह पूरी रचना भक्ति और आसक्ति के बीच डोलती, फिरती और घूमती महाकथा है। यहाँ सूरसागर के दर्शन, भक्तिपक्ष, भावप्रसार, अभियंजना कौशल, पदशैली और भाषा इन सबका विवेचन रोचक ढंग से किया गया है। प्रत्येक पदावली में उनका संगीत राग भी दिया गया है यथा: राग भैरव, राग सारंग, राग बिलावल, राग केदारौ या राग मारू जैसे सभी रागों के इनमें पद हैं। सूरदास की रचनाओं में तुलसी की तरह संस्कृत में लिखे मंगलाचरण दिखाई नहीं देते। आरंभ में एक मंगलाचरण है पर वह ब्रज बोली में ही है।

सूरदास से सम्बंधित ‘गोकुलनाथ’ की वार्ता से ज्ञात होता है कि समकालीन सम्राट अकबर ने सूरदास से भेंट की थी और उनके पदों का संकलन कराया था। जिस समय संवत सोलह सौ एकतीसा में तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखना आरंभ किया था ठीक उसी समय जयपुर के पोथीखाना में सूरसागर की प्रति उपलब्ध हो चुकी थी। मतलब सूर अपनी कृति तुलसी से पहले लिख गए थे। वे दीर्घायु भी रहे और 105 वर्ष की उम्र तक जिए। 19वीं सदी में आगरा मथुरा और दिल्ली से सूरसागर मुद्रित हुई। ग्रंथ के बाएँ पन्ने पर ब्रज में पद रचनाएँ हैं और दाएँ पन्ने पर उसकी टीकाएँ हैं। उनकी श्रद्धा का आवेग ‘राग बिलावल’ से बद्ध पहले ही मंगलाचरण में यों उजागर हुआ है ‘सर्वेश हरि के चरण-कमलों की मैं वंदना करता हूँ जिसकी कृपा से लंगड़ा पहाड़ को पार कर जाता है, अँधे को सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है, बहरा आदमी सुनने लग जाता है। गूँगा पुनः बोलने लग जाता है, कंगाल भी छत्रधारी राजा हो जाता है।’ सूरदास कहते हैं कि “मैं ऐसे दयामय स्वामी के चरणों की बारम्बार वंदना करता हूँ।” राग बिलावल से ही संगीत बद्ध उनका एक भक्ति पद चिरपरिचित पद है:

“हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ

हरि चरनार बिन्द उर धरौ।” (भाग-1 पृ-157)

ग्रंथ में यह पदावलि पूरी ब्रज भाषा में है पर मंदिरों में भजन कीर्तन में इसे जनप्रिय बनाने के लिए इसका सरल हिन्दीकरण किया गया है। क्लिष्ट को सरल सुबोध सुगम्य बनाकर उसे लोकप्रिय बना देना- यह हिंदी भाषा की शक्ति है।

सूर के लीला वर्णन का चरमोत्कर्ष कृष्ण की सर्वोत्कृष्ट बाललीला और रासलीला के अंतर्गत लक्षित होता है। अपने अराध्य के रूप और उनकी क्रीड़ाओं के वे चित्र उभार देते हैं। सूर कहते हैं कि कृष्ण अत्यधिक छेड़छाड़ करता है, वह हाथ नहीं आता है- “सूर स्याम अतिकरत अचगरी / कैसेहूँ कहू हाथ न आवै।” वहीँ वे मानवीय चेतना से समग्रतः अनुप्राणित हैं और इसीलिए वे लोकधर्मी हैं। नन्दनन्दन सहज मानवीय व्यापार करते हुए लोकानुरूप आचरण करते हैं। उनके प्रेम का वाणिज्यिक रूप भी सामने आता है। यमुना तट पर गगरी भरने आई गोपिकाओं से कृष्ण ‘चुंगी’ माँगते हैं। कहते हैं यहाँ वाणिज्य का पसरा लगाए मैं बैठा हूँ। तुम दूध दही तो दिखाती हो पर अपना यौवन धन छिपाती हो।” कृष्ण से जब राधा की पहली मुलाकात होती है तब राधा कहती है कि “तू... यशोदा का बेटा... हमसे हिसाब माँगता है माखनचोर... हमने तेरा क्या चुराया है?”

सूरदास की गणना अष्टछापी कवियों में होती है। यहाँ कृष्ण के बालरूप के पूजक उनके स्वामी वल्लभाचार्य द्वारा निर्धारित कृष्ण भक्त आठ कवियों की गणना है। इनमें भक्तिकाल के हिंदी के कवि कुम्भनदास भी शामिल हैं। संभवतः ऐसी ही किसी प्रेरणा से अज्ञेय को आधुनिक हिन्दी कविता में ‘तार सप्तक’ निकालने की प्रेरणा मिली होगी।

