फिर मिलूँ मैं न
मिलूँ
दीदार तो कर लो
मंजूषा
मन
उस दिन हमारी कालोनी के महिला मंडल की बैठक थी। यूँ मुझे ऐसी बैठकों में शामिल होना पसन्द नहीं... पर उस दिन महिला मंडल की अध्यक्ष महोदया का विदाई समारोह भी था... सो मंडल के कार्यकारी महिलाओं ने विशेष अनुरोध किया कि आप ज़रूर आइयेगा...
अवसर भी ऐसा था कि जाना उचित लगा... सो मैं पहुंच गई... और बैठक में सबसे पीछे की कुर्सी पर अपना आसन जमा लिया था।
बैठक में सब महिलाओं ने अध्यक्ष महोदया के साथ बिताए पलों की यादें साझा कीं।
आयोजक सदस्य ने मेरे पास आकर कान में कहा - "आप भी कुछ कहिएगा"
मैंने कहा - "अरे.. पर अध्यक्ष महोदया के साथ मेरा कोई खास अनुभव तो है नहीं... मैं क्या कहूंगी?"
"अरे आप तो कवयित्री हैं... कोई कविता सुना दीजिएगा" - वे समझाते हुए बोलीं.... और आगे अपनी सीट पर पहुँच गईं।
मुझे भी लगा... चलो अच्छा है एक विदाई गीत बहुत पहले लिखा था वही सुना दूँगी। मेरी बारी आई तो मैंने वही गीत जिसके बोल हैं...
*"फिर मिलूँ मैं न मिलूँ दीदार तो कर लो,
आखरी है ये मिलन अब प्यार तो कर लो।"*
सुनाया और पुनः अपनी पीछे की सीट पर आ गई।
मैने देखा आगे की सीट से उठकर एक महिला मेरे पास आईं... जिन्हें मैंने मंडल की बैठक में पहले भी देखा था... पर कभी बात नहीं हुई थी। वे पास आईं और भावुक होतीं हुईं बोलीं... आपकी कविता... बहुत... इतना कहने के बाद कुछ शब्द उनके गले में अटक गये... वे सचमुच बहुत भावुक थीं। वे कुछ रुक कर फिर बोलीं... सच मे आपकी कविता बहुत अच्छी है... मेरे दिल को छू गई.... मैं तो रोने लगी थी।और वे सचमुच रोने लगीं।
मुझे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ... किसी रचनाकार के लिए इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी कि उसकी रचना किसी पर इतना असर करे कि वो भरी महफ़िल में सबके सामने रोने लगे।
मैंने उनसे कहा - "यह गीत मैंने कई बार गाया... लोगों ने पसन्द भी किया... पर ऐसा पहली बार हो रहा है कि कोई रुंधे लगे और हम आँखों से पास आ कर यूँ रोने लगे... आपका बहुत बहुत शुक्रिया... कहते हुए मैंने उन्हें गले लगाया...
मुझे समझ मे नहीं आ रहा था कि यह अच्छी बात है या नहीं... किसी को रुला देना अच्छा तो नहीं है। पर लगा कि शायद मेरे गीत में किसी की पीड़ा आँखों से बह जाए ये बहुत बड़ी बात है... शादी मुझे खुश होना चाहिए।
उन्होंने अपना मोबाइल नम्बर देते हुए कहा कि अपना यह गीत मुझे भेज दीजिए।
उनका नम्बर लेकर मैंने उन्हें अपना गीत भेजा... और उन्हें एक सन्देश भेजा... *"आप बहुत प्यारी हैं.. रोते हुए अच्छी नहीं लगतीं"*
और हम मित्र बन गए।
20 comments:
हमे भी ये पूरा गीत चाहिए।वाकई किसी भी कवि के लिए ये बहुत बड़ी बात होती है जब प्रतिक्रिया उसके भावों के अनुरुप हो।बधाई आपको बहुत 2
सुन्दर मन की तरह
मित्रता शब्द भावनाओं का दरिया है,मित्रता कभी भी हो सकती है बहुत सारगर्भित लेखन मंजूषा जी,हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत बढ़िया...
हार्दिक बधाई।
बहुत सुंदर
सुन्दर मन की प्यारी बात
शुभकामनाएं
तुम्हारी कविताएं तुमहरी तरह खूबसूरत है ,सचमुच दिल को छू लेने वाळी ।
बहुत बहुत शुभकामनाये
आप मानवीय भावनाओं की पारखी हैंआपकी तारीफ़ में शब्द कम पड़ते हैं
अद्भुत अनुभव है यह।वास्तविक कविता की यही तो ताकत और पहचान है। वरना गद्य को कविता कहकर परोसने वाले तो कबका गीत को अपदस्थ घोषित कर चुके थे। यह तो गीत की ताकत है कि बार बार वह प्रमाणित करता रहा है कि वास्तविक कविता गीत ही है। बधाई आपको।
जी बहुत बहुत धन्यवाद निक्की जी
हार्दिक आभार गणतंत्र जी
जी भावना जी बिलकुल सही है मित्रता कब कैसे हो जाती है कहना कठिन है... बस सम्वेदनाएँ मिलनी चाहिए
हार्दिक आभार आपका माणिक जी
हार्दिक आभार आपका
हृदयतल से आभार प्रवेश जी
शुक्रिया सुधा... हमारी दोस्ती अनमोल है...
जी हार्दिक आभार आपका
जी आदरणीय... बिलकुल सही कहा आपने, सच है गीत कभी गुम नहीं हो सकता... और अपदस्थ तो कदापि नहीं
कविताएं होती ही ऐसी हैं कि मंत्रमुग्ध कर जाती है। और आपकी कविताएं हर बार दिल को भाटी हैं।
बेहतरीन अनुभव सुनाया आपने। वैसे आपकी तो हर बात हर पंक्ति बहुत कुछ दिल को छूने लगती है। इसलिए ऐसा होना स्वाभाविक है। आपको हार्दिक बधाई।
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