- भगवानदास केला
प्रस्तुत आलेख मासिक पत्रिका ‘ जीवन
साहित्य’ वर्ष-14, अंक-1, जनवरी- 1953 से
साभार लिया गया है। इसमें लेखक ने आजादी के बाद सरकार में चुने गए प्रतिनिधियों
द्वारा उपयोग किए जाने वाली आलीशान सुविधाओं पर सवाल उठाने के साथ देश की आर्थिक
सामाजिक स्थिति पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उस दौर के ये सवाल आज की व्यवस्था पर भी
सटीक बैठते हैं।
-------------------------------------------
सन् 1915 से भारतीय शासन और राजनैतिक- से अधिक समस्याओं की बात करते
हुए अब सैंतीस वर्ष बाद अपनी जीवन-संध्या की बेला में मुझे कुछ प्रकाश मिला है। अब हुकूमत की बागडोर सँभालने वालों से राजेंद्रप्रसाद से, श्री नेहरू से, श्री आजाद से, श्री
राजगोपालाचारी से, श्री पन्त से और अन्य विविध राजनैतिक बुजुर्गों
से कुछ साफ़-साफ़ निवेदन करना जरूरी है। मान्यवर! आपने देश को विदेशी सरकार के जाल से आजाद करने में जिसे
त्याग, साहस और कष्ट-सहन का परिचय दिया उसके लिए आपको
चिर-काल तक आदर- मान और प्रतिष्ठा मिलेगी। परन्तु
पीछे आकर आपने जाने या अनजाने कई भूल या गलतियाँ कीं, यदि समय रहते उनका सुधार न किया गया तो उनके लिए इतिहास आपको क्षमा भी
नहीं करेगा। आपने शासन के उस शाही, केन्द्रित और खर्चाले
ढाँचे को अपनाया, जो अंग्रेजों ने यहाँ जनता का शोषण करने और
वैभव तथा विलासिता का जीवन बिताने के लिए तैयार किया था और जिसकी आपने समय-समय पर
काफी जोशीली और कटु आलोचना की थी।
भारत के नये संविधान के निर्माण की बहुत कुछ जिम्मेदारी आप
पर है। अपने ऊँचे पदाधिकारियों के लिए इतने ऊँचे वेतन और भत्ते निर्धारित किये कि
उन गद्दियों पर बैठनेवाले आदमी गरीब जनता के सेवक न बन कर मालिक ही बन गए। जितने
हजार रुपये मासिक उन्हें देने की व्यवस्था की गई, उतने सौ,
अर्थात् दसवां हिस्सा भी यहाँ के साधारण नागरिक को सुलभ नहीं हैं- उस नागरिक
को जो भारतीय गणतंत्र के बराबर के भागीदार कहा जाता है और माना जाता है।
आप इंगलैड अमरीका आदि की छाप के तथाकथित लोकतंत्र' और 'पार्लिमेंटरी
पद्धति के मोह-जाल में फँसे है,
जिसमें होने वाली घातक दलबन्दी,
अनीतिपूर्ण निर्वाचनऔर आदि से लेकर अन्त तक के विविध भ्रष्टाचारों से आप
अपरिचित नहीं हैं।

आप बालिग मताधिकार और प्रतिनिधि-शासन की. बात कहकर हमें
भुलावे में नहीं डाल सकते। कहाँ भारत की भूखी-नंगी जनता, और कहाँ हजारों
रुपये मासिक वेतन और भत्ता पानेवाले,
शाही बंगलों में रहने वाले,
बिजली के पंखे और खस की टट्टियों का आनन्द लेनेवाले ये प्रतिनिधि !
आपने भारत के
नवनिर्माण के लिए विचित्र ढंग अपनाया है
! पूंजीवाद और केन्द्रीकरण अधिकाधिक बढ़ाया जा रहा है। ग्रामोद्योगों को संरक्षण
देकर उनके लिए कोई ऐसा क्षेत्र सुरक्षित नहीं किया जा रहा है, जिसमें
उन्हें यंत्रोद्योगों से घातक टक्कर न लेनी पड़े।
आप अरबों रुपये का अन्न विदेशों से मँगाने और करोड़ों रुपये
‘अधिक अन्न उपजाओ आंदोलन में खर्च करने को तैयार रहते हैं, परन्तु यह
नहीं सोचते कि जिन बेकारों के पास खरीदने की शक्ति का अभाव है, वे देश में
अन्न होते हुए भी भूखे मर सकते हैं और मरते हैं। इसलिए जरूरी है कि जिन
ग्रामोद्योगों से लाखों करोड़ों आदमियों को रोजगार मिले, उन्हें
यांत्रिक न बनने दिया जाय,
उनका ह्रास रोका जाए,
और उन्हें यथेष्ट प्रोत्साहन दिया जाए।
अफसोस आपके जमाने में,
और आपकी मेहरबानी से अमरीका चुपचाप इस देश पर हावी होता जा रहा है।
आप यहाँ अमरीकी पूंजीवाद और अमरीकी विशेषज्ञों को निमन्त्रण
देते जा रहे हैं। भारत की अगली पीढ़ी के लिए यह कैसी विनाशकारी विरासत है ! अमरीकी
विशेषज्ञ, जिन्हें
अपने यहाँ की शहरी अर्थ-व्यवस्था का अनुभव है, वे हमारी ग्रामीण-व्यवस्था का क्या उद्धार करेंगे । वे
मशीनों के आदी हैं और हम जन-शक्ति के धनी हैं। हमारा उनका मेल नहीं बैठता । वे
हमारी प्रगति में रोड़े ही अटकाने वाले हैं। अपने शाही वेतन, भत्तों और
विशेषाधिकारों या सुविधाओं के कारण ये हमारे गरीब देश के लिए सफेद हाथी हैं, यह बात रही
अलग।

क्या आप मानसिक दृष्टि से इतने बूढ़े हो गए हैं कि विदेशी पूँजीवाद, आर्थिक
साम्राज्यवाद, पार्लमेंटरी
पद्धति और वर्तमान ढंग के लोकतंत्र के दोषों को जानते हुए भी, आप इन्हें बदलने और विकेंद्रित शासन जारी करने लिए कुछ जोरदार कदम नहीं
उठा सकते। अगर ऐसा है तो नए नेता आएँगे, नया दृष्टिकोण अपनाएंगे और सच्चा स्वराज्य, सर्वोदय राज
स्थापित करेंगे। आप उन्हें आशीर्वाद दीजिए,
उनके लिए शुभ कामना प्रकट कीजिए।
इन थोड़ी -सी बातों की ओर, मैं अपनी नई
पुस्तक में आपका ध्यान दिला रहा हूँ। आपको स्मरण दिलाने के लिए राष्ट्रपिता के कुछ
चुने हुए आदेश भी आपकी भेंट हैं। हमारे राष्ट्रपति, हमारे राज्यपाल,
हमारे मंत्री, और
अन्य ‘लोकसेवक' उनकी
आशा और भावना के कुछ तो- नजदीक आने की कोशिश करें।
(लेखक की पुस्तक 'सर्वोदय
राज, क्यों
और कैसे?' से
। )
No comments:
Post a Comment