सूरदास को पढ़ते समय कालिदास की भी याद आती है, जिनके आराध्य शिव-पार्वती हुआ करते थे। काल-भिन्नता के बावजूद भी अपनी कथाओं के चित्रण में ये दोनों महाकवि बेहद उन्मुक्त हैं। इस चित्रण में सूरदास तो और भी आगे निकल गए हैं और आधुनिकता के साथ उन्मुक्त हुए हैं। इसके संपादकों ने भी माना है कि “अनेक ऐसी पंक्तियाँ हैं, जिनके एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं। हम अपनी सीमाओं के रहते सारे अर्थ नहीं दे सकते।” हजारों की पद संख्या में कृष्ण, राधा, गोप गोपिका, ब्रजांगनाओं के प्रेम व अंतरंग संबंधों का ऐसा खुलकर चित्रण सूरदास ने किया है, जो आज किसी भी स्थिति में किसी ईश्वरीय शक्ति के लिए कह पाना संभव नहीं हैं, जबकि वह भी कला का उत्कृष्ट प्रतिरूप है, जिनकी प्रेरणा से निर्मित हम खजुराहो, कोणार्क या अजंता एलोरा के चित्रों व मूर्तियों को देख अभिभूत होते हैं। 

बचपन में बुआ के गाँव में कभी रासलीला देखी थी। आज वह पढ़ने को मिली। इस रासलीला पर सूरदास ने अपने तन मन से ऐसी स्याही उड़ेली है कि अपनी कृष्ण भक्ति पर वे स्वयं ही बोलते हैं-‘सूरदास की कारी कमरी चढ़े न दूजो रंग’। यहाँ कारी कमरी से आशय काले कृष्णा से है।

चलिए यहाँ सूरदास जी के चमत्कारिक लेखन- कौशल को उसके ज्यादा अतिरेक से बचते हुए मध्यम मार्ग पर लाते हैं, जब वंशी की मधुर ध्वनि को सुनकर ब्रजांगनाओं में विचलन की स्थिति आती है। “युवतियाँ शृंगार करती करती भुला गई हैं। उन्हें अपने अंगों की सुधि तक नहीं रही। वे उलटे वस्त्र धारण करने लगीं, बड़े उल्लास से उन्होंने नेत्रों के अंजन को अधरों पर लगा लिया और कान में कर्णफूल उल्टे लगा लिये। ऐसे चल पड़ी कि वे अपना आँचल भी नहीं सँभाल पा रही थीं। उनके शरीर को कामदेव ने निढाल कर दिया था। वे चरणों में हार बाँधती जा रही हैं। कंचुकी को कमर में अलंकृत कर रही हैं और लहँगे को छाती में धारण कर रही हैं। हरि ने उनकी चतुराई चुरा ली है। कामदेव को अत्यधिक मोहित करने वाले सूर के प्रभु गोपाल ने रास रचा दिया। हरे हरे! हे गोविन्द, मुकुंद माधव.... (पद संख्या-998 राग गुंड मलार)।

सूर ने कृष्ण के रसरंग से ब्रज में होने वाले कोहराम को विष्णु तक पहुँचवा दिया है। मुरली की ध्वनि स्वर्ग में पहुँच गई, विष्णु इसे सुनकर प्रेम विभोर हो गए और बोले “लक्ष्मी! सुनो! कुंजबिहारी को रास- क्रीड़ा करते देखकर जीवन और जनम सुफल कर लो। ऐसा सुख तीनों लोकों में कहाँ है? वृन्दावन तो हमसे दूर पड़ता है। काश किसी प्रकार उसकी धूल रज पड़ जाती। (पद संख्या-1180 राग धनाश्री की यह एक पदावलि पाँच पृष्ठों में है)।

कृष्ण चरित के माध्यम से रससिद्ध कवि सूरदास ने जीवन को सार्थक एवं आनंदमय बनाने हेतु प्रेम और सौन्दर्य को उदात्त स्तर पर एक जीवनदृष्टि के रूप में चित्रित किया है। उनकी यह कृति भक्ति और आसक्ति के सागर में लीन हो जाने के मध्य कृष्ण के सरोकारों की उद्दाम कथा कहती है- जिसमें अपने घर, गाँव, गोवर्धन, ग्वालों, गोपी-गोपिकाओं और उनके बाल गोपालों के प्रति हर कहीं कृष्ण पूरी तरह चैतन्य और जिम्मेदार खड़े हैं। वे प्रेम और देखभाल की भावना से भरे समाजचेता और नियन्ता हैं। इन्हें, वे अपनी लीलाओं के मध्य पूरा करते चलते हैं। सूर अपने कृष्ण को ‘अशरण-शरण’ कहते हैं अर्थात् जिन्हें कहीं शरण नहीं मिलती, उन्हें कृष्ण शरण देते हैं। इस ग्रंथ की अंतिम पद संख्या-1646 में एक गोपिका की मनः स्थितियों के उहापोह का ह्रदय-विदारक चित्रण देखें जिसमें वह कृष्ण के रंग में रँग जाती है। वह बेचते समय अपने गोरस का नाम भूल जाती है... कहती है कि “गोपाल ले लो गोपाल... वह गली गली में शोर मचाती है- श्याम ले लो श्याम। उस ग्वालिन को याद नहीं कि उसके गोरस को लेने वाला कहीं कोई घर है भी या नहीं! वह भले- बुरे का विचार छोड़कर सूरदास के प्रभु से जा मिली। उसके शरीर में चूने हल्दी के रंग की तरह कृष्ण का प्रेम व्याप्त हो गया था।

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), मो. 9009884014

